प्रो. रसाल सिंह। महामारी जनित वैश्विक परिघटना ने समाज के सभी व्यक्तियों, समुदायों, व्यवस्थाओं और संस्थाओं को व्यापक स्तर पर प्रभावित किया है। निश्चय ही इसके परिणाम युगांतकारी और सर्वव्यापी रहे हैं। ऑनलाइन शिक्षण की आंधी कोरोना संकट की उपलब्धि है। भारत में कोरोना संक्रमण की पदचाप सुनते ही केंद्र सरकार और तमाम राज्य सरकारों ने एहतियातन स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय बंद कर दिए थे।

शिक्षण संस्थानों में छात्र-छात्रओं की भारी और बहुलतापूर्ण संख्या होती है। वे संक्रमण के सहज, सर्वप्रमुख और सर्वाधिक संवाहक हो सकते थे। इसलिए शिक्षण संस्थानों को बंद करने का निर्णय दूरदर्शी और समीचीन ही था, लेकिन संक्रमण के क्रमश: खतरे के निशान को छूते चले जाने और लॉकडाउन के लंबा खिंचते चले जाने से न सिर्फ सरकारों की चिंता बढ़ी, बल्कि पढ़ाई-लिखाई को लेकर शिक्षण संस्थानों के कर्ता-धर्ताओं, शिक्षकों और अभिभावकों के साथ-साथ छात्र-छात्रओं की भी चिंता बढ़ने लगी। इसी चिंता के समाधानस्वरूप ऑनलाइन शिक्षण के विकल्प को अपनाया गया।

वैसे पहले भी यदा-कदा ऑनलाइन शिक्षण होता रहा है। कुछ ऑनलाइन पाठ्यक्रम भी संचालित हो रहे थे। मूक कोर्स, स्वयम पोर्टल, ई-पीजी पाठशाला और ज्ञान-दर्शन जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से ऑनलाइन शिक्षण का काम चल रहा था। लेकिन इस अल्पज्ञात और अल्प-प्रयुक्त शिक्षण माध्यम का कोरोना संकट ने अभूतपूर्व नियमितीकरण और संस्थानीकरण किया है। इस संकट ने इस माध्यम को बहु-प्रयुक्त और अत्यधिक लोकप्रिय बना दिया है। यह असाधारण परिस्थिति की तकनीकी उपज है। इस अंधाधुंध प्रयोग और आपातकालीन उपयोगिता ने इस आकस्मिक व्यवस्था के स्थायित्व की आशंका पैदा कर दी है। जबकि शिक्षण और अधिगम की यह प्रक्रिया तात्कालिक व्यवस्था मात्र है। हालांकि सूचना-तकनीक और संचार-क्रांति के कुछ पैरोकार इस वैकल्पिक व्यवस्था को ही मूल व्यवस्था बनाने के मंसूबे पाल रहे हैं। उन्हें यह समझने की आवश्यकता है कि अनुपूरक व्यवस्था कभी भी मूल व्यवस्था का स्थानापन्न नहीं हो सकती है और न ही होनी चाहिए। भारत जैसे देश में ऑनलाइन शिक्षण द्वारा परंपरागत कक्षा शिक्षण को अपदस्थ करने का विचार खयाली पुलाव ही समझा जाना चाहिए।

वैदिक काल से आज तक भारत में अध्ययन-अध्यापन की अत्यंत उन्नत और उकृष्ट परंपरा रही है। नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला, शारदा पीठ, वाराणसी, सोमपुरा, उदांतपुरी और वल्लभी जैसे अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा और ख्याति वाले शिक्षा-केंद्र भारत में रहे हैं। भारत की ज्ञान-परंपरा अत्यंत उन्नत और विकसित रही है। प्राचीन गुरुओं, उनके गुरुकुलों और समíपत व जिज्ञासु छात्रों ने ही भारत को विश्वगुरु का गौरव प्रदान किया। ऐसा इसलिए हो सका, क्योंकि गुरु और शिष्य का संबंध विक्रेता और क्रेता का नहीं था। शिक्षा का व्यवसायीकरण और व्यापारीकरण नहीं हुआ था।

उदारीकरण व निजीकरण ने बदला शिक्षा का स्वरूप : वर्ष 1991 में भारत में उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की शुरुआत हुई। इस नई व्यवस्था का दुखद परिणाम यह हुआ कि राज्य ने नागरिकों की शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी आधारभूत आवश्यकताओं की पूíत करने के अपने संवैधानिक दायित्व से पल्ला झाड़ना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे सार्वजनिक संस्थान ढहने लगे और निजी संस्थान पनपने लगे। शिक्षा का व्यवसायीकरण आरंभ हुआ। स्कूली शिक्षा का ढांचा सिमटने लगा और 21वीं सदी आते-आते अपनी विश्वसनीयता खोकर पूरी तरह तबाह हो गया। अब उच्च-शिक्षा भी उसी राह पर चल निकली है। ऑनलाइन शिक्षा का पूरा स्वरूप और संरचना शिक्षा के व्यापारीकरण के सर्वथा अनुकूल है। यह व्यवस्था शिक्षण-प्रक्रिया में शिक्षकों की संख्या और भूमिका को क्रमश: सीमित करते हुए लगभग समाप्त ही कर डालेगी। इस प्रकार यह व्यवस्था सर्वप्रथम शिक्षक के भविष्य को संकटग्रस्त करेगी। फिर शिक्षार्थी और शिक्षा के भविष्य को भी तबाह करके पूरे समाज, राष्ट्र यहां तक कि मानव-सभ्यता तक को मूल्यहीनता और महामारी के दलदल में धकेलेगी।

शिक्षा का प्राथमिक उद्देश्य : आधुनिक शिक्षा का प्राथमिक उद्देश्य संस्कारवान और कौशलयुक्त नागरिक बनाना है। इस अर्थ में शिक्षा संस्कार और रोजगार प्राप्ति की सर्वाधिक विश्वसनीय प्रक्रिया है। शिक्षा चरित्र-निर्माण और कौशल-विकास की कुंजी है। शिक्षा शिक्षार्थी का समाजीकरण भी करती है। वह व्यक्ति में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे जीवन-मूल्यों का परिपाक करती है। तमाम सीमाओं और संकीर्णताओं से मुक्त करके उसके अंदर मनुष्य-भाव का बीजारोपण करती है। शिक्षा के माध्यम से संस्कार, सामूहिकता, सहकार, समरसता और संवेदनशीलता की आधारभूमि तैयार होती है। शिक्षा के इन लक्ष्यों की प्राप्ति में कक्षा-शिक्षण की अपरिहार्य भूमिका होती है। शिक्षण एक पारस्परिक अंत:क्रिया है, जो अपने पूर्ण फलागम के साथ कक्षा में प्रत्यक्ष परिघटित होती है। शिक्षक इस अभिक्रिया का केटालिस्ट होता है। शिक्षण जड़ प्रक्रिया न होकर गतिशील क्रिया है। शिक्षक रोल मॉडल भी होता है। प्रत्येक विद्यार्थी अपनी अध्ययन अवधि में किसी न किसी अध्यापक से प्रभावित और प्रेरित होता है और वही उसका रोल मॉडल बन जाता है। छात्र जीवन में ऐसे अभिप्रेरक रोल मॉडल का अकल्पनीय महत्व और योगदान होता है।

शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य का जोखिम : ऑनलाइन शिक्षण के चलते छात्र-छात्रओं का स्क्रीन टाइम बहुत अधिक हो गया है। यह बच्चों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को खराब करता है। वे वास्तविक जीवन से कटते चले जाते हैं। आज छोटे-बड़े बच्चे और वयस्क तक लैपटॉप और स्मार्टफोन में आंखें गड़ाए रहते हैं। सीमित अवधि के लिए तो यह सब सह्य है, किंतु अगर कोरोना काल लंबा खिंचता है या फिर कोरोना की समाप्ति के बाद भी इस शिक्षण पद्धति की निरंतरता रहती है तो उसके परिणाम भयावह होने की आशंका है। कोरोना काल में भी ऑनलाइन शिक्षण को सीमित करने की आवश्यकता है। इस आपदा काल में ऑनलाइन शिक्षण की अवधि को सीमित करने के लिए शिक्षा क्षेत्र में कार्यरत स्वयंसेवी संगठनों और सरकार को तत्काल पहल करनी चाहिए।

नई तकनीक और नवाचार का स्वागत तो किया ही जाना चाहिए, किंतु उसे स्वीकारने और सजाने के फेर में परंपरा से प्राप्त श्रेष्ठतम का परित्याग कर देना विवेकसम्मत नहीं है। ऑनलाइन शिक्षण एक आपातकालीन व्यवस्था है। यह कक्षा-शिक्षण का पूर्ण विकल्प कतई नहीं है। ऑनलाइन शिक्षण पर आंशिक निर्भरता ही भविष्य का मार्ग है। अन्य अनेक समस्याओं की तरह गौतम बुद्ध का मध्य-मार्ग इस मुंह बाये खड़ी समस्या का भी सही समाधान है। लिहाजा हमें सावधानी बरतते हुए और संतुलन बनाते हुए आगे बढ़ना होगा।

डिजिटल ढांचागत सुविधाओं का हो विकास : भारत देश विकास और बदलाव के तमाम प्रयासों और दावों के बावजूद अभी भी एक अपेक्षाकृत अल्पविकसित और अभावग्रस्त देश ही है। यहां सुविधाओं और संसाधनों की उपलब्धता सीमित है। इन सुविधाओं और संसाधनों का वितरण भी असमान है। देश का बहुत बड़ा तबका अभी भी संचार-क्रांति और सूचना-तकनीक उपकरणों की परिधि से बाहर है। कोरोना आपदा ने भारत देश में मौजूद भयावह डिजिटल डिवाइड से न सिर्फ नीति-नियंताओं, बल्कि हम सबको परिचित कराया है। डिजिटल डिवाइड विषमता और भेदभाव का सर्वथा नया रूप है। कोरोना संकट ने भेदभाव की इस खाई को और भी गहराया है। गांवों के वंचित तबकों व से आने वाले छात्र-छात्रओं के पास स्मार्टफोन, लैपटॉप, टैबलेट, ईयरफोन आदि नहीं हैं।

सूचना तकनीक के अति उपयोग और उन पर शिक्षा जैसी आधारभूत आवश्यकता ने डिजिटल डिजेबिलिटी वाला एक बहुत बड़ा वर्ग खड़ा किया है। यह एक कडवी सच्चाई है कि आज देश भर में करोड़ों बच्चे महज मध्याह्न् भोजन के आकर्षण में स्कूल जाते हैं। उनके पास न तो ये उपकरण हैं, न इंटरनेट और ना ही बिजली। और न ही ऑनलाइन शिक्षण का लाभ उठाने की जगह है। कोरोना काल में किए गए एक सर्वे में यह तथ्य सामने आया है कि अभी भारत देश के महज एक तिहाई लोगों के पास ही स्मार्टफोन हैं। अभी तक आधे लोगों तक ही इंटरनेट की नियमित उपलब्धता है। डिजिटल साक्षरता की दर तो और भी चिंताजनक है। जिस देश की साक्षरता दर बड़ी कोशिशों के बावजूद सरकारी आंकड़ों तक में अभी दो-तिहाई तक पहुंची है, उस देश की डिजिटल साक्षरता का सहज आकलन किया जा सकता है।

डिजिटल उपकरणों और डिजिटल ढांचागत सुविधाओं की उपलब्धता में जाति, वर्ग, क्षेत्र, धर्म, भाषा और लिंग आधारित कारक बड़े विभेदक हैं। उल्लेखनीय है कि डिजिटल डिवाइड परंपरागत विषमता और भेदों को न सिर्फ बढ़ाता है, बल्कि उन्हें स्थायित्व भी प्रदान करता है। हालांकि कुछ सुधीजन ऑनलाइन शिक्षण के चलते इन विभेदों की समाप्ति के दावे भी कर रहे हैं। जबकि उपरोक्त सच्चाइयां ऑनलाइन शिक्षण की वास्तविकता दर्शाती हैं। ऑनलाइन शिक्षण नेटवर्क से जुड़ने में समाज के इन वंचित वर्गो को अभी दशकों लग जाएंगे। विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या ऑनलाइन शिक्षण के वकीलों के पास इस खाई को मिटाने लायक धैर्य, संसाधन और सामथ्र्य है?

डिजिटल माध्यमों की सहज भाषा अंग्रेजी है। भारत भाषिक विविधताओं वाला देश है। यहां डिजिटल साक्षरता की तरह अंग्रेजी साक्षरता भी बहुत सीमित और सुविधा संपन्न वर्गो तक ही सीमित है। जबकि अनेक शोधों और अधिगम रिपोर्टो में बारंबार बताया गया है कि शिक्षण का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए। मातृभाषा और स्थानीय भाषाओं को शिक्षण माध्यम बनाकर अधिगम-प्राप्ति में गुणात्मक वृद्धि की जा सकती है। अभी हाल में ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा अनुमोदित की गई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में मातृभाषा में शिक्षा देने पर विशेष बलाघात है।

शिक्षा के माध्यम का चुनाव करते समय उसके लक्षित समूह और उद्देश्य का ध्यान रखना आवश्यक है। ऐसा करके ही अपेक्षित अधिगम परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। महत्वाकांक्षी भारत की डिजिटल पीढ़ी मात्र को ध्यान में रखकर शिक्षण पद्धति, शिक्षण प्रक्रिया एवं ज्ञान-प्रवाह के आवश्यक माध्यम का चुनाव नहीं करना चाहिए, बल्कि वंचित भारत की अवाक पीढ़ी को भी चिंतन और चिंता के केंद्र में रखा जाना जरूरी है। सर्वसमावेशी नीतियां और कार्यक्रम बनाकर और उसमें सभी स्टेक होल्डर्स की भागीदारी सुनिश्चित करके ही भारतोदय हो सकता है।

[अधिष्ठाता, छात्र कल्याण, जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय]