[ डॉ. भरत झुनझुनवाला ]: पुलवामा आतंकी हमले के जवाब में सैन्य कार्रवाई के हमारे विकल्प सीमित दिखते हैं, क्योंकि पाकिस्तान के पास भी परमाणु अस्त्र हैं। कोई भी सैन्य कार्रवाई परमाणु युद्ध में बदल सकती है जो दोनों देशों पर बहुत भारी पड़ेगी। पुलवामा के बाद भी पाकिस्तान द्वारा भारतीय सरहद के भीतर गोलाबारी जारी है। लगता है कि पाकिस्तान भारत की विवशता को समझ रहा है कि हम सैन्य कार्रवाई नहीं कर सकेंगे और हमारी इस मजबूरी का लाभ उठा रहा है। इस परिस्थिति से निपटने के लिए भारत सरकार ने पाकिस्तान की आर्थिक मोर्चेबंदी की रणनीति अपनाई है।

पाकिस्तान से आयात होने वाली सभी वस्तुओं पर 200 प्रतिशत का आयात कर लगा दिया है जिसके कारण पाकिस्तान से कोई भी आयात संभव नहीं होगा, मगर पाकिस्तान द्वारा भारत को किए जाने वाले निर्यात उसके कुल निर्यातों का मात्र 1.4 प्रतिशत हैं। पाकिस्तान भारत को मुख्य रूप से सीमेंट फलों का निर्यात करता है। ऐसा नहीं कि ये वस्तुएं केवल भारत को ही निर्यात होती हैं। ऐसे में पाकिस्तान इन्हें दूसरे देशों को निर्यात करने का रास्ता निकाल लेगा। हालांकि फलों को फौरी तौर पर दूसरे देशों में निर्यात करने में जरूर कुछ मुश्किलें आ सकती हैं। इससे किसानों को घरेलू मंडी में माल बेचना होगा, घरेलू बाजार में फल के दाम कम होंगे और घरेलू खपत बढ़ेगी। जैसे किसान का दूध बिकना कम हो जाए तो घर के बच्चों को दूध अधिक मिलता है। इसका पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा, परंतु संकट जैसी स्थिति पैदा नहीं होगी। इसलिए आयात कर की इस वृद्धि का पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पर कोई विशेष प्रभाव पड़ने की संभावना कम ही है।

हालांकि पाकिस्तान की वित्तीय हालत पहले से ही खराब है, लेकिन इस कमजोर वित्तीय स्थिति से भी पाकिस्तान टूटेगा नहीं। चीन और सऊदी अरब ने पाकिस्तान को धन उपलब्ध करा दिया है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष भी पाकिस्तान को धन उपलब्ध कराने को तैयार है। सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस हाल में भारत आए थे। उन्होंने आतंकवाद के विरोध में कुछ बातें जरूर कहीं, लेकिन पाकिस्तान का नाम नहीं लिया जो कि उनके पाकिस्तान के समर्थन को ही दर्शाता है। ऐसे हालात में हमें सिंधु जल समझौते को निरस्त करने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।

पाकिस्तान के पास कुल 1450 लाख एकड़ फुट नदी का पानी उपलब्ध है। 1 लाख एकड़ फुट का अर्थ हुआ एक एकड़ भूमि पर एक फुट जितना पानी उपलब्ध हो। इस 1450 लाख एकड़ फुट जल में 1160 लाख एकड़ फुट पानी सिंधु, झेलम और चिनाब नदियों से पाकिस्तान को मिलता है जो कि भारत से होकर ही बहती हैं। वर्षा के पानी को छोड़ दें तो नदियों से मिलने वाले पानी का अस्सी प्रतिशत पानी पाकिस्तान को भारत से मिलता है। यही पानी सर्दी और गर्मी में पाकिस्तान की कृषि, उद्योगों और शहरों के काम आता है। यदि हम इस पानी को रोक लें तो पाकिस्तान को जल्द ही घुटने टेकने पड़ सकते हैं, लेकिन ऐसा करने में भारत और पाकिस्तान के बीच हुआ सिंधु जल समझौता आड़े आता है। इसका भी रास्ता उपलब्ध है।

सिंधु जल समझौते की प्रस्तावना में लिखा गया है कि भारत और पाकिस्तान ने इस समझौते पर सद्भाव और मित्रता के आधार पर दस्तखत किए हैं। कानून के जानकारों के अनुसार किसी भी कानून को समझने के लिए उसकी प्रस्तावना को देखना पड़ता है कि उसका उदेश्य क्या था? उद्देश्य के अनुसार ही कानून का विवेचन होता है। सिंधु जल समझौते को हमने सद्भाव एवं मित्रता बनाए रखने के लिए किया था। जब यह सद्भाव और मित्रता ही नहीं रही तो सिंधु जल समझौते का आधार ही समाप्त हो जाता है। हमें इसे निरस्त करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए।

यह सही है कि समझौते में लिखा है कि इसमें कोई भी परिवर्तन आपसी समझौते से ही किया जाएगा, लेकिन जब समझौता ही रद हो जाए तो उसमें किए गए प्रावधानों का कोई मतलब नहीं रह जाता। जैसे भारत के स्वतंत्र होने पर ब्रिटिश राज्य द्वारा बनाए गए नियमों एवं कानूनों का कोई औचित्य नहीं रह गया। मान लीजिए आपने किरायेदार से समझौता किया कि वह दीवार पर कुछ नहीं लिखेगा। इस समझौते का कोई वजूद नहीं रह जाता यदि किरायेदार ने आपका घर ही खाली कर दिया।

सिंधु जल समझौते में यह व्यवस्था भी है कि मतभेद होने पर विश्व बैंक की मध्यस्थता की जाएगी। ध्यान दें कि मध्यस्थता का अर्थ साथ में वार्ता करना मात्र होता है। विश्व बैंक न तो निर्णय दे सकता है, न ही कोई पक्ष विश्व बैंक की सलाह मानने को बाध्य है। फिर भी इस प्रावधान के तहत हम विश्व बैंक को नोटिस दे सकते हैं कि एक सप्ताह के भीतर यदि पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद समाप्त नहीं हुआ तो हम इस समझौते को रद कर देंगे। इसके लिए हमें अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से भी सीख लेनी चाहिए जिन्होंने मेक्सिको और कनाडा से हुए मुक्त व्यापार समझौतों को एक चुटकी में निरस्त कर दिया। इसी प्रकार हमें भी सिंधु जल समझौते को निरस्त करने पर विचार करना चाहिए।

एक और विषय यह है कि चंद जिहादी लोगों ने पूरी दुनिया को कैसे भयाक्रांत कर रखा है? फिर चाहे वह अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड टावर पर हुआ हवाई हमला या हाल का पुलवामा आतंकी हमला। उनकी ताकत दर्शाती है कि इस्लाम में जिहाद के आंतरिक और वाह्य पक्ष दोनों एक साथ चलते हैं। न्यू वर्ल्ड इनसाइक्लोपीडिया के अनुसार जिहाद के अंतर्गत मुसलमानों की जिम्मेदारी बनती है कि वे आध्यात्मिक विकास के लिए आंतरिक युद्ध और इस्लाम के प्रसार के लिए बाहरी युद्ध दोनों करें। ऐसा करने से जिहादी युवक के मानस में आंतरिक ऊर्जा और इस्लाम के विकास के लिए बाहरी कार्य का जुड़ाव हो जाता है। जब जिहादी लड़ाका आत्मघाती हमला करता है तो उसे विश्वास रहता है कि वह जन्नत में जाएगा और इस्लाम का विस्तार भी करेगा। इसलिए उन्हें इस प्रकार की घटनाओं को अंजाम देने में तनिक भी संकोच नहीं होता है।

इसके विपरीत हिंदू और बौद्ध धर्म में आंतरिक और बाहरी युद्धों को अलग-अलग किया गया है। हिंदू धर्म में निवृत्ति और प्रवृत्ति दो भिन्न मार्ग बताए गए हैं। बौद्ध धर्म में हीनयान और महायान दो अलग-अलग मार्ग बताए गए हैं। इस अलगाव का अर्थ यह हुआ कि जब हिंदू युवक बाहरी कार्य करता है तो उसे मानस की आंतरिक ऊर्जा से जुड़ना अनिवार्य नहीं होता। यदि हिंदू युवक पाकिस्तान में प्रवेश कर आतंकवादी बने तो उसे कोई आंतरिक लाभ नहीं मिलेगा। हमारे युवक अपेक्षा करते हैं कि आंतरिक ऊर्जा से लैस पाकिस्तानी युवकों का सामना भारतीय सेना करेगी, न कि वे स्वयं। हमें इस समस्या का हल निकालना होगा। हमें अपने वैचारिक दृष्टिकोण में बदलाव लाने का प्रयास करना चाहिए और निवृत्ति और प्रवृत्ति को जोड़कर एक साथ करना चाहिए जिससे हम आतंकवाद का सामना कर सकें। हिंदू और बौद्ध धर्मों के सामने असल चुनौती इस्लाम की नहीं, बल्कि इस आंतरिक सुधार की है।

( लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बेंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर हैं )