[ जगमोहन सिंह राजपूत ]: देश ने दो अक्टूबर, 2019 को महात्मा गांधी को उनकी 150वीं जयंती पर याद किया। अनेक कार्यक्रमों में विद्वान वक्ताओं विशेषकर नेताओं ने गांधी जी के सिद्धांतों और मूल्यों की समसामयिक आवश्यकता को निरुपित किया और जनता को उनके बताए मार्ग पर चलने की सलाह दी। महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों के बाद जनता को यह देखने का एक और अवसर मिला कि देश के राजनेता गांधी जी के सिद्धांतों का कितना पालन करते हैं! हरियाणा में दो धुर-विरोधी दल साथ आ गए, मगर मंत्रिपरिषद बनाने में सहमति 17 दिन बाद ही बनी। सामान्य जन यही मानते हैं कि गठबंधन सरकारों में यह देरी मलाईदार महकमों को लेकर ही होती है। ऐसे वक्त पर गांधी जी की चर्चा नहीं होती।

महाराष्ट्र में प्रजातंत्र के मूल्य और सिद्धांत पूरी तरह बिखर गए

हरियाणा के बाद राजनीति में स्थायी भाव बन चुके पदलोलुपता, स्वार्थपरकता और पुत्रमोह जैसे तत्व बेहिचक और बेशर्मी से महाराष्ट्र में फिर एक बार सामने आए हैं। इसके झंझावात में प्रजातंत्र के मूल्य और सिद्धांत पूरी तरह बिखर गए हैैं। स्वच्छता अभियान में भारत जितना आगे बढ़ा, प्रजातांत्रिक मूल्यों के अनुपालन में वह उससे कई गुना अधिक नीचे आ गया। इन दो राज्यों में जो कुछ वहां के नेताओं ने देश और समाज के समक्ष रखा है, वह हर उस व्यक्ति को शर्मसार करता है जो प्रजातांत्रिक मूल्यों में आस्था रखता है।

निर्वाचित प्रतिनिधि होटल में बंधक की स्थिति में हैं, लेकिन कोई विरोध नहीं करता

मुझे आश्चर्य होता है जब कोई दल अपने सौ-पचास निर्वाचित प्रतिनिधियों को किसी होटल में पहुंचाता है। वे सब बंधक की स्थिति स्वीकार कर लेते हैं। कोई विरोध नहीं करता है। वे अनुशासन का नाम लेते हैं, मगर आत्मसम्मान को तिलांजलि देने में हिचकते नहीं। पूरे देश में यह भी चर्चा का विषय बन चुका है कि परिवारवाद और पुत्र मोह के कारण कई महत्वपूर्ण राजनीतिक दल अपना अस्तित्व खोने के कगार पर पहुंच चुके हैैं, मगर न वे स्वयं सीख रहे हैं न ही अन्य उनसे सबक ले रहे हैं।

जिन पर गांधी जी की विरासत संभालने की जिम्मेदारी थी, वे स्वयं इस खेल में भागीदार बन गए

सभी को सरकार में शामिल होना है। इसी कारण केंद्र में भी जोड़तोड़ की सरकारें बनीं और बिखरीं। राज्यों में आयाराम-गयाराम से प्रारंभ हुआ सिलसिला खूब फला-फूला। जिन पर मूल्यों को स्थापित करने और गांधी जी की विरासत संभालने की जिम्मेदारी थी, वे स्वयं इस खेल में भागीदार बन गए। जनता देखती रह गई। हालांकि पिछले चार-पांच दशकों में लोगों की राजनीति की समझ बढ़ी है। अपने अधिकारों का न मिलना और हर स्तर के चयनित प्रतिनिधि के विशेष अधिकारों और सुविधाओं का लगातार बढ़ते जाना उनको खटकने लगा है।

चयनित युवा प्रतिनिधियों के समक्ष बड़ी चुनौती

चयनित युवा प्रतिनिधियों के समक्ष बड़ी चुनौती हैै। क्या वे अपने वरिष्ठों का अस्वीकार्य आचरण भी चुपचाप सहन करेंगे या अपने मतदाताओं की अपेक्षाओं को साकार करने में स्वार्थ रहित सेवा भाव का उदाहरण प्रस्तुत करेंगे? उनके सामने दो विकल्प हैं। वे भी गांधी जी को भुला दें। केवल दो अक्टूबर को प्रतिवर्ष उन्हें श्रद्धांजलि देने की रस्म पूरी करते रहें। या उनके साहित्य का श्रद्धापूर्वक अध्ययन करें। उसे आज के बदले संदर्भ में समझें और अपनी क्षमता के अनुरूप उसे आचार-विचार में शामिल करें।

सार्वजनिक जीवन खुली किताब की तरह होनी चाहिए

आज चरखे से सूत कातने का एक विकल्प होगा कंप्यूटर का वह कौशल सीखना जो अंतिम व्यक्ति के जीवन को सार्थक और गरिमामय बनाने में उपयोग में आ सके। अन्य भी हो सकते हैं। देश में आज भी विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे अनेक लोग हैं जिनका सार्वजनिक जीवन खुली किताब है। राजनीति में यह संख्या बढ़नी चाहिए और उभरनी चाहिए।

सत्य की खोज में मैैंने बहुत से विचारों को छोड़ा है और नई बातें सीखी

गांधी जी के स्वराज्य की संकल्पना में केवल अंग्रेजों का भारत से आधिपत्य समाप्त करना मात्र ही लक्ष्य नहीं था। उन्होंने मानव जीवन के हर पहलू पर गहन मनन, चिंतन और विमर्श किया और बिना किसी हिचक के लिखा कि सत्य की खोज में मैैंने बहुत से विचारों को छोड़ा है और नई बातें सीखी भी हैं। उनकी तरह हर व्यक्ति को जीवन के प्रत्येक मोड़ पर यही लगना चाहिए कि उसका अपना विकास रुका नहीं है, मगर अनुभव के साथ गति पकड़ रहा है।

‘सत्ता से सेवा’ का स्थान ‘सत्ता से स्वार्थ’ में बदल गया

जनता में यह धारणा ठोस आधारों पर निर्मित हुई है कि हमारा राजनीतिक तंत्र चुनावों की राजनीति में इतना जकड़ गया है कि उसमें ‘सत्ता से सेवा’ का स्थान ‘सत्ता से स्वार्थ’ में परिवर्तित हो गया है। अपेक्षा तो यह थी कि शासन लोक सम्मति से चलेगा। प्रत्येक जनप्रतिनिधि प्रतिपल यह जानने के लिए प्रयत्नशील रहेगा कि उसके क्षेत्र के मतदाता क्या चाहते हैं। वह अपना अधिकतम समय अपने क्षेत्र में ही बिताएगा। उसके आचरण में अपने ही लोगों से निकटता लगातार बढ़ेगी न कि उसकी अनुपलब्धता बढ़ती जाएगी! वे यह समझेंगे कि स्वराज्य एक पवित्र शब्द है, वह एक वैदिक शब्द है, जिसका अर्थ आत्म-अनुशासन और आत्मसंयम है।

गांधी जी ने कहा था कि स्वराज्य हमें और हमारी सभ्यता को ‘अधिक शुद्ध और मजबूत’ बनाएगा

अंग्रेजी शब्द ‘इंडिपेंडेंस’ अक्सर सभी प्रकार की मर्यादाओं से मुक्त निरंकुश आजादी या स्वच्छंदता का अर्थ देता है, वह अर्थ स्वराज्य में नहीं है। भारत में स्वराज्य आने के बहुत पहले ही गांधी जी ने उसके मूल आधार और शक्ति को समझ लिया था। उन्होंने कहा था कि मेरा स्वराज्य तो हमारी सभ्यता की आत्मा को अक्षुण्ण रखना है। गांधी जी ने यह भी स्पष्ट कहा था कि स्वराज्य की रक्षा केवल वहीं हो सकती है जहां देशवासियों की ज्यादा बड़ी संख्या ऐसे देशभक्तों की हो जिनके लिए अपने देश की भलाई का ज्यादा महत्व हो। उनकी अपेक्षा थी कि स्वराज्य हमें और हमारी सभ्यता को ‘अधिक शुद्ध और मजबूत’ बनाएगा। भारत की सभ्यता के मूल तत्व नीति पालन यानी सदाचरण को वे सर्वोच्च स्थान देते थे।

स्वराज्य के अनिवार्य तत्वों को ठुकराकर राजनीति दूषित हो रही

स्वराज्य में सर्वहारा, संबंध, समता, समन्वय, संवाद, सम्मान और सेवा अनिवार्य तत्व हैं। इन्हें ठुकराकर की जाने वाली राजनीति उसी प्रकार दूषित हो रही है जैसे स्वतंत्रता के बाद नदियां और वायु प्रदूषित होती गईं। यदि समय रहते आवश्यक उपाय किए जाते तो आज हवा और पानी जहरीले नहीं हो गए होते। नई पीढ़ी के भविष्य में जहर नहीं घुल रहा होता।

राजनीति में भी प्रदूषण लगातार बढ़ता जा रहा

सभी देख रहे हैं कि राजनीति में भी प्रदूषण लगातार बढ़ता जा रहा है, मगर जितना ध्यान उसे रोकने के लिए दिया जाना चाहिए, वह नहीं हो रहा है। क्या अभी भी उचित दिशा परिवर्तन संभव है? उत्तर है सच्चा स्वराज्य थोड़े लोगों द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेने से नहीं, बल्कि जब उस सत्ता का दुरुपयोग होता हो तो सब लोगों द्वारा उसका प्रतिकार करने की क्षमता प्राप्त करके हासिल किया जाता है। देश को इस पर विचार करना ही होगा।

( लेखक शिक्षा और सामाजिक समन्वय के क्षेत्र में कार्यरत हैं )