[ भरत झुनझुनवाला ]: मैकिंजी ग्लोबल की एक रपट के अनुसार विश्व में माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा प्राप्त 8.5 करोड़ कुशल कर्मियों की कमी है। इसके विपरीत प्राथमिक शिक्षा प्राप्त सामान्य कर्मियों की जरूरत 9.5 करोड़ से अधिक है। हम विश्व को ऐसे कुशल कर्मियों को उपलब्ध कराने का गढ़ बन सकते हैं। हालांकि यह तभी संभव है जब हम प्राथमिक शिक्षा प्राप्त अपने कर्मियों का कौशल बढ़ा सकें, लेकिन हालात इसके विपरीत है। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ वेल्डिंग के अध्यक्ष आर श्रीनिवासन के अनुसार भारत में 10 से 20 हजार वेल्डर चीन, रूस और पूर्वी यूरोप के देशों से लाए गए हैं। यानी विश्व को कुशल कर्मी उपलब्ध कराना तो दूर, हम देसी उद्योगों को भी कुशलकर्मी उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं।

विश्व बैंक की 2008 की रपट के परिप्रेक्ष्य में मोदी सरकार ने पेश की नई शिक्षा नीति 

इस विकट परिस्थिति का विवरण विश्व बैंक की 2008 की एक रपट में दिया गया है। इस रपट में कर्नाटक, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के प्राथमिक शिक्षा तंत्र का संज्ञान लिया गया था। बताया गया कि विद्यालयों में अध्यापकों की उपस्थिति कम ही रहती है और यदि होती भी है तो उससे शिक्षा में सुधार नहीं होता। अध्यापक आते हैं, लेकिन ढंग से पढ़ाते नहीं। इस रपट के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत का शिक्षा तंत्र नाकाम है। इस परिप्रेक्ष्य में सरकार ने नई शिक्षा नीति पेश की है। इसके अंतर्गत ‘इक्यूप’ यानी ‘शिक्षा गुणवत्ता एवं समग्रता विकास’ कार्यक्रम का खाका तैयार किया गया है। उद्देश्य है कि नए अवसर भुनाने के लिए ‘एक्यूप’ से छात्रों को सक्षम बनाया जाए, लेकिन इस कार्यक्रम के 10 बिंदुओं में से छह केवल कोरे नारे हैं।

वैश्विक स्तर की शिक्षा देना, शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार, शोध को प्रोत्साहन, रोजगारपरक शिक्षा

पहला बिंदु वैश्विक स्तर की शिक्षा देने से जुड़ा है। दूसरा शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार से। तीसरा शिक्षण संस्थाओं की रैंकिंग ढंग से करने को लेकर है। चौथा शोध को प्रोत्साहन से संबंधित। पांचवां रोजगारपरक शिक्षा देने पर। छठा भारत को वैश्विक शिक्षा का केंद्र बनाया जाए। शिक्षा मंत्रालय के लिए ऐसे नारे देना तो आसान है, लेकिन मौजूदा व्यवस्था में सिरे चढ़ाना उतना ही चुनौतीपूर्ण। शेर्ष बिंदुओं में सातवां शिक्षा की पहुंच बढ़ाने से जुड़ा है। आठवां उच्च शिक्षा में निवेश बढ़ाने को लेकर है। इन दोनों बिंदुओं के तहत अभी तक कुशल बनाने में नाकाम रहे हमारे मौजूदा ढांचे को ही अधिक संसाधन उपलब्ध कराए जाएंगे। नवां बिंदु तकनीकी सुधार का है।

शिक्षकों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के बावजूद शिक्षा में कोई सुधार नहीं हुआ

ज्ञात हो कि बायोमीट्रिक व्यवस्था लागू करने एवं शिक्षकों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के बावजूद शिक्षा में कोई सुधार नहीं हुआ। दरअसल घोड़े को आप पानी के स्नोत तक ला सकते हैं, लेकिन उसे पानी नहीं पिला सकते हैं। इसी प्रकार आप शिक्षकों को स्कूल में आने के लिए बाध्य कर सकते हैं, लेकिन उन्हें पढ़ाने के लिए मजबूर नहीं कर सकते हैं। इसलिए तकनीक की बात सही दिशा में होते हुए भी निरर्थक है, क्योंकि तमाम शिक्षकों की मूल रुचि पढ़ाने की है ही नहीं। उनमें स्वयं कौशल नहीं है इसलिए वे केवल किताबी पढ़ाई करते हैं। इस समस्या का समाधान तकनीक से संभव नहीं। इक्यूप कार्यक्रम में दसवां बिंदु प्रबंधन में सुधार का दिया गया है, लेकिन यह सुधार केवल उच्च शिक्षा तक सीमित कर दिया गया है। हालांकि यह सही दिशा में है, पर इससे प्राथमिक शिक्षा द्वारा अकुशल छात्रों की समस्या का हल नहीं निकलता।

कौशल विकास मंत्रालय ने अमेजन, गूगल, अडानी, उबर जैसी बड़ी कंपनियों के साथ अनुबंध किए

वैसे तो सरकार ने कौशल विकास मंत्रालय की स्थापना की है, लेकिन चालू वित्त वर्ष में इसका बजट मात्र 3,000 करोड़ रुपये है। वहीं शिक्षा मंत्रालय का बजट 99 हजार करोड़ रुपये है। कौशल विकास मंत्रालय का यह सीमित बजट उसी तरह है जैसे जंगल में लगी आग बुझाने को दो बाल्टी पानी उपलब्ध करा दिया जाए। तिस पर इस छोटी रकम का उपयोग भी सफल होता नहीं दिख रहा है। कौशल विकास मंत्रालय ने अमेजन, गूगल, अडानी, उबर, मारुति और माइक्रोसॉफ्ट जैसी बड़ी कंपनियों के साथ अनुबंध किए हैं। जहां तक आम आदमी जैसे वेल्डर के कौशल विकास का प्रश्न है तो उसमें न तो शिक्षा मंत्रालय की रुचि है और न ही कौशल विकास मंत्रालय की।

यदि अध्यापक पढ़ाने में रुचि रखते हैं तो छात्र पढ़ते हैं

सरकारी विद्यालयों की इस दुरूह स्थिति में सुधार करने के लिए कई देशों में छात्रों को सीधे वाउचर देने के प्रयोग किए गए हैं। हांगकांग में छात्रों को छूट है कि वे अपने मनपसंद विद्यालयों में दाखिला ले सकते हैं और फीस के लिए निर्धारित रकम सरकार द्वारा सीधे विद्यालय को दे दी जाती है। ऐसी व्यवस्था में पाया गया कि ड्रॉपआउट की दर कम हो गई और गणित की शिक्षा में सुधार आया। फिलीपींस में भी यह सफल प्रयोग जारी है। हमारे देश में भी आंध्र प्रदेश और दिल्ली के शाहदरा में ऐसे कार्यक्रम लागू किए गए हैं। इनसे गणित और अंग्रेजी की शिक्षा में सुधार हुआ है। स्पष्ट है कि यदि अध्यापक पढ़ाने में रुचि रखते हैं तो छात्र पढ़ते हैं।

निजी संस्थानों में कम वेतन पर भी शिक्षक उत्तम शिक्षा देते हैं, जबकि सरकारी विद्यालयों में ऐसा नहीं है

आज निजी संस्थानों में शिक्षक चार अंकों के वेतन में भी उत्तम शिक्षा दे रहे हैं जबकि सरकारी विद्यालयों में 60 हजार प्रति माह तक वेतन पाने वाले शिक्षकों की क्षमताओं पर सवाल उठ रहे हैं। इसका एक कारण यह है कि सरकारी विद्यालयों में फीस कम होती है या वह माफ भी हो जाती है। हालांकि इसका यह अर्थ नहीं कि इस आधार पर शिक्षा की गुणवत्ता या परिचालन में कोई समझौता किया जाए।

भारत को अपनी शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव करना होगा

भारत को विश्व में कौशल आपूर्ति का केंद्र बनाने के लिए अपनी शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव करना होगा। अध्यापक को वेल्डिंग करना आएगा तभी वह छात्र को सिखा पाएगा। ऐसे में सरकार को चाहिए कि वह छात्रों को सबल बनाए जिसमें वे स्वयं चयन करें कि वे कहां पढ़ेंगे। इसके लिए सरकार शिक्षकों के वेतन में कटौती कर उससे बचने वाली रकम छात्रों द्वारा चयनित विद्यालयों को सीधे हस्तांतरित करे। तब छात्रों को विद्यालय का चयन करने की स्वतंत्रता होगी और शिक्षकों में भी प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। ऐसा न करने पर उन्हें अतिरिक्त वेतन नहीं मिल सकेगा। इससे छात्रों का कौशल भी बढ़ेगा।

भारत में छात्र प्रतिभावान हैं, उस प्रतिभा को निखारने में सरकारी शिक्षण तंत्र आड़े आ रहा

भारत में कौशल विकास करने की अपार क्षमता और संभावना है। हमारे छात्र प्रतिभावान हैं, उस प्रतिभा को निखारने में सरकारी शिक्षण तंत्र आड़े आ रहा है। शिक्षा तंत्र में व्यापक सुधारों के बिना इक्यूप जैसे कार्यक्रम लागू करके भी हम कुशल कर्मियों की आपूर्ति का वैश्विक केंद्र नहीं बन सकते। जब हमारे आईटीआई के तमाम शिक्षकों को ही स्वयं वेल्डिंग करना नहीं आता है तो वे छात्रों को क्या सिखाएंगे? इसी विसंगति का परिणाम है कि हम विश्व को वेल्डर उपलब्ध कराने के स्थान पर चीन से वेल्डर मंगा रहे हैं।

( लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं )