धर्मकीर्ति जोशी। अस्थिरता से जूझ रही वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत इस समय उम्मीद की किरण बना हुआ है। भारत ही इकलौती ऐसी बड़ी अर्थव्यवस्था है, जो लंबे समय तक औसतन 6.8 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि दर्ज करने में सक्षम है। चालू वित्त वर्ष में भी अर्थव्यवस्था 7.6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज कर सकती है। हालांकि अगले वित्त वर्ष में वृद्धि की रफ्तार कुछ थम सकती है, लेकिन फिर भी वह विश्व में सबसे अधिक और मौजूदा परिस्थितियों में अपेक्षाकृत बेहतर रहेगी।

भारतीय अर्थव्यवस्था के आधारभूत स्तंभ इतने मजबूत हैं कि कुछ ही वर्षों में उसका आकार दोगुना हो सकता है। सार्वजनिक विमर्श में भारत को पांच ट्रिलियन (पांच लाख करोड़) डॉलर की आर्थिकी बनाने की चर्चा है, लेकिन जिस रफ्तार से भारत वृद्धि कर रहा है, उसे देखते हुए 2030 के आसपास तक देश सात ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बन सकता है। अभी अर्थव्यवस्था का आकार करीब 3.6 ट्रिलियन डॉलर है।

इस लिहाज से देखें तो करीब सात वर्षों के दौरान आर्थिकी का आकार बढ़कर दोगुना हो जाएगा। यदि आने वाले वर्षों में आर्थिक वृद्धि की दर कुछ कमजोर पड़े तो उसे लेकर चिंतित होने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि जब अर्थव्यवस्था का आकार बड़ा होता है तो वृद्धि की पूर्ववर्ती तेज दर को बरकरार रखना उतना आसान नहीं होता। विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं में यह रुझान स्पष्ट दिखता है। अगले सात वर्षों में आर्थिकी का आकार बढ़ेगा तो उसका असर स्वाभाविक रूप से प्रति व्यक्ति आय पर भी पड़ेगा। उम्मीद है कि 2030 के आसपास तक भारत 4,000 से 4,500 डॉलर प्रति व्यक्ति आय के साथ उच्च-मध्यम आमदनी वाले देशों की श्रेणी में जगह बनाने में सफल हो सकेगा। ये सभी संकेत भारत को जल्द ही दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का इशारा करते हैं।

भारत की सफलता गाथा में मुख्य रूप से तीन बिंदुओं की अहम भूमिका होगी। ये तीन बिंदु हैं पूंजी, श्रम और सक्षमता। इनकी गिनती तो अलग-अलग होती है, लेकिन असल में ये एक-दूसरे पर निर्भर होकर एक प्रकार से अन्योन्याश्रित ही हैं। पूंजी के स्तर पर देखें तो सरकार ने संकट के समय अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए अपने खजाने का मुंह खोला तो स्थितियां सुधरते ही राजकोषीय अनुशासन का भी रुख किया।

कोविड महामारी के दौरान सरकार ने लोगों को मदद पहुंचाई और आर्थिकी में मांग का स्तर उतना कमजोर नहीं पड़ने दिया। इसी दौरान सरकार बुनियादी ढांचे के विकास को भी प्राथमिकता देती रही। साथ ही साथ जनधन-आधार-मोबाइल यानी जैम की त्रिशक्ति से डिजिटल ढांचा भी निरंतर सशक्त होता रहा। जब भौतिक और डिजिटल ढांचा एक साथ उन्नत हो तो उसके अत्यंत सकारात्मक परिणाम देखने को मिलते हैं। भारत के मामले में यह स्पष्ट रूप से प्रत्यक्ष हो रहा है।

विधायी मोर्चे पर जीएसटी जैसे कर सुधार ने आर्थिक सुगमता एवं सक्षमता को बढ़ाया है। जीएसटी से जहां कई प्रकार के अवरोध दूर हुए और चुंगियां समाप्त हुईं, वहीं बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर से आवाजाही सुगम हुई। आवाजाही सुगम होने से ईंधन और समय की बचत होने लगी है। डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर से जहां भुगतान सुगम हुए और उनमें जोखिम घटे तो इनोवेशन की एक संस्कृति विकसित हुई। आज तमाम स्टार्टअप इसी मिलीजुली समन्वित आर्थिक कार्यसंस्कृति से फल-फूलकर यूनिकार्न के मुकाम तक पहुंचने में भी सफल हुए हैं।

भारतीय यूपीआइ को कई देशों में मान्यता मिली है और तमाम देश उसे अपनाने में दिलचस्पी दिखा रहे हैं। यह सही है कि निजी निवेश अभी इस क्षेत्र की क्षमताओं से कम है, लेकिन धीरे-धीरे उसमें बढ़ोतरी की उम्मीद जग रही है। सरकार अपने स्तर पर इसके लिए प्रोत्साहन देकर प्रयास कर रही है। इस दिशा में उत्पादन आधारित प्रोत्साहन यानी पीएलआइ योजना खासी उपयोगी सिद्ध हुई है। इसके माध्यम से अभी तक मोबाइल हैंडसेट निर्माण और फार्मा जैसे क्षेत्रों में उल्लेखनीय सफलता मिली है। अगले चरण में इलेक्ट्रिक व्हीकल यानी ईवी और स्टील जैसे क्षेत्रों में कामयाबी मिलने की उम्मीद है।

श्रम एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर भारतीय नीति-नियंताओं को गहन मंथन करने की आवश्यकता है। भारत एक श्रम बहुल अर्थव्यवस्था है, लेकिन इस श्रम को भारत की पूंजी बनाने के लिए व्यापक स्तर पर प्रयास किए जाने शेष हैं। देश में करीब 97 करोड़ लोग कामकाजी आबादी का हिस्सा हैं, लेकिन इनमें एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जिनके पास किसी रोजगार के लिए आवश्यक कौशल का अभाव है।

नि:संदेह सरकार और निजी क्षेत्र इस दिशा में प्रयास तो कर रहे हैं, लेकिन परिणाम अभी भी अपेक्षा के अनुरूप नहीं। इतनी बड़ी कामकाजी आबादी का लाभ उठाने के लिए उनकी शिक्षा एवं कौशल विकास के स्तर पर समुचित प्रयास करने होंगे। स्मरण रहे कि कोई भी अर्थव्यवस्था पूंजी और श्रम के बेहतर संयोजन के साथ ही आवश्यक सक्षमता के स्तर को प्राप्त कर सकती है। चूंकि दूरगामी एवं व्यापक श्रम सुधार अभी आकार लेते नहीं दिख रहे हैं तो नीति-नियंताओं को फिलहाल उपलब्ध गुंजाइश को देखते हुए नीतिगत हस्तक्षेप करना होगा। तभी अर्थव्यवस्था से जुड़ी संभावनाओं को भुनाया जा सकता है।

दूरगामी-दीर्घकालिक पहलुओं से इतर तात्कालिक बिंदुओं की बात करें तो अर्थव्यवस्था बेहतर स्थिति में है। अगले वित्त वर्ष में आर्थिक वृद्धि दर कुछ घटी तो उसमें ऊंची ब्याज दरों की भूमिका हो सकती है। चूंकि महंगाई दर अभी भी रिजर्व बैंक के लिए सहज सीमा से ऊपर है तो अभी दरों में कटौती के आसार नहीं दिखते। हालांकि महंगाई में अभी केवल खाद्य उत्पादों की कीमतें ही परेशानी का सबब हैं और यदि मानसून मेहरबान रहा तो ये कीमतें भी नरम हो सकती हैं।

तब केंद्रीय बैंक के पास दरें घटाने की गुंजाइश होगी, जिसका असर आर्थिक गतिविधियों एवं वृद्धि पर भी दिखेगा। राजकोषीय स्तर पर जहां सरकार अपना घाटा घटाने पर ध्यान केंद्रित किए हुए है, वहीं चालू खाते का घाटा भी इस साल जीडीपी के एक प्रतिशत से कम रह सकता है। विदेशी मुद्रा भंडार भी भरा हुआ है। ये सभी पहलू दर्शाते हैं कि अर्थव्यवस्था घरेलू और बाहरी झटकों का सामना करने के लिए पर्याप्त रूप से तैयार है। कोविड महामारी से लेकर रूस-यूक्रेन युद्ध और हाल में इजरायल-हमास टकराव के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था ने अपनी इस क्षमता को बार-बार दिखाया भी है।

(लेखक क्रिसिल के मुख्य अर्थशास्त्री हैं)