विजय क्रांति। भारत और चीन के बीच सीमा विवाद सुलझाने के लिए पिछले दस साल से चल रही वार्ता हास्यास्पद स्थिति में पहुंच गई है। ऐसा उदाहरण दुनिया में शायद ही कहीं देखने को मिले। रिश्ते सुलझने के बजाय वार्ताओं के दौर के साथ और ज्यादा ही उलझते गए। दोनों देशों के विदेश मंत्रालयों के बीच सीमा विवाद को सुलझाने के लिए स्थापित व्यवस्था (डब्ल्यूएमसीसी) के तहत पिछली बैठक भी बेनतीजा रही। जनवरी 2012 से शुरू हुए वार्ता के इस सिलसिले में यह 24वीं कड़ी थी। पिछले हर दौर की तरह इस बार भी वार्ता इसी सहमति के साथ समाप्त हुई कि इस वार्ता के सिलसिले को जारी रखा जाए। दोनों देशों के सैन्य कमांडरों के बीच भी 25 दौर की वार्ता हो चुकी है और वे भी बेनतीजा ही रहीं।

चीन की दलील है कि चूंकि सीमा विवाद बहुत पेचीदा है तो उसे किनारे रखकर दोनों देशों को आर्थिक, व्यापारिक और दूसरे क्षेत्रों में सहयोग करना चाहिए। वहीं भारत सरकार का कहना है कि भारत की जमीन पर कब्जा करके चीन ने खुद ही सीमा विवाद को पेचीदा बनाया है। एक ओर वह बातचीत का दिखावा कहता है तो दूसरी ओर कब्जाई भूमि की किलेबंदी करके आगे की भूमि पर दावा करता रहता है। लद्दाख, सिक्किम और अरुणाचल में चीनी सेना की नई आक्रामकता इसी रणनीति का हिस्सा है। यही कारण है कि भारत इस पर अड़ा है कि जब तक चीन मई 2020 की यथास्थिति पर नहीं लौटता तब तक उसके साथ किसी और विषय पर कोई बात नहीं होगी।

चीन के साथ दस साल के वार्ताक्रम में भारत को समझ आने लगा है कि इसकी आड़ में चीन उसे उलझाकर न केवल सीमाओं पर भारत के खिलाफ अपनी सैनिक किलेबंदी मजबूत करने में लगा रहा, बल्कि भारत के पड़ोस में सेंध लगाकर उसकी घेराबंदी में भी जुटा हुआ है। इसके सहारे चीन भारत को हाशिये पर धकेल देना चाहता है, ताकि वह उसके विश्व शक्ति बनने के अभियान में बाधा न उत्पन्न कर सके। इसी दौरान चीन ने पाकिस्तान, नेपाल, म्यांमार, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव और जिबूती जैसे कई देशों में ऐसी सामरिक-आर्थिक बिसात बिछाई है कि भारत के लिए उसकी काट बड़ी चुनौती बन गई है।

यदि भारत की उत्तरी सीमा की बात करें तो 1951 में तिब्बत पर कब्जे के बाद चीन वहां एक लाख किमी लंबी सड़कें, हवाई अड्डे और सैनिक ठिकाने बना चुका है। उसने तिब्बत की सीमा पर 600 से ज्यादा आधुनिक गांव बसाकर अपनी पैठ मजबूत की है। जबकि भारत की अग्रिम रक्षा पंक्ति माने जाने वाले अधिकांश सीमावर्ती गांव तो सड़क-रोजगार के अभाव में लगभग उजड़ चुके हैं। मई 2020 में गलवन और लद्दाख के कई क्षेत्रों पर चीनी हमले का उद्देश्य यही था कि भारत का सीमावर्ती इन्फ्रास्ट्रक्चर और मजबूत होने से पहले ही दौलतबेग ओल्डी और सियाचिन पर कब्जा कर लिया जाए।

हालांकि, दारबुक-श्योक-दौलतबेग ओल्डी सड़क बन जाने से गलवन में भारतीय सैनिकों को समय रहते नई कुमुक मिल गई और यह इलाका चीन के हाथ जाने से बच गया। उसी तनाव के दौरान भारतीय सैनिकों ने लद्दाख की कैलास हाइट्स पर रातों-रात नए मोर्चे लगाकर सैनिक समीकरणों को भारत के पक्ष में कर दिया। यही कारण है कि गलवन में अपनी योजना के विफल होने के बाद पिछले दो साल में चीन ने डब्ल्यूएमसीसी वार्ताओं के लिए अपनी उत्सुकता तो बढ़ाई है, लेकिन इसकी आड़ में वह उन कमजोरियों को दुरुस्त करने में जुटा है, जिनके चलते गलवन में उसका अभियान विफल हो गया था। अब उस इलाके में चीन ने आधुनिक उपकरणों से लैस नई चौकियां बनाकर, नए हवाई अड्डे बनाकर और मिसाइलें लगाकर इस कमजोरी की पूर्ति का प्रयास किया है। दुर्भाग्य से इन वार्ताओं के दौरान भारत ने चीन से कोई रियायत लिए बिना ही कैलास हाइट्स पर मिली बढ़त रूपी तुरुप के इक्के को गंवा दिया। चीन ने पैंगोंग झील के बीचोबीच दो नए पुल बनाकर स्थानीय रक्षा समीकरणों को फिर से पलट दिया है। अब भारतीय सेना के लिए झील की आठ में से शेष चार ‘¨फगर्स’ को बचाना भी एक चुनौती बन चुका है।

यह मात्र दुर्योग नहीं कि एक ओर शांति बहाली के नाम पर चीन ने भारत से वार्ता की पहल की तो दूसरी ओर उसे घेरने के लिए बेल्ट एंड रोड जैसा दांव चला। इसकी शुरुआत 2013 में पाकिस्तान के साथ सीपैक संधि के रूप में हुई। उसके अंतर्गत चीन गुलाम कश्मीर के रास्ते अरब सागर तक सड़क बनाने और अपने नौसैनिक एवं व्यापारिक इस्तेमाल के लिए ग्वादर बंदरगाह बना रहा है। इसी तरह चीन ने 2014 में श्रीलंका के हंबनटोटा में, 2016 में मालदीव के फेंधू-फिनोलू द्वीप में, 2016-17 में जिबूती में और उससे पहले बांग्लादेश के चटगांव और म्यांमार के कोको द्वीप में जो नौसैनिक सुविधाएं हासिल कीं, उनके बूते वह भारत की सामुद्रिक घेराबंदी करने की ओर बढ़ रहा है।

दुर्भाग्य से अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी स्थितियां अभी भारत के बहुत अनुकूल नहीं हैं। यूक्रेन पर रूस के हमले ने जहां अमेरिका एवं यूरोपीय देशों को उलझा दिया है, वहीं चीन की गोद में जा चुके रूस से भी अब भारत कोई बड़ी उम्मीद नहीं रख सकता। कहने को तो अमेरिकी पहल पर फिर से सक्रिय किए गए क्वाड से भारत को बहुत आशाएं हैं, लेकिन दक्षिण कोरिया, तिब्बत और वियतनाम से लेकर अफगानिस्तान और यूक्रेन जैसे दोस्तों को उनके नाजुक दौर में दगा देकर खिसक जाने वाले और उन्हें दुश्मन के रहम पर छोड़ जाने वाले अमेरिका का पिछला इतिहास यह भरोसा नहीं देता कि चीन के साथ युद्ध की हालत में वह सचमुच भारत के साथ खड़ा रहेगा। ऐसे में भारत को दो मोर्चो पर विशेष ध्यान देना होगा। एक तो यह कि चीन के साथ टकराव को डब्ल्यूएमसीसी जैसी वार्ता के माध्यम से टाले रखकर भारत अपने ही बूते पर अपनी रक्षा पंक्ति को चीन का जवाब देने योग्य बना ले। दूसरा कदम यह हो कि अमेरिका के भरोसे रहने के बजाय भारत को जापान, ताइवान, आस्ट्रेलिया, वियतनाम, फिलीपींस और दक्षिण पूर्व एशिया के उन सभी देशों के साथ एक ऐसा आर्थिक एवं सामरिक संगठन बनाना चाहिए, जो चीन की दादागीरी के सताए हुए हैं और उन्हें भी चीन से टकराव की स्थिति में भरोसेमंद दोस्तों की सख्त जरूरत है।

(लेखक सेंटर फार हिमालयन एशिया स्टडीज एंड एंगेजमेंट के चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)