कपिल अग्रवाल। बेहद सीमित मात्रा में उपलब्ध टीकों की बरबादी समेत आम जनता को इसके लिए होने वाली परेशानी को देखते हुए भारत सरकार की निरंतर दल रही टीकाकरण नीति तथा टीकों की अनुपलब्धता पर सवाल उठने शुरू हो गए हैं। हालत यह है कि अभी तक कोरोना महामारी से संबंधित किसी भी किस्म के विश्वसनीय सरकारी अथवा गैर सरकारी आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं और केवल विभिन्न रिपोर्टों आदि पर निर्भरता है। देश के अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में टीकाकरण अभी तक शुरू भी नहीं हुआ है और दिल्ली समेत आधे से ज्यादा राज्यों में अनुपलब्धता के चलते 45 वर्ष से कम उम्र के लोगों के लिए टीकाकरण बंद हो चुका है।

इतना ही नहीं, टीके को लेकर निरंतर अनेक विसंगतियां सामने आ रही हैं। टीकाकरण के शुरुआती दौर में कहा गया था कि दो खुराकों के बीच अधिकतम फासला तीन से पांच हफ्ते का होना चाहिए, परंतु अब इसे 16 हफ्ते तक कर दिया गया है। कुछ संबंधित विशेषज्ञों का मानना है कि इसके पीछे एकमात्र कारण टीकों की अनुपलब्धता है, न कि कोई ठोस चिकित्सीय आधार।

टीके की दो डोज के बीच का यह समयांतराल अन्य देशों में बेहद कम है। टीके की एक शीशी में औसतन 10 खुराकें होतीं हैं, पर एक ओर जहां बेहद कष्टपूर्ण दुरूह खानापूर्ति के चलते टीका केंद्रों पर भारी भीड़ हो रही है, वहीं टीका कक्ष खाली पाए जा रहे हैं। स्वतंत्र एजेंसियों की मानें तो औसतन 20 प्रतिशत खुराकें बर्बाद हो रही हैं। दो से आठ डिग्री तापमान पर रखे जाने वाले भारतीय टीकों की सफलता इस मानक तापमान पर लगभग 80 फीसद है, पर इससे ज्यादा तापमान पर इनकी प्रभावी क्षमता काफी गिर जाती है।

देश के लगभग समस्त टीकाकरण केंद्रों पर इनके मानक अनुरूप रखरखाव की कोई व्यवस्था नहीं है जिससे इनका वास्तविक प्रभाव काफी कम रह गया है। दूसरी ओर माइनस आठ से माइनस 18 डिग्री पर रखे जाने वाले रूसी टीके स्पूतनिक की कामयाबी 97 फीसद है। टीका अभियान की शुरुआत हुए चार माह से अधिक हो चुके हैं, पर पंजीकरण तथा अग्रिम समय व स्थान लेने की अनिवार्यता के चलते देश भर में रोजाना लाखों टीका लेने वाले लोगों को टीकाकरण केंद्रों से लौटना पड़ रहा है।

रूस और अमेरिका जैसे देशों की बात करें तो उन्होंने अपने अपने देशों में टीकाकरण की अति उत्तम व्यवस्था की है। उनके सफल टीका अभियान का रहस्य यह है कि सरकार की तरफ से टीका निर्माताओं को अग्रिम भुगतान करते हुए न केवल भारी मात्रा में आर्डर दिए गए, बल्कि विशेष अनुदान व रियायतें भी प्रदान की गईं और प्रचुर मात्रा में कच्चे माल का बंदोबस्त भी कराया गया। सभी प्रकार से सक्षम व वैश्विक स्तर पर टीका निर्माण क्षेत्र में अग्रणी होने के बावजूद हमारे यहां निर्माता वित्त, कच्चा माल, बल्क आर्डर व अग्रिम भुगतान संबंधी बुनियादी दिक्कतों से ही जूझ रहे हैं। हमारे लिए एक बड़ी समस्या यह भी है कि टीका निर्माण में अधिकांश कच्चा माल अमेरिका और चीन से आयात होता है, परंतु पर्याप्त मात्रा में आयात नहीं होने से देश के टीका निर्माता अन्यत्र भटकने को मजबूर हैं।

दोषपूर्ण टीका नीति के चलते आलम यह है कि निजी क्षेत्र को टीके उपलब्ध नहीं कराए गए हैं और देश के तमाम राज्यों में इसकी अनुपलब्धता के कारण अनेक सरकारी केंद्रों पर टीकाकरण रोक देना पड़ा है। अधिकांश केंद्रों में टीके लगाने बाबत मूल चीजें रूई और स्प्रिट आदि तक नहीं हैं और कागजी कार्रवाई के चलते आम जनता को अपना रोजगार रोककर अथवा नौकरी से अवकाश लेकर अपना पूरा दिन इन केंद्रों में खपाना पड़ रहा है। जबकि हमारे देश में न तो संसाधनों की कमी है और न ही सक्षम निर्माताओं की! बस कमी है तो एक ठोस नीति की। ऐसे में टीकाकरण संबंधी नीतियों में निरंतर बदलाव करने से ज्यादा बेहतर है इस मामले में सफल रूसी अथवा अमेरिकी मॉडल का अनुसरण किया जाए।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)