अवधेश माहेश्वरी। उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले में भारत-नेपाल सीमा पर नो मैन्स लैंड की पट्टी इतनी संकरी दिखती है कि दो देशों की सीमाओं में अंतर करना मुश्किल है। नेपाल की ओर बनी एक झोपड़ी में चांगमा (मिनी ट्रैक्टर की तरह) पर आंखें टिकती हैं। यह वहां चीन के बढ़ते प्रभाव की तस्वीर है। इसके मालिक बताते हैं कि भारत में ऐसा कुछ दिखा नहीं, तो जोताई के लिए यह ले लिया। यह बात दूसरा अर्थ भी रखती है कि भारत से कटुता के दौर में नेपाली चीन की ओर भी नजर रखते हैं।

दरअसल भारत-नेपाल संबंधों का एक दौर वसंत के खिलते फूलों की तरह रहा है, जो पिछले कुछ दशकों में मुरझा से गए हैं। मजबूत दोस्ती के दौर वाले वर्ष 1950 में भारत और नेपाल के बीच मैत्री संधि पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और नेपाल की ओर से शासक वीरेंद्र विक्रम शाह ने दस्तखत किए गए। इसने हिमालय की गोद में बसे छोटे देश को चीन की साम्राज्यवादी नीति से सुरक्षा प्रदान की।

लैंडलॉक्ड यानी चारों तरफ भूमि से घिरे देश को आवश्यक वस्तुओं के आवागमन के लिए राह प्रदान की गई। साथ ही भारत की वरीयता में पड़ोसी राष्ट्र की सुरक्षा और चीन का खतरा अहम था, इसलिए वह इस पर ही नजर रखे रहा कि नेपाल भारतीय हित के विपरीत कोई कार्य न करे। इसके बावजूद संधि का एक बिंदु नेपाल को खटकने लगा कि वह बिना भारतीय अनुमति के विदेशों से हथियार की खरीद नहीं करेगा।

पिछली सदी के नौवें दशक में प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल के दौरान नेपाल ने संधि की परवाह न कर दूसरे देशों से हथियार खरीदने शुरू कर दिए। ऐसे में राजीव सरकार ने नेपाल के जरूरी सामान मंगाने वाले रास्तों को रोक पेट्रोलियम आपूíत को बंद कर दिया। वहां जरूरी सामान की किल्लत हो गई। ऐसे में विदेशी इशारे पर चलने वाले नेपाली राजनेताओं के एक वर्ग ने जनता को भारत विरोध के लिए उकसाना शुरू कर दिया। चीन को यहां से पूरा मौका मिल गया। हालांकि इस दौर में नेपाली राजशाही के भारत से नजदीकी संबंधों के चलते रिश्ते की इमारत ऊपर से तो सलामत बची रही, लेकिन आंतरिक रूप से दरारें पड़ गईं।

नेपाल नरेश वीरेंद्र की मौत के बाद राजशाही की जड़ें कमजोर हो गईं। चीन ने वहां माओवादियों की मदद बढ़ाकर राजशाही के खिलाफ मुहिम तेज कर दी। जनता की ओर से भी लोकतंत्र की मांग तेजी से उठने लगी। भारतीय रणनीतिकार एक लोकतांत्रिक देश से ज्यादा मजबूत रिश्तों की सोचकर लोकतंत्र के समर्थन में आगे बढ़ गए। परंतु इससे भारतीय हितों की रक्षा नहीं हो सकी।

लोकतांत्रिक चुनावों के बाद सत्ता कम्युनिस्टों के हाथ में पहुंच गई। नेपाल के नए प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल यानी प्रचंड के पहले ही कदम से उनका रुख भी जाहिर हो गया। पूर्व में जहां कोई भी नेपाली प्रधानमंत्री पहले भारत की यात्र करता था, वहीं प्रचंड पहले चीन गए। यह भारत के लिए एक झटका था। चीन के दबाव में प्रचंड भारतीय हितों की परवाह न कर उसके बड़े निवेश प्रस्तावों को मंजूरी देते रहे। परंतु चीन मदद के दांव चलता है तो उसमें भी घात होता है। उसने श्रीलंका की तरह ही नेपाल को भी कर्ज के जाल में फंसाना शुरू कर दिया। उस दौर में भारत बहुत कुछ कर पाने में समर्थ नहीं था और यह स्थिति अब तक कायम है। ऐसे में भारत के लिए अब उम्मीद की किरण दिख रही है।

भारत-नेपाल सीमा पर स्थित लुंबिनी द्वार दोनों देशों की साझा संस्कृति का द्योतक है। फाइल

कम्युनिस्ट पार्टी में केपी ओली और प्रचंड के अलग होने के बाद एक बार फिर राजशाही की मांग उठ रही है, तो नेपाल की जनता का एक धड़ा इस बात से भी नाराज है कि चीन राजनीतिक हस्तक्षेप कर हदों को पार कर गया है। ऐसे में भारत को नेपाली कांग्रेस की मजबूती पर ध्यान देने की जरूरत है। वहीं कम्युनिस्टों में प्रचंड को भी अपने पाले में लाने की जरूरत है। भारत में पढ़ाई के चलते उनकी भावनाएं यहां से जुड़ाव रखती हैं। साथ ही केपी ओली के प्रति चीन के झुकाव के चलते उनका इस ओर बढ़ना थोड़ा आसान भी होगा।

भारत को नेपाल में निचले स्तर पर भी संबंध मजबूती का काम करना चाहिए। चीन नेपालियों को मंदारिन भाषा पढ़ाने के लिए बड़ा बजट प्रदान करता है। भारत की ओर से हंिदूी के लिए भी ऐसा प्रयास किया जाना चाहिए। नेपालियों और भारतीयों के बीच रोटी-बेटी के रिश्तों पर भी तेजी से काम करने की जरूरत है। भारत में सेना और नौकरियों में स्थान पाने वाले नेपाली जब वापस नेपाल पहुंचें तो हमारे राजदूत की तरह काम करें, इसके लिए उन्हें तैयार करने को भी कदम बढ़ाने चाहिए।

नेपाल में बड़ी संख्या में बच्चे स्कूली शिक्षा पूरी नहीं कर पाते। भारत वहां के प्रतिभाशाली बच्चों की सहायता कर एक रास्ता खोल सकता है। दरअसल ये बच्चे नेपाल में आगे चलकर अहम पदों पर काबिज होंगे, तो भारत के प्रति उनके मन में स्वाभाविक झुकाव होगा। भारत को इस मौके को भुनाना चाहिए। कूटनीति के अन्य प्रयासों के बीच सॉफ्ट कूटनीति को तेज करना चाहिए। भारत-नेपाल के बीच सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आदान-प्रदान हों। नेपाल में यह संदेश भी पहुंचना चाहिए कि चीन नेपाल को श्रीलंका की तरह ऋण जाल में फंसाकर उसकी जमीन पर अधिकार कायम करने की रणनीति पर काम कर रहा है। इससे वहां भारत के प्रति सकारात्मक भाव बना रहेगा।