[ ए. सूर्यप्रकाश ]: अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट के सर्वसम्मति से आए फैसले ने सदियों से देश के सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने वाले एक मामले का पटाक्षेप कर दिया। बड़ी बात यह रही कि हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों ने फैसले को जिस तरह स्वीकारा उससे नवंबर का यह महीना और ऐतिहासिक बन गया। इस फैसले को देश भर में सौहार्द एवं भाईचारे की भावना के साथ स्वीकार किया गया। फैसले से पहले ही दोनों पक्षों ने दोहराया था कि निर्णय चाहे जो हो, वह उन्हें स्वीकार होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी लोगों से अपील की थी कि शीर्ष अदालत जो भी निर्णय करे, उसे स्वीकार करना चाहिए। फैसले के एक दिन बाद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने दोनों समुदायों के शीर्ष नेताओं को चर्चा के लिए भोज पर आमंत्रित किया। इसमें शांति एवं सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने की प्रतिबद्धता जताई गई। वहां सभी ने संविधान की शपथ के साथ दोहराया कि इस फैसले से शांति एवं भाईचारे के आधार पर नए भारत की बुनियाद रखी जानी चाहिए।

आखिरकार हिंदू समुदाय को राम मंदिर बनाने के लिए मिल गई जमीन

आखिर एक अरब से अधिक आबादी वाले हिंदू समुदाय को वह जमीन मिल गई जिसके बारे में उसकी दृढ़ मान्यता है कि इसी स्थान पर भगवान राम का जन्म हुआ था। इस फैसले पर हिंदुओं की प्रतिक्रिया बहुत संयमित रही। इसी तरह मुस्लिमों को भले ही इस मामले में जीत नहीं मिली हो, लेकिन उन्होंने अपने वादे को निभाया कि वे अदालती फैसले को मानेंगे। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह केंद्र सरकार और दोनों समुदायों के शीर्ष नेताओं के बीच बने बढ़िया तालमेल का परिणाम था। इसके लिए सरकार ने फैसले से पहले ही तैयारी शुरू कर दी थी। दुनिया में सबसे अधिक विविधतापूर्ण देश में बेहतर गवर्नेंस का इससे बढ़िया क्या और कोई उदाहरण हो सकता है?

अयोध्या फैसले पर भारत की प्रतिक्रिया अन्य देशों के लिए है सबक

वास्तव में अयोध्या फैसले पर भारत की प्रतिक्रिया अन्य देशों के लिए लोकतंत्र का एक अहम सबक बननी चाहिए। फैसले के बाद बने परिदृश्य ने तमाम विघ्नसंतोषियों को निराश किया। इसमें खासतौर से अंतरराष्ट्रीय मीडिया और भारत में उनके सहोदर विशेष रूप से हाथ मलते रह गए। फैसले की आम स्वीकार्यता में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ की भी अहम भूमिका रही। उसने जिन साक्ष्यों और दलीलों के आधार पर फैसला सुनाया वे बेहद महत्वपूर्ण रहींर्। ंहदू लगातार इस बात पर जोर दे रहे थे कि यह उनकी आस्था का मामला है। इस पर अदालत ने स्पष्ट कर दिया कि यह अचल संपत्ति से जुड़ा विवाद है जिसमें आस्था के आधार पर मालिकाना हक नहीं दिया जा सकता। उसने दो टूक कहा था कि निर्णय साक्ष्यों के आधार पर ही होगा। उसने कहा कि विवादित संपत्ति का स्वामित्व निर्धारित करने के लिए साक्ष्यों का सिद्धांत ही लागू होता है।

मुस्लिम पक्ष साक्ष्य पेश नहीं कर सके

साक्ष्यों के आकलन के बाद अदालत ने पाया, ‘सभी संभावनाओं का संतुलन यही स्पष्ट संकेत करता है कि अयोध्या में ढांचा बनने के बावजूद हिंदू बाहरी चबूतरे पर पूजा-अर्चना करते रहे। बाहरी चबूतरे पर नियंत्रण के साथ उस पर उनके स्वामित्व की बात पुष्ट होती है।’आंतरिक चबूतरे के बारे में भी अदालत ने कहा, ‘ऐसी संभावनाओं के साक्ष्य मिलते हैं कि 1857 में अवध के ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बनने से पहले तक हिंदू वहां पूजा करते रहे।’ इन दो निष्कर्षों के अलावा मुस्लिम पक्ष द्वारा कोई पुख्ता ‘साक्ष्य’ न पेश किया जाना सुप्रीम कोर्ट के फैसले का प्रमुख आधार बना। फैसले के मुताबिक मुस्लिम पक्ष अपनी दलील के पक्ष में कोई ऐसा साक्ष्य पेश नहीं कर सका कि 1857 से पहले आंतरिक ढांचे पर उनका नियंत्रण था, जबकि मस्जिद का निर्माण सोलहवीं शताब्दी में हुआ।

मंदिर निर्माण के लिए न्यास बनाने का निर्देश

शीर्ष अदालत ने मंदिर निर्माण और उससे जुड़े मामलों के लिए एक न्यास बनाने का निर्देश दिया है। इसके साथ ही मस्जिद निर्माण और अन्य गतिविधियों के लिए वैकल्पिक जमीन उपलब्ध कराने की व्यवस्था भी की है। अपने आदेश में शीर्ष अदालत ने कहा कि विवादित स्थल पर दावे को लेकर मुस्लिम पक्ष की तुलना में हिंदुओं की दलीलें दमदार होने के बावजूद इन तथ्यों की अनदेखी नहीं की जा सकती कि हिंदुओं द्वारा दिसंबर, 1949 में मस्जिद में तोड़फोड़ और फिर 6 दिसंबर, 1992 को उसे पूरी तरह गिरा देने के बाद मुस्लिमों को उससे बेदखल होना पड़ा। दूसरे शब्दों में कहें तो अदालत ने माना कि मुस्लिमों ने मस्जिद पर दावा नहीं छोड़ा। इन तथ्यों के आलोक में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए सुनिश्चित करेगा कि पुरानी गलतियों को दुरुस्त किया जाए।

मुस्लिमों के दावे की अनदेखी करके न्याय नहीं हो पाएगा

अदालत ने कहा, ‘मुस्लिमों की पात्रता के दावे की अनदेखी करके इस मामले में न्याय नहीं हो पाएगा, जिन्हें मस्जिद से उन स्थितियों में अलग होना पड़ा जिन्हें कानून व्यवस्था के प्रति समर्पित किसी धर्मनिरपेक्ष देश में स्वीकार नहीं किया जा सकता। संविधान धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है। सहिष्णुता और सह-अस्तित्व की अवधारणा हमारे राष्ट्र और उसके नागरिकों की धर्मनिरपेक्ष प्रतिबद्धता को पोषित करती हैं।’

मुस्लिमों को अयोध्या में ही मस्जिद के लिए पांच एकड़ जमीन देने का मिला आदेश

मुस्लिम पक्ष को क्षतिपूर्ति प्रदान करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 में निहित अपनी संवैधानिक शक्ति का प्रयोग किया। इसके तहत उसने मुस्लिमों को अयोध्या में ही पांच एकड़ जमीन उपलब्ध कराने का आदेश दिया। यह अनुच्छेद उच्चतम न्यायालय को यह शक्ति प्रदान करता है कि वह अपने समक्ष लंबित किसी भी मामले में ‘पूर्ण रूप से न्याय करने के लिए’ कोई डिक्री या आदेश पारित कर सकता है। जहां कुछ ‘अन्याय का अंदेशा’ हो वहां इसके जरिये राहत दी जा सकती है। अतीत में अदालत ने यह रुख भी अपनाया कि बेहतर है कि इस शक्ति को परिभाषित ही न किया जाए ताकि राहत देने के लिए उसके पास लचीलेपन की गुंजाइश बनी रहे। यह शक्ति बहुत किफायत के साथ इस्तेमाल होती है। यह अदालत की उस मंशा की भी द्योतक है कि संतुलन साधने के लिए वह एक दायरे से बाहर जाने के लिए भी तैयार है।

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने पुनर्विचार याचिका दायर करने का फैसला किया

हालांकि इस मामले के तमाम पक्षकार अब इसकी इतिश्री करना चाहते हैं, लेकिन ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने पुनर्विचार याचिका दायर करने का फैसला किया है। यह एक वैधानिक कदम है, क्योंकि अदालती कार्यवाही इसकी अनुमति देती है। हालांकि इस मामले में हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी का बयान बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। उन्होंने कहा है कि मुसलमानों को पांच एकड़ जमीन की यह ‘खैरात’ नहीं चाहिए। अच्छी बात यह रही कि फैसले के बाद ऐसे विषैले बयान कम ही सुनाई पड़े। यह शुभ संकेत है कि ऐसे इक्का-दुक्का विषैले बोल लोकतंत्र एवं संवैधानिक मूल्यों में आस्था रखने वालों की एक सुर में की गई सराहना के आगे दब गए।

( लेखक प्रसार भारती के चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )