बलबीर पुंज। पिछले दिनों प्रख्यात अर्थशास्त्री, अमेरिका की राष्ट्रीय आर्थिक परिषद के पूर्व निदेशक और पूर्व राज्यकोष सचिव लारेंस हेनरी समर्स ने कहा कि ‘21वीं सदी की दूसरी तिमाही में भारत का वैश्विक अर्थव्यवस्था में दबदबा होगा। भारत अगले 15 वर्षो तक दस प्रतिशत की आर्थिक वृद्धि दर प्राप्त कर सकता है, लेकिन इसके लिए यहां एक ऐसी सरकार की आवश्यकता होगी, जो न केवल अर्थव्यवस्था को सक्रिय रखे और उसमें सुधार लाए, बल्कि आर्थिकी को सरकारी सख्ती और नियंत्रण से मुक्त रखने के लिए तैयार भी रहे। इसके लिए राजनीतिक स्थिरता की भावना होना आवश्यक है।’ लारेंस के विश्लेषण को इसलिए भी गंभीरता से लेने की आवश्यकता है, क्योंकि हालिया इतिहास में अमेरिकी आर्थिकी को आकार देने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

लारेंस के कथन पर और विचार करने के पहले हमें बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी के इस बयान पर भी गौर करना होगा, जिसमें उन्होंने कहा कि ‘कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील (संप्रग) गठबंधन अब नहीं है।’ ममता ने यह वक्तव्य मुंबई में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के अध्यक्ष शरद पवार से भेंट के पश्चात दिया। विपक्षी दलों के हालिया आचरण से स्पष्ट है कि उनकी लड़ाई भाजपा के साथ बाद में और कांग्रेस के खिलाफ पहले है। ये दल उस स्थान को प्राप्त करने के लिए संघर्षरत हैं, जो एक मुख्य विपक्षी दल के रूप में अभी कांग्रेस के पास है। स्वाभाविक है कि इन दलों और कांग्रेस में कोई सकारात्मक सहयोग न तो चुनाव से पहले है और न ही बाद में होगा। इन सभी पार्टियों को जो तत्व एकसूत्र में बांधता है, वह उनका विशुद्ध भाजपा-मोदी विरोध है।

अर्थशास्त्री लारेंस हेनरी समर्स ने भारत के उज्ज्वल भविष्य में राजनीतिक अस्थिरता और ऐतिहासिक कठिनाइयों को अवरोधक बताया है। क्या भारत में 1989-2014 का कालखंड समर्स के इन्हीं विचारों को प्रमाणित नहीं करता? तत्कालीन राजनीतिक अस्थिरता और उसकी सतत संभावना ने भारत से बड़ी भारी कीमत वसूली है। दो वर्ष पहले आई फोर्ब्स की एक रिपोर्ट के अनुसार 1985 में ‘लोकतांत्रिक’ भारत और ‘अधिनायकवादी’ चीन में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद बराबर 293 डालर प्रति व्यक्ति था, किंतु 2017-18 में चीन की प्रति व्यक्ति आय भारत की तुलना में चान गुना अधिक हो गई। आज चीन एक बड़ी विश्व शक्ति है, जो भारत, अमेरिका सहित शेष विश्व के कई देशों के लिए चुनौती बना हुआ है।

इन 25 वर्षो में जहां चीन में मजबूत और सक्षम नेतृत्व रहा, वहीं भारत की केंद्रीय राजनीति में इसका नितांत आभाव दिखा। इस बिंदु की सच्चाई चीन स्थित थ्री गार्जेज बांध और भारत स्थित सरदार सरोवर बांध से स्पष्ट है। जिस 6,300 किमी लंबी और एशिया की तीसरी बड़ी यांगत्जी नदी पर चीनी बांध बना है, वह 13 नगरों, 140 कस्बों और 1,350 गांवों को लील चुका है। इस बांध से 13 लाख लोग विस्थापित हो गए। चीन ने इस बांध को दस वर्षो (1994-2003) में बना दिया। इसके विपरीत भारत में नर्मदा नदी पर बने सरदार सरोवर बांध को पूरा करने में 56 वर्ष लग गए, जिसने 178 गांवों को प्रभावित किया और जिससे चीनी बांध की तुलना में बहुत कम लोग विस्थापित हुए।

इसकी नींव 1961 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने रखी थी, जिसके वित्तपोषण के लिए विश्व बैंक वर्ष 1985 में सहमत हुआ। जैसे ही अप्रैल 1987 में नर्मदा बांध का निर्माण प्रारंभ हुआ, नर्मदा बचाओ आंदोलन ने मानवाधिकार-पर्यावरण संरक्षण के नाम पर इसका विरोध करना शुरू कर दिया। 1995 में सर्वोच्च न्यायालय का रुख करके इस पर रोक लगवा दी, जो चार वर्षो तक जारी रही। फिर अगले 18 वर्षो में अदालती चक्करों में फंसे रहने और अन्य अवरोधकों को पार करके यह बांध 2017 में पूरी क्षमता के साथ शुरू हुआ, जिसका उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया।

नर्मदा बांध को पूरा करने में भारत को चीन की तुलना में पांच गुना अधिक समय लगा। इसका सबसे बड़ा कारण 1989-2014 के बीच भारत की वे समझौतावादी खिचड़ी गठबंधन सरकारें रहीं, जिसमें कुछ अपवादों को छोड़कर राष्ट्रहित गौण रहा तो जोड़तोड़ की राजनीति हावी रही। इस 25 वर्ष के कालखंड में भारत में दस सरकारें और आठ प्रधानमंत्री हुए-वीपी सिंह 11 माह, चंद्रशेखर चार माह, नरसिंह राव पांच वर्ष, अटल बिहारी वाजपेयी 13 दिन, एचडी देवेगौड़ा 11 माह, इंद्रकुमार गुजराल 11 माह, वाजपेयी फिर से 13 माह एवं पांच वर्ष और डा. मनमोहन सिंह 10 साल। इस पृष्ठभूमि में चीन में तीन सवरेपरि नेता (राष्ट्रपति) हुए-जियांग जेमिन 15 वर्ष, हू जिंताओ आठ वर्ष और शी चिनफिंग 2012 से लगातार।

इसका अर्थ यह बिल्कुल भी नहीं है कि राजनीति में गठबंधन करके सरकार बनाना गलत है और भारत ने लोकतांत्रिक माध्यम से कभी प्रगति नहीं की। यदि प्रचंड बहुमत के साथ नेतृत्व सशक्त और राजनीतिक इच्छाशक्ति से परिपूर्ण हो, उसके शीर्ष पुरोधा भ्रष्टाचार रूपी दीमक से मुक्त हों और उनकी राष्ट्रहित-जनहित के प्रति नीयत साफ हो तो भी देश की आर्थिक तरक्की संभव है और वह सामरिक रूप से मजबूत हो सकता है। विगत सात वर्षो से भारत उसी आमूलचूल परिवर्तन को अनुभव कर रहा है।

लोकतांत्रिक व्यवस्था से लगातर दो पूर्ण बहुमत पाकर प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में राजग सरकार किस गति से काम कर रही है, यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि 1950 से 2014 तक देश में निर्मित राष्ट्रीय राजमार्गो की लंबाई 91,287 किमी थी तो अकेले मोदी सरकार ने इसमें पिछले सात वर्षो में 45,153 किमी लंबे राष्ट्रीय राजमार्ग और जोड़ दिए। इस प्रकार के कार्यो की एक लंबी सूची है। सच तो यह है कि अवसरवादी समझौतों की बैसाखी पर खड़ी खिचड़ी सरकारें लोकतंत्र को जिंदा तो रखती हैं, परंतु इससे देश की विकास गति धीमी हो जाती है।

देश की एकता, अखंडता, आर्थिक प्रगति और जीवंत लोकतंत्र को सबसे बड़ा खतरा वंशवादियों, वामपंथियों, जिहादियों और उस मतांतरण लक्ष्य के साथ चलने वाले स्वयंसेवी संगठनों से है, जो मानवाधिकार, पर्यावरण और आदिवासी आदि कल्याण का मुखौटा पहने रहते हैं और सच-झूठ के विषाक्त घालमेल से देश की विकास यात्र को बाधित करने का प्रयास करते हैं।

(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं)