[अवधेश कुमार]। कांग्रेस संसदीय दल की बैठक से बाहर आई खबरें केवल कांग्रेस के लिए नहीं, भारतीय लोकतंत्र के भविष्य की दृष्टि से भी चिंता पैदा करने वाली है। देश में सबसे ज्यादा समय तक शासन करने वाली पार्टी दो करारी पराजय के बाद भी या तो यह समझ नहीं रही या समझने के लिए तैयार नहीं कि इस दुर्दशा के लिए उसका स्वयं का विचार और व्यवहार जिम्मेदार है। राहुल गांधी का यह कहना कि हम 52 लोग भाजपा से लड़ने के लिए काफी हैं, का मतलब यही है कि कांग्रेस नरेंद्र मोदी सरकार से केवल टकराव की रणनीति अपनाएगी। संसद का टकराव केवल वहीं तक सीमित नहीं रहता, उसका असर देश के पूरे राजनीतिक माहौल पर पड़ता है।

16वीं लोकसभा के कार्यकाल में पहले एक वर्ष को छोड़ दें तो कांग्रेस लगातार सरकार से मोर्चाबंदी करती रही। इससे उसे कोई राजनीतिक लाभ नहीं हुआ। इसके बावजूद यदि वह उससे ज्यादा तीखी लड़ाई की रणनीति अपना रही है तो फिर इसके उल्टे परिणाम होंगे। संघर्ष के लिए राहुल गांधी ने जिस सिद्धांत को आधार बनाया वह कहीं ज्यादा चिंताजनक है। उन्होंने मोदी सरकार को ब्रिटिश सरकार साबित कर दिया। इस आपत्तिजनक विशेषण के लिए शब्द तलाशना मुश्किल है। उनसे यह तो पूछा ही जा सकता है कि भारत के मतदाताओं द्वारा संवैधानिक प्रक्रिया के तहत निर्वाचित किसी सरकार को आप ब्रिटिश सरकार कैसे कह सकते हैं? क्या मोदी सरकार ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह बाहर से आकर देश पर कब्जा करके हमें गुलाम बनाया है?

अगर ऐसी गुलामी होती तो सोनिया गांधी और राहुल गांधी संसदीय सौंध में न अपने संसदीय दल की बैठक कर पाते और न ही वे इतने आक्रामक ढंग से सरकार के खिलाफ बोल पाते। वे कह रहे हैं कि संविधान की, संस्थाओं की रक्षा के लिए हमें लड़ना है। यही बात वे पूरे चुनाव अभियान में बोलते रहे। अब उनका कहना है कि हमें पहले से ज्यादा आक्रामक होना है तथा जोर से बोलना है। वे कहते हैं कि जिस ढंग से ब्रिटिश काल में हमें किसी संस्था से कोई मदद नहीं मिली फिर भी हम जीते, उसी तरह हमें किसी संस्था की मदद नहीं मिलेगी, लेकिन हम जीतेंगे। पार्टी नेतृत्व की यह सोच साफ कर रही है कि वह दिशाभ्रम का शिकार है और आने वाले समय में उसकी भूमिका सकारात्मक विपक्ष की नहीं होगी।

राहुल गांधी ने स्वयं चुनाव परिणाम के बाद कहा था कि उनकी पार्टी सकारात्मक विपक्ष की भूमिका निभाएगी। इससे एक उम्मीद बंधी थी कि कांग्रेस जनता द्वारा नकारे जाने के बाद अपने विचार और व्यवहार में शायद परिवर्तन करने के लिए तैयार हो रही है। प्रश्न है कि इतने ही दिनों में ऐसा क्या हो गया कि सोच और तेवर पूरी तरह बदल गए? शायद राहुल गांधी एवं सोनिया गांधी के रणनीतिकारों ने यह समझाया है कि अगर मोदी सरकार के प्रति विनम्र और सहयोगी रहे तो कार्यकर्ताओं और समर्थकों के बीच निराशा का संदेश जाएगा। यह समय उनको यह विश्वास दिलाने का है कि हम चुनाव जरूर हारे हैं, पर लड़ने का माद्दा नहीं खोया है। कांग्रेस के लिए कार्यकर्ताओं और समर्थकों का आत्मविश्वास बनाए रखना जरूरी है, लेकिन एक तिलमिलाई हुई संतुलन खो चुकी पार्टी का चरित्र ग्रहण करना तो नुकसान ही पहुंचाएगा। कांग्रेस के जो विवेकशील कार्यकर्ता व समर्थक हैं वो भी इससे सहमत नहीं होंगे कि मोदी सरकार ब्रिटिश सरकार है जिसने हमको गुलाम बना लिया है और संविधान को नष्ट कर संस्थाओं का गला दबा दिया है।

यह भी नहीं भूलना चाहिए कि लड़ने की एक सीमा होती है। कोई राजनीतिक दल सतत लड़ते नहीं रह सकता। आक्रामक होने की एक सीमा होगी। इसमें आप थक जाएंगे और पार्टी को संगठित करने, खोए समर्थन आधार पाने के लिए काम करने की शक्ति और समय नहीं बचेगा। उल्टे ऐसे व्यवहार से मोदी और भाजपा के समर्थक ज्यादा संगठित होंगे। कांग्रेस के लिए यह रणनीति आत्मविनाशक साबित होगी। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के अंदर से जितनी खबर आई थी उसके अनुसार राहुल ने कई नेताओं को गुस्से का निशाना बनाया।

तीन राज्यों के मुख्यमंत्रियों सहित कई राज्यों के अध्यक्षों द्वारा दिए गए गलत फीडबैक पर उन्होंने प्रश्न किया। यहां तक कहा कि कुछ बड़े नेताओं ने अपने बेटे को टिकट देने का दबाव बनाया और अपना ज्यादा समय उसे जिताने के लिए लगाया। अगर राहुल गांधी को अपनी पार्टी नेताओं के चरित्र का पहले से पता नहीं था तो यही माना जाएगा कि वे कांग्रेस के अध्यक्ष हैं ही नहीं। प्रियंका वाड्रा ने तो बैठक में यहां तक कह दिया कि कांग्रेस के हत्यारे इसी कमरे में बैठे हैं। राहुल और प्रियंका यह क्यों नहीं सोचते कि जनता ने उनकी अपील और आक्रामकता को क्यों नकार दिया?

बहरहाल कांग्रेस अध्यक्ष के पद से राहुल गांधी ने इस्तीफा देने का प्रस्ताव दिया जिसे कांग्रेस कार्यसमिति ने अस्वीकार किया, पर वे अड़े रहे। पता नहीं उनके मन में अभी क्या है? इसी बीच सोनिया गांधी का पत्र सार्वजनिक हुआ जिसमें उन्होंने राहुल गांधी के नेतृत्व की प्रशंसा करते हुए कहा कि वे निडरतापूर्वक लड़े हैं। कठिन समय में अच्छा नेतृत्व दिया पार्टी को। साफ है कि यह पत्र रणनीति के तहत लिखा गया। पार्टी दुर्दशा का शिकार हुई है तो उसकी मूल जिम्मेदारी अध्यक्ष के नाते राहुल के सिर ही आती है। सारी रणनीतियां उनके नेतृत्व में बनी। घोषणा पत्र में भी उनकी सहमति रही होगी। संभव है राहुल अध्यक्ष भी बने रहें। वैसे राहुल अध्यक्ष रहें या कोई और, कांग्रेस उस स्थिति में नहीं कि परिवार के नियंत्रण से बाहर जाए।

आखिर सोनिया गांधी को संसदीय दल का अध्यक्ष बना ही दिया गया। पार्टी का नेतृत्व परिवार के ही ईर्द-गिर्द रहेगा तो नई दिशा से कुछ हो पाना संभव नहीं है चाहे जो कवायद की जाए। इन सब घटनाओं को साथ मिलाकर देखें तो कई निष्कर्ष आता है। एक, राहुल गांधी अमेठी में अपनी पराजय के आघात से उबर नहीं पा रहे हैं। दो, कांग्रेस अभी तक यह समझ नहीं पा रही है कि केरल और पंजाब को छोड़कर उसकी इतनी बुरी पराजय क्यों हुई? तीन, जिस मोदी और भाजपा को वे अलोकप्रिय मान चुके थे उसे इतना बड़ा बहुमत कहां से प्राप्त हो गया? चार, राहुल और प्रियंका की अपीलों व आक्रामकता का असर क्यों नहीं हुआ? पांच, उसके साथ सहयोगी दलों को भी जनता ने क्यों नकार दिया? और उन्हें इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा कि आखिर राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का दुर्दिन खत्म क्यों नहीं हो रहा? यह ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर मिलना तभी संभव होगा जब सोनिया गांधी, राहुल और उनकी सलाहकार मंडली भी सच को देख सकें। इससे इतर रास्ते से कांग्रेस केवल अपना नुकसान करेगी और चूंकि भाजपा के बाद वही एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी है, इसलिए लोकतंत्र भी इससे बुरी तरह प्रभावित होगा। काश कांग्रेस को सुबुद्धि आए और वह अपनी नीति-रीति व नेतृत्व की भूलों को समझकर आंतरिक सुधार की दिशा में आगे बढ़े और आत्मविनाश से स्वयं को बचा सके। इस समय की अवस्था देखते हुए तो लगता नहीं कि कांग्रेस को सुबुद्धि मिलने वाली है।

[वरिष्ठ पत्रकार]

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