डॉ. अजय खेमरिया। आज देशभर के एलोपैथिक चिकित्सक काम बंद हड़ताल कर रहे हैं। दरअसल यह हड़ताल केंद्र सरकार द्वारा आयुष चिकित्सकों को कतिपय शल्य क्रिया के साथ एलोपैथिक परामर्श की अनुमति के विरोध में की जा रही है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने सरकार के इस निर्णय का आरंभ से ही तीखा विरोध किया है। एसोसिएशन ने इसे मिक्स थेरैपी की संज्ञा देकर खतरनाक कदम बताया है। दूसरी तरफ केंद्र सरकार इस मामले पर नीतिगत रूप से तेज निर्णय ले रही है, ताकि देश के 135 करोड़ नागरिकों के आरोग्य को सुनिश्चित किया जा सके।

वर्ष 2030 तक एक राष्ट्र एक स्वास्थ्य प्रणाली की योजना लागू करने की दिशा में सरकार ने एक साथ कई मोर्चो पर काम शुरू किया है। नेशनल मेडिकल कमीशन, होम्योपैथी कमीशन और भारतीय आयुर्विज्ञान प्रणाली विधेयकों को मंजूरी दिलाने के साथ ही सरकार ने नई शिक्षा नीति 2020 में प्रावधित चिकित्सा शिक्षा को अमल में लाने की तैयारियां भी कर ली हैं। इस ड्राफ्ट में भी नर्सिंग शिक्षा को समरूपता प्रदान करने के साथ एक तरह से ब्रिज कोर्स पास कर चिन्हित मामलों में एलोपैथिक परामर्श का प्रावधान है। इन कानूनों का उद्देश्य आरोग्य की सभी उपलब्ध सेवाओं को समेकित कर मानक उपयोग सुनिश्चित करना भी है।

नीति आयोग की देखरेख में तय होगा प्रारूप : नीति आयोग के सदस्य (स्वास्थ्य) डॉ. वीके पॉल की अध्यक्षता में गठित एक विशेषज्ञ समिति चिकित्सा शिक्षा के साथ एकीकृत स्वास्थ्य प्रणाली के मसौदे को अंतिम रूप देने जा रही है। इस समिति के अधीन चार अलग अलग कार्यबल बनाए गए हैं जो भारतीय लोक स्वास्थ्य की व्यावहारिक स्थितियों के अनुरूप चिकित्सा शिक्षा व पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों के युक्तिसंगत प्रयोग की संभावनाओं को सुनिश्चित करने वाली अनुशंसा सरकार को करेंगे। 71 शीर्ष स्वास्थ्य विशेषज्ञों वाली इन समितियों को अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपनी है। डॉ. पाल की अध्यक्षता वाली शीर्ष समिति को बुनियादी रूप से आयुष और एलोपैथी के साझा अनुप्रयोग की देशज संभावनाओं को तलाशने का काम प्रमुख रूप से करना है। असल में एकीकृत स्वास्थ्य प्रणाली की अवधारणा भारत की परंपरागत चिकित्सा पद्धतियों के अधिकतम अनुप्रयोग को एलोपैथी के साथ सयुंक्त करने के वैज्ञानिक धरातल की वकालत करती है। सरकार की मंशा है कि देश में एक ही छत के नीचे नागरिकों को एलोपैथी के साथ आयुष यानी योग, प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी के माध्यम से भी उपचार उपलब्ध हो।

इस विचार को 2017 की स्वास्थ्य नीति के साथ 2020 में लाई गई नई शिक्षा नीति में प्रमुखता से रेखांकित किया गया है। वस्तुत: आयुष के महत्व को वैकल्पिक चिकित्सा के नाम से कमतर करने की कोशिश एलोपैथी लॉबी द्वारा की जाती रही है, जबकि तथ्य यह है कि योग और आयुर्वेद का भी सशक्त वैज्ञानिक आधार मौजूद है। शल्य चिकित्सा की बुनियाद तो मूलत: आयुर्वेद की ही देन है और आज योग के माध्यम से जनआरोग्य की पुष्टि दुनियाभर में स्वयंसिद्ध हो चुकी है। सवाल यह भी है कि जिन बीमारियों का उपचार एलोपैथी में नहीं है, उनके लिए आयुष को अपनाने में आखिर बुराई क्या है? चीन, यूरोप और अन्य राष्ट्रों में पारंपरिक एवं आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों को उपयोग में लाया जाता है, तो भारतीय नागरिकों के लिए केवल एलोपैथी पर ही जोर दिया जाना क्यों आवश्यक है? मोदी सरकार का यह कदम साहसिक होने के साथ आवश्यकताओं के अनुरूप है।

यह भारत की समृद्ध पारंपरिक चिकित्सा पद्धति को प्रतिष्ठित करने का प्रयास भी है। प्रस्तावित नीति के तहत आयुष चिकित्सकों को एक तरह के ब्रिज कोर्स के साथ आधुनिक चिकित्सा पद्धति के साथ प्राथमिक उपचार की पात्रता की बात कही गई है। इसी तरह एलोपैथी चिकित्सा पाठ्यक्रम में आयुष की बुनियादी ट्रेंनिग का प्रावधान है। वर्ष 2017 की स्वास्थ्य नीति में स्पष्ट तौर पर ब्रिज कोर्स की बात थी, लेकिन 2019 में पारित राष्ट्रीय आयुíवज्ञान आयोग विधेयक में इस हिस्से को शामिल नहीं किया गया है। दूसरी तरफ हाल ही में घोषित नई शिक्षा नीति स्पष्ट रूप से एलोपैथी और आयुष के युक्तिसंगत विलय की आवश्यकताओं पर जोर देती है। मोदी सरकार ने इसी को आधार बनाकर एकीकृत स्वास्थ्य प्रणाली और वन नेशन वन हेल्थ सिस्टम पर आगे बढ़ने का निर्णय लिया है। नई चिकित्सा शिक्षा नीति 2020 कहती है, हमारी स्वास्थ्य शिक्षा प्रणाली का अभिप्राय यह होना चाहिए कि एलोपैथिक चिकित्सा शिक्षा के सभी छात्रों को आयुर्वेद, योग और प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी की बुनियादी समझ होनी चाहिए और इसी तरह आयुष के छात्रों को एलोपैथी की।

एकीकृत स्वास्थ्य प्रणाली का विरोध एलोपैथी लॉबी द्वारा यह कहकर किया जा रहा है कि यह भारत में हाइब्रिड डॉक्टरों की फौज खड़ी कर देने वाली नीति है। दरअसल एलोपैथी लॉबी का कहना है कि आयुष और आधुनिक चिकित्सा पद्धति के कतिपय विलय से खिचड़ी सिस्टम का जन्म होगा और अलग अलग पैथियों की विशिष्टता भी खत्म हो जाएगी। मरीज को पैथी चुनने की स्वतंत्रता भी नहीं रहेगी। आइएमए ने इस नए सिस्टम के विरुद्ध अपनी लड़ाई तेज करने का एलान भी किया है। दूसरी तरफ मोदी सरकार इस बड़े लक्ष्य पर काम करने के लिए आगे बढ़ चुकी है। इसके लिए सरकार चार अहम सेक्टरों में काम करेगी। मेडिकल एजुकेशन, क्लिनिकल प्रेक्टिस, मेडिकल रिसर्च और चिकित्सा प्रशासन। इस नए सिस्टम में सरकार ने आयुष को भी सम्मानजनक दर्जा देने का निर्णय लिया है। इसीलिए इंटीग्रेटिव हेल्थ पॉलिसी में पाठ्यक्रमों को नई शिक्षा नीति के अनुरूप डिजाइन किया जाना है। इसका फायदा यह होगा कि आयुष चिकित्सक ग्रामीण इलाकों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर एलोपैथी के कुछ मानक उपचार प्रेक्टिस में ला सकेंगे। इसी मुद्दे पर आइएमए तीखा विरोध कर रहा है। जबकि भारत में चिकित्सकों की कमी के चलते करोड़ों लोग झोलाछाप डॉक्टरों, मेडिकल स्टोर्स और ऑनलाइन माध्यम से एलोपैथिक इलाज कराते हैं।

पूर्व केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव शैलजा चंद्र ने 2013 में भारतीय चिकित्सा पद्धति और लोक चिकित्सा की स्थिति पर आधारित अपने एक शोध में स्पष्ट रूप से इस बात की वकालत की है कि आयुष संवर्ग को मैदानी स्तर पर आधुनिक पद्धति से प्रैक्टिस के सीमित और अधिमान्य अवसर सुनिश्चित किए जाने चाहिए। असल में भारतीय लोकजीवन में पिछले सात दशकों में चिकित्सा के नाम पर केवल एलोपैथी को ही हर स्तर पर बढ़ावा दिया गया है। आज औसतन 94 फीसद मरीजों को एलोपैथी उपचार ही सरकारी एवं गैर सरकारी केंद्रों पर उपलब्ध कराया जाता है। सही मायनों में यह पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों के साथ घोर अन्याय करने जैसा ही है, जबकि भारत की परंपरागत पद्धतियां खासी वैज्ञानिक एवं शोधपरक रही हैं। कोविड के संक्रमण में करोड़ों नागरिकों को आयुर्वेदिक उपचारों ने बड़ी राहत और सुरक्षा उपलब्ध कराई है। मोदी सरकार अगर एकीकृत स्वास्थ्य प्रणाली में आयुष को उसकी प्रमाणिकता के अनुरूप स्थान देने का नीतिगत निर्णय ले रही है तो इसे नीम हकीम या छद्म विज्ञान को प्रतिष्ठित करने जैसे आरोपों को उस मानसिकता के साथ भी समझने की आवश्यकता है जो भारतीय संस्कृति और परंपराओं को लेकर स्थायी दुराग्रह का शिकार है।

नई व्यवस्था की ओर तेजी से बढ़ते कदम : नई स्वास्थ्य प्रणाली को मानकीकृत करने में मोदी सरकार केवल अपने सांस्कृतिक एजेंडे पर ही काम नहीं कर रही है, बल्कि देश के सर्वाधिक प्रज्ञावान एलोपैथिक चिकित्सकों और विषय वस्तु विशेषज्ञों को आगे रखकर काम कर रही है। इसे अमलीजामा पहनाने के लिए विशेषज्ञ जुटे हैं। आयुष मंत्रलय का गठन भी बुनियादी रूप से परंपरागत पद्धतियों के वैज्ञानिक धरातल को जनआरोग्य के लिए ही किया गया है। सरकार द्वारा होम्योपैथी और भारतीय चिकित्सा पद्धति विनियमन के साथ एनएमसी के गठन को दीर्घकालिक स्वास्थ्य सुधार की दिशा में उठाया गया कदम माना जाना चाहिए, क्योंकि मौजूदा स्वास्थ्य प्रणाली के विविधतापूर्ण ढांचे ने नागरिकों के प्रति राज्य की जवाबदेही को सरकारी औपचारिकताओं की जटिलता में उलझा रखा है।

व्यवस्थागत बदलाव से ही बनेगी बात : वर्ष 2030 से लागू करने की जिस महत्वाकांक्षी योजना पर केंद्र सरकार काम कर रही है, उसका मसौदा अगले महीने ही सामने आने की उम्मीद है। डॉ. वीके पॉल की अध्यक्षता में गठित समिति इंटीग्रेटिव हेल्थ पॉलिसी को आकार देने वाली है। उल्लेखनीय है कि डॉ. पॉल नीति आयोग में सदस्य स्वास्थ्य हैं और अंतरराष्ट्रीय स्तर के बाल रोग विशेषज्ञ, शिक्षाविद एवं अनुसंधानकर्ता हैं। वे 32 वर्षो तक एम्स, नई दिल्ली में कार्यरत रहे हैं। उनके नेतृत्व में इस समिति में 20 अन्य विषय विशेषज्ञों को शामिल किया गया है।

क्लिनिकल प्रेक्टिस के तौर तरीकों को आकार देने के लिए एम्स के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया की अध्यक्षता में कार्यबल बनाया गया है जिसमें 12 सदस्य होंगे। यह कार्यबल प्रस्तावित पॉलिसी में क्लिनिकल प्रेक्टिस के उन पहलुओं को मानकीकृत करने की सिफारिशें करेगा जो इंटीग्रेटिव मेडिसिन डॉक्टर के लिए जारी होंगे। चिकित्सा शिक्षा में पाठ्यक्रम को लेकर गठित कार्यबल की कमान एमसीआइ बोर्ड ऑफ गवर्नर्स के पूर्व अध्यक्ष डॉ. एसके सरीन को सौंपी गई है। शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार से सम्मानित डॉ. सरीन देश के प्रख्यात लिवर रोग विशेषज्ञ हैं। नई समावेशी चिकित्सा शिक्षा का खाका बनाने के इस काम में डॉ. सरीन के साथ 12 अन्य विषय विशेषज्ञों को भी जोड़ा गया है। चिकित्सा शिक्षा में शोध एवं विकास की सिफारिशों के लिए डॉ. वीएम कटोच की अध्यक्षता में 13 सदस्यीय कार्यबल काम करेगा। डॉ. कटोच आइसीएमआर के पूर्व महानिदेशक हैं।

इन सभी कार्यबल को आगामी आठ सप्ताह में अपनी अंतिम रिपोर्ट डॉ. वीके पॉल की समिति को सौंपनी है। इससे पूर्व सितंबर में नीति आयोग में इस आशय का विस्तृत प्रेजेंटेशन दिया जा चुका है। इस बैठक में एलोपैथी एवं आयुष के भारतीय परिवेश में विलय पर सैद्धांतिक सहमति कायम हुई थी। समावेशी, सस्ती, साक्ष्य आधारित और नागरिक लक्षित एकीकृत स्वास्थ्य प्रणाली पर भारत को आगे ले जाने की दिशा में सरकार का संकल्प जमीन पर कितना साकार होता है, यह अभी देखा जाना शेष है, क्योंकि भारत में व्यवस्थागत परिवर्तन इतना आसान भी नहीं है।

[लोक नीति मामलों के जानकार]