क्षमा शर्मा। गीतांजलि श्री को उनके उपन्यास 'रेत समाधि' के लिए बुकर पुरस्कार मिलना एक अभूतपूर्व घटना है। किसी हिंदी कृति को यह पुरस्कार पहली बार मिला है, वह भी किसी लेखिका को। इसके लिए उन्हें बधाई दी जानी चाहिए। इस उपन्यास का अंग्रेजी रूपांतरण डेजी राकवेल नामक मशहूर अमेरिकी अनुवादक ने किया है। यह 'टूम आफ सैंड' के नाम से प्रकाशित हुआ है। कहा जाता है कि बुकर के लिए दो शर्तें अनिवार्य हैं। एक, पुस्तक अंग्रेजी में हो और दूसरे, ब्रिटेन या आयरलैंड से छपी हो। जैसा कि हमेशा होता है, बुकर पुरस्कार की घोषणा होने के साथ ही कुछ लोग इसे देने वालों और उनके अतीत पर भी लिखने लगे हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे मैग्सेसे पुरस्कार की घोषणा होनेे पर रमन मैग्सेसे पर लिखा जाता है।

कुछ लोग यह कह रहे हैं कि यह पुरस्कार हिंदी नहीं, बल्कि अंग्रेजी कृति को मिला है। अगर अंग्रेजी में अनुवाद न हुआ होता तो यह नहीं मिलता। ऐसे लोगों से यह पूछा जाना चाहिए कि अगर लेखिका ने इसे न लिखा होता तो क्या इसका अनुवाद हुआ होता? गीतांजलि श्री को बधाई देने वाले कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो कह रहे हैं कि एक लेखिका से दूसरी लेखिकाएं और लेखक ईष्र्या कर रहे हैं। इन दिनों यह प्रवृत्ति खासी बढ़ चली है। अगर कोई किसी की तारीफ कर रहा है तो वह दूसरे पर अंगुली उठाने लगता है कि मैंने तो की, तुमने क्यों नहीं की, जरूर कोई बात है। जो किसी की निंदा करता है, वह भी कहता है कि मैं तो साफ कहने वाला हूं। कोई लाग-लपेट नहीं रखता। गीतांजलि श्री के पुरस्कृत होने के मामले में भी यह हो रहा है। इस सबके बाद भी अच्छी बात यह है कि बुकर के बहाने अनुवाद कर्म पर बहस शुरू हो गई है।

यह बात बहुतों ने लिखी भी कि अक्सर अनूदित कृतियों में लेखक को ही महत्व दिया जाता है, अनुवादक को नहीं। यही हाल चित्रकारों का भी है। अक्सर पुस्तक का कवर बनाने वालों या बच्चों की किताबों के चित्रकारों को सब भूले रहते हैं। अपने यहां हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में एक से एक महान कृतियां रची गई हैं, लेकिन उनका अनुवाद न होने के कारण उनकी पहुंच राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय बिरादरी तक नहीं हो पाती है। अंग्र्रेजी को तो छोडि़ए, अन्य भारतीय भाषाओं में जो कुछ लिखा जा रहा है, उसकी भी जानकारी कम ही हो पाती है। साहित्य अकादमी और नेशनल बुक ट्रस्ट जैसी संस्थाएं जरूर पुस्तकों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद करती हैं। यदि हिंदी की पुस्तकों का अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो और अन्य भाषाओं का हिंदी में, तो अपने यहां रचे जा रहे विपुल साहित्य की पहुंच हर क्षेत्र के पाठकों तक हो सकती है। एक बार महाश्वेता देवी और आशापूर्णा देवी ने कहा था कि जब उनकी कृतियों का हिंदी में अनुवाद हुआ, तभी उन्हें पूरे देश में पहचान मिली। हिंदी क्षेत्र में इन दोनों लेखिकाओं को खूब सराहा गया।

अक्सर सेमिनारों में हिंदी के तमाम लेखक यह कहते हुए सुने जाते हैं कि अन्य भारतीय भाषाओं का ज्यादा से ज्यादा अनुवाद हिंदी में होना चाहिए, लेकिन अफसोस की बात है कि हिंदी के बारे में अन्य भारतीय भाषाओं के बहुत से लेखकों में इस तरह की राय नहीं पाई जाती। न जाने क्यों वे हिंदी को अपने से इतर मानते हैं। क्या उन्हें यह महसूस होता है कि हिंदी उनकी भाषा को खत्म कर देगी? अन्य क्षेत्रों में भी हिंदी को लेकर ऐसे ही स्वर सुनाई देते हैं। जबसे दक्षिण भारतीय फिल्मों को हिंदी में डब करके दिखाया जाने लगा है, तबसे वे सफलता के नए मानक गढ़ रही हैं, लेकिन आश्चर्य है कि इसके बाद भी दक्षिण के कुछ नेता-अभिनेता हिंदी को भला-बुरा कहने से नहीं चूकते। डब करने का अर्थ भी तो अनुवाद ही है, लेकिन निहित राजनीतिक स्वार्थों वाली बोली जब बुद्धिजीवी तबका भी बोलता है तो बहुत अफसोस होता है। राजनेता तो भाषा विवाद भड़काकर ध्रुवीकरण को हवा देते हैं, लेकिन आखिर बुद्धिजीवियों को इससे क्या हासिल होता है?

गीतांजलि श्री को बुकर पुरस्कार की घोषणा पर कुछ लोग यह कहते मिले कि यह हिंदी का साम्राज्यवाद है। अब हिंदी हमें आगे नहीं बढऩे देगी। आखिर गीतांजलि श्री की सफलता पर इस तरह का विलाप क्यों होना चाहिए? वह हिंदी की लेखिका हैं तो क्या उन्हें कोई पुरस्कार नहीं मिलना चाहिए? क्या हिंदी बोलने-लिखने वाले किसी पुरस्कार के योग्य नहीं? भाषाएं एक-दूसरे के नजदीक आती हैं तो एक-दूसरे को जानने-समझने का बेहतरीन माध्यम साबित होती हैं। हिंदी वाले इसे न केवल समझते हैं, बल्कि अक्सर इस बात को जोर-शोर से कहते भी हैं। अगर हिंदी वाले ऐसा कह सकते हैं तो अन्य भारतीय भाषा वाले ऐसा क्यों नहीं कह सकते? चूंकि गीतांजलि श्री भारत की हिंदी की लेखिका हैं, इसलिए आप कोई भी भाषा बोलते हों, वह आपकी भी हैं। उन्हें बुकर पुरस्कार मिलने के बाद इस पर गंभीरता से विचार होना चाहिए कि किस तरह अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य तक सभी पाठकों की पहुंच हो। निजी प्रकाशकों की ओर से इस दिशा में पहल होनी चाहिए। लेखन की तरह अनुवाद के लिए भी पुरस्कार हों या लेखक के साथ अनुवादक को भी पुरस्कार राशि में हिस्सा मिले। जैसा कि इस बार बुकर के मामले में हुआ। पचास हजार पाउंड की राशि लेखिका और अनुवादक में बराबर-बराबर बांटी जाएगी। अगर यह काम हमारे यहां भी होगा तो अच्छी कृतियों का अनुवाद करने के लिए लोग आगे आएंगे। इसके साथ ही अनुवाद की महत्ता भी सिद्ध होगी और भारतीय भाषाओं को जोडऩे की पहल भी आगे बढ़ेगी।

( लेखिका साहित्यकार हैं)