[ विवेक काटजू ]: तीन जनवरी की सुबह बगदाद हवाई अड्डा परिसर में ईरान के मेजर जनरल कासिम सुलेमानी की हत्या कर दी गई। ड्रोन हमले के जरिये हुई यह हत्या अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के आदेश पर हुई। इससे ईरान में आक्रोश की लहर दौड़ गई। दुनिया भर में शिया समुदाय इससे कुपित हो गया। आखिर इस पूरे घटनाक्रम के क्या निहितार्थ हो सकते हैं और यह वैश्विक परिदृश्य को किस प्रकार प्रभावित कर सकता है।

इसकी पड़ताल के लिए हमें सबसे पहले ईरान के राष्ट्रीय एवं सामरिक जीवन में सुलेमानी की हैसियत को समझना होगा।

सुलेमानी का दस्ता 20 सालों से इस्लामिक क्रांति के ढांचे को ध्वस्त होने से बचा रहा था

सुलेमानी ईरान के रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स की अल कुद्स इकाई के प्रमुख थे। इस पद पर उन्हें बीस साल से अधिक हो गए थे। रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स का मुख्य मकसद 1979 में अयातुल्ला खुमैनी के नेतृत्व में हुई इस्लामिक क्रांति के मूल्यों एवं उद्देश्यों का संरक्षण करना है। इसके अंदरूनी दस्ते इस्लामिक क्रांति के आंतरिक दुश्मनों का सफाया करते आए हैं। वहीं बाहरी दस्ता विदेशी दुश्मनों से निपटता है। सुलेमानी की अगुआई वाला अल कुद्स बाहरी दस्ता है। वह बीते दो दशकों से इस्लामिक क्रांति के ढांचे को ध्वस्त करने की अमेरिकी कोशिशों का मजबूती से प्रतिरोध कर रहे थे।

सुलेमानी ने की पश्चिम एशिया में शिया समुदाय को संगठित करने की कोशिश

वहीं शिया ईरान पर प्रभुत्व कायम करने के सुन्नी अरब देशों के प्रयासों का भी उन्होंने पुरजोर तरीके से मुकाबला किया। सुलेमानी ने पश्चिम एशिया और दुनिया के अन्य देशों में भी शिया समुदाय को संगठित करने की कोशिश की। उनमें ईरान के प्रति सहानुभूति के भाव को बनाए रखने और बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई।

सुलेमानी अयातुल्ला खामनेई के बहुत करीबी थे

यहां यह भी याद दिलाना होगा कि ईरान में निर्वाचित सरकार तो है जिसका नेतृत्व राष्ट्रपति करते हैं, लेकिन निर्णायक शक्ति सुप्रीम लीडर के हाथ में होती है। 1989 में अपनी मृत्य तक अयातुल्ला खुमैनी इस पद पर काबिज रहे। उनके बाद शिया धर्मगुरुओं ने अयातुल्ला खामनेई को इस गद्दी पर बैठाया। रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स सुप्रीम लीडर के प्रति उत्तरदायी हैं और उनके इशारे पर ही काम करते हैं। इस लिहाज से सुलेमानी खामनेई के बहुत करीबी तो थे ही, वहीं उन्होंने अपने जज्बे, काबिलियत और दिलेरी से ईरानी शियों के साथ-साथ दुनिया भर के शिया समुदाय में गहरी पैठ बनाई। इसीलिए उनकी हत्या पर इतनी तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है।

सुलेमानी शिया जगत के नायक थे तो अमेरिका और सुन्नी को खटकते रहे

सुलेमानी शिया जगत के नायक थे तो अमेरिका और सुन्नी अरब देशों की आंखों में वह हमेशा खटकते रहे। इसका यह तात्पर्य नहीं कि सुलेमानी की अल कुद्स और अमेरिकी खुफिया एजेंसियों में कभी सहयोग नहीं रहा। उन्होंने इराक में आइएस जैसे साझा दुश्मन के खिलाफ साथ में मुहिम भी चलाई, लेकिन कभी भी दोनों पक्षों ने इसे सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं किया। यह विरोधाभासी स्थिति आपको सामरिक संबंधों की जटिलताओं का आभास करा सकती है।

ट्रंप की नीति ही है ईरान को आर्थिक रूप से कमजोर करने की

चूंकि यह मामला ही अमेरिकी राष्ट्रपति के इशारे पर घटित हुआ तो अमेरिका से इसका सरोकार होना स्वाभाविक है। अमेरिका की कमान संभालने के बाद से ही राष्ट्रपति ट्रंप ने अपने पूर्ववर्ती बराक ओबामा की ईरान नीति को सिरे से पलट दिया। पहले तो वह परमाणु करार से पीछे हटे और फिर उस पर तमाम प्रतिबंध लगाने के साथ ही सुन्नी अरब देशों का साथ दिया। उन्होंने अपनी यह मंशा कभी नहीं छिपाई कि वह पश्चिम एशिया में ईरान का कद घटाना चाहते हैं। उन्होंने साफ कहा कि वह ईरान की मुश्किलें बढ़ाएंगे और उसे आर्थिक रूप से कमजोर करेंगे। यहां तक कि ईरान के क्रांतिकारी ढांचे और धार्मिक गुरुओं के नेतृत्व वाली प्रणाली को खत्म करने की अपनी इच्छा को भी उन्होंने नहीं छिपाया। उन्होंने ईरान की जनता को भी इसके लिए उकसाया।

ओबामा की ईरान नीति कमजोर थी, ट्रंप के नेतृत्व में पश्चिम एशिया में अमेरिकी हित सुरक्षित

इसके साथ ही ट्रंप ने अमेरिकी जनता को भी यह दिखाने का प्रयास किया कि जहां ओबामा की ईरान नीति कमजोर थी वहीं उनके नेतृत्व में पश्चिम एशिया में अमेरिकी हित पूरी तरह सुरक्षित हैं। सुलेमानी को लेकर लिया गया उनका फैसला इसकी बड़ी मिसाल है।

ट्रंप याद दिलाना चाहते हैं कि वह जिमी कार्टर की तरह कमजोर राष्ट्रपति नहीं हैं

यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि घरेलू स्तर पर ट्रंप विपक्षी डेमोक्रेट पार्टी का भारी विरोध झेल रहे हैं जिसने हाल में अपने बहुमत वाली अमेरिकी प्रतिनिधि सभा में उनके खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया आगे बढ़ाई। इस साल अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव भी होने हैं। इससे ट्रंप अमेरिकी जनता को याद दिलाना चाहते हैं कि वह डेमोक्रेट राष्ट्रपति जिमी कार्टर की तरह कमजोर नहीं हैं। याद दिला दें कि चालीस साल पहले कार्टर के कार्यकाल में ही तेहरान स्थित अमेरिकी दूतावास को ईरानियों ने ध्वस्त कर दिया था। इतना ही नहीं उन्होंने 52 अमेरिकी राजनयिकों को 400 दिन तक बंधक बनाकर भी रखा। इस पूरे घटनाक्रम के दौरान कार्टर लाचार ही बने रहे।

ट्रंप ने अपने दबंग तेवर अमेरिकी जनता को दिखा दिए

इसके उलट ट्रंप ने अपने दबंग तेवर अमेरिकी जनता को दिखा दिए कि बगदाद स्थित अमेरिकी दूतावास पर हमले के कथित आरोपी सुलेमानी को ठिकाने लगाने में जरा भी वक्त जाया नहीं किया गया। ट्रंप की सोच की पुष्टि उनके ट्वीट से जाहिर है कि सुलेमानी की हत्या के खिलाफ अगर ईरान ने कोई दुस्साहस किया तो वह ईरान के 52 ठिकानों को निशाना बनाने से गुरेज नहीं करेंगे। यहां 52 का प्रतीक इसलिए महत्वपूर्ण है कि ईरानियों ने 52 अमेरिकी राजनयिकों को 400 दिनों तक ही बंधक बनाकर रखा था।

सुलेमानी की हत्या का बदला लेने के लिए ईरान पर बढ़ा दबाव

इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि ईरान की जनता और विश्व के शिया समुदाय के कई वर्ग अब दबाव डाल रहे हैं कि ईरान सुलेमानी की हत्या का बदला ले। प्रश्न यह है कि ईरान के समक्ष विकल्प क्या हैं? प्रतिबंधों के चलते उसकी आर्थिक स्थिति डांवाडोल है। ईरानी नेता यह भी जानते हैं कि ट्रंप कई पहलुओं की परवाह नहीं करेंगे। यदि घरेलू राजनीतिक हितों और पश्चिम पश्चिमी एशियाई सुन्नी देशों में अमेरिकी साख को कायम रखने के लिए ईरान पर बड़ा हमला करना पड़ा तो भी वह गुरेज नहीं करेंगे। इसलिए संभवत: ईरान के नेता कुछ न कुछ कार्रवाई तो करेंगे, लेकिन वह सीमित दायरे में ही रहेगी। हां, यह जरूर कि इससे दुनिया में बेचैनी बढ़ेगी और तेल बाजार पर कुछ असर पड़ सकता है, लेकिन इससे ज्यादा असर का अनुमान अतिरेक ही होगा।

ट्रंप ने भारत को भी घसीटा, कहा- सुलेमानी दिल्ली से लेकर लंदन तक आतंकी घटनाओं के पीछे थे

ट्रंप ने भारत को भी इसमें घसीटने का प्रयास किया कि सुलेमानी दिल्ली से लेकर लंदन तक आतंकी घटनाओं के पीछे थे। भारत सरकार ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देकर एकदम सही किया। भारत के पश्चिम एशिया में व्यापक हित जुड़े हैं। लाखों भारतीय कामकाज के सिलसिले में इन देशों में रहते हैं। भारत की ऊर्जा जरूरत भी इन देशों पर निर्भर है। ऐसे में भारत के लिए इस क्षेत्र में शांति एवं स्थायित्व बहुत जरूरी है।

भारत ने की अमेरिका और ईरान से संयम बरतने की अपील

भारत ने दोनों देशों से संयम बरतने की अपील की है, जो सही है, लेकिन भारत सरकार यह जानती है कि अमेरिका और सुन्नी अरब देशों में उसके विशेष हित हैं जिनकी रक्षा भी जरूरी है। इसलिए भारतीय कूटनीति को संभलकर कदम उठाना होगा। साथ ही पारंपरिक नीति पर भी कायम रहना होगा कि पश्चिम एशिया के आंतरिक मसलों से भारत दूर रहे और द्विपक्षीय संबंधों को आगे बढ़ाने पर जोर दे।

( लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं )