[ ब्रिगेडियर आरपी सिंह ]: अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मात खाने के बाद भी पाकिस्तान पुरजोर तरीके से भारत के खिलाफ दुष्प्रचार में जुटा है। कश्मीर को लेकर वह यह झूठा विमर्श तैयार करने की जुगत भिड़ा रहा है कि अनुच्छेद 370 हटाने के बाद भारतीय सेना कश्मीरियों को प्रताड़ित कर रही है। भारतीय सैनिक पाकिस्तानी फौजियों जैसे नहीं हैं जिन्होंने 1971 के युद्द में इतिहास का सबसे बर्बर जनसंहार किया। उन्होंने 30 लाख लोगों को मारा और चार लाख महिलाओं के साथ दुष्कर्म किया। उनके अत्याचारों से तंग एक करोड़ शरणार्थी भारत में शरण लेने के लिए मजबूर हुए। पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी अत्याचारों को लेकर तमाम शोध-अध्ययन हुए हैं।

पाक फौज ने दुष्कर्म को युद्ध का एक हथियार बनाया था

पाकिस्तानी फौज ने दुष्कर्म को युद्ध का एक हथियार बनाया ताकि बांग्लाभाषी मुस्लिम और हिंदुओं की बहुसंख्यक आबादी को भयाक्रांत किया जा सके। पाकिस्तानी फौजियों के दुष्कर्म के चलते हजारों महिलाएं गर्भवती हो गईं। कइयों ने गर्भपात कराए। तमाम महिलाओं ने आत्महत्या कर ली। तमाम पीड़ितों को उनके परिवार और समाज ने बहिष्कृत कर दिया। यह इतिहास में युद्ध के दौरान दुष्कर्मों के सबसे बड़े वाकयों में से एक माना जाता है।

पाकिस्तानी बंगालियों को हीनता की दृष्टि से देखते थे

बांग्लादेशी राजनीतिशास्त्री रौनक जहां के अनुसार बड़े स्तर पर किए गए दुष्कर्म बांग्लादेशियों के प्रति पाकिस्तानी सेना की नस्लीय नफरत को दर्शाते थे। राजनीति विज्ञानी आरजे रूमेल ने अपनी किताब ‘डेथ बाय गवर्नमेंट: जेनोसाइड एंड मास मर्डर’ में लिखा है कि पाकिस्तानी बंगालियों को हीनता की दृष्टि से देखते थे उनकी नजर में हिंदू वैसे ही थे जैसे नाजियों की नजर में यहूदी कि बस उनसे किसी तरह छुटकारा पाया जाए। पाक का यह घिनौना चेहरा तब उजागर हुआ जब बंगालियों को कमजोर बताते हुए जबरन गर्भाधान के जरिये उनकी नस्ल सुधारने की बात की गई।

'हम बहुसंख्यकों को अल्पसंख्यक बना देंगे'

स्पेनिश प्रोफेसर बेलेन मार्टिन लुकास ने इन दुष्कर्मों को नस्लीय दुर्भावना से कुप्रेरित बताया। ऑपरेशन सर्चलाइट के मुखिया टिक्का खान को जब एक पत्रकार ने याद दिलाया कि वह पाकिस्तान के बहुसंख्यक प्रांत के प्रभारी हैं तो उसने जवाब दिया कि ‘हम इन बहुसंख्यकों को अल्पसंख्यक बना देंगे।’ उसके सैनिकों ने इसे मूर्त रूप भी दे दिया। लेखक मुल्कराज आनंद के अनुसार, ‘पाकिस्तानी सेना ने योजनाबद्ध नीति के तहत इन दुष्कर्मों को अंजाम दिया। इसका मकसद एक नई नस्ल को जन्म देना या बंगाली राष्ट्रवाद की धार कमजोर करना था।’ इसकी पुष्टि पत्रकार अमिता मलिक की उस रिपोर्ट से भी हुई जो उन्होंने 16 दिसंबर, 1971 को पाक फौज के आत्मसमर्पण के बाद लिखी थी। उसमें एक पाकिस्तानी सैन्य अधिकारी के बयान का उल्लेख था जिसमें कहा गया था, ‘हम भले ही यहां से जा रहे हैं, लेकिन अपने बीज यहां छोड़े जा रहे हैं।’

दुष्कर्म का एक मकसद बांग्लादेशियों का मानमर्दन करना था

महिलाओं के साथ दुष्कर्म का एक मकसद बांग्लादेशियों का मानमर्दन करना था। यही वजह है कि अधिकांश दुष्कर्म परिजनों के सामने किए गए। इन जघन्य अपराधों को पाकिस्तान समर्थक कट्टरपंथी दलों का सहयोग मिल रहा था। भारतीय सैन्य बलों ने तमाम यौन दासियों को आजाद कराया। वर्ष 1972 में बांग्लादेश सरकार ने दुष्कर्म पीड़िताओं के लिए पुनर्वास कार्यक्रम चलाया। कई शहरों में इसके लिए शिविर स्थापित किए गए। पीड़िताओं को इन केंद्रों में भेजकर जहां तक संभव हो सका, वहां गर्भपात कराए गए, साथ ही बच्चों के जन्म की व्यवस्था की गई। इन महिला पुनर्वास केंद्रों को तमाम अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से मदद मिली।

बांग्लादेश बनने के बाद शेख मुजीबुर्रहमान ने दुष्कर्म पीड़िताओं को वीरांगनाओं की उपाधि दी

इंटरनेशनल प्लांड पैरेंटहुड फेडरेशन ऐसी ही एक संस्था थी जिसने ऑस्ट्रेलियाई डॉक्टर ज्योफ्री डेविस को 1972 में बांग्लादेश भेजा। डेविस ने बताया कि डेढ़-पौने दो लाख गर्भपात सरकार ने पहले ही करा दिए थे। बांग्लादेश बनने के बाद शेख मुजीबुर्रहमान ने दुष्कर्म पीड़िताओं को वीरांगनाओं की उपाधि दी। इन पीड़िताओं को 26 मार्च से 16 दिसंबर, 1971 के बीच पाकिस्तानी फौज के शिविरों में रखा गया जहां हर रात उनके साथ सामूहिक दुष्कर्म किया जाता।

पाक फौज के शिविरों में पीड़िताओं को परंपरागत परिधान नहीं पहनने दिया जाता था

पीड़िताओं को साड़ी जैसा परंपरागत परिधान भी नहीं पहनने दिया जाता था, क्योंकि कुछ ने साड़ी से फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी। उन्हें कम से कम कपड़े पहनने के लिए दिए जाते थे ताकि वे भागने की कोशिश भी न करें। कुछ शिविरों में तो उन्हें तन ढकने के लिए कपड़े भी नहीं दिए जाते थे। अधिकांश पीड़िताओं को न केवल शारीरिक पीड़ा झेलनी पड़ी, बल्कि वे भावनात्मक एवं मानसिक रूप से भी टूट गईं। अजनबियों द्वारा शारीरिक रूप चोट पहुंचाने से उनकी मन:स्थिति बहुत बुरी तरह प्रभावित हुई।

यौन दुर्व्यवहार की भयावह पराकाष्ठा पर पाक ने अफसोस तक नहीं जताया

युद्ध के तुरंत बाद मैं खुद कई वीरांगनाओं से मिला। मई-जून, 1971 में मैंने पश्चिम बंगाल के तमाम शरणार्थी शिविरों का दौरा किया। वहां मुझे 14-15 साल की पीड़िताएं भी मिलीं। वे भावशून्य थीं और पत्थर बन गई थीं। पाकिस्तानी सैनिकों ने बांग्लादेशी महिलाओं के साथ जो किया वह यौन दुर्व्यवहार की भयावह पराकाष्ठा थी। क्या कोई पुरुष किसी अन्य इंसान के प्रति इतना क्रूर, अमानवीय और बर्बर हो सकता है? क्या पाकिस्तानी सैनिकों ने कोई अफसोस जताया? आज तक तो नहीं।

बांग्लादेश की आजादी सामाजिक बेड़ियों में कैद हो गईं

2011 में बांग्लादेश की आजादी की चालीसवीं वर्षगांठ पर बांग्लादेश दौरे में मैंने इन वीरांगनाओं की व्यथा देखी। बांग्लादेश भले ही आजाद हो गया था, लेकिन वे स्थाई रूप से सामाजिक बेड़ियों में कैद हो गईं। उन्हें भारी अपमान सहना पड़ा। उनके परिवारजनों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। अपने ही समाज और देश में वे पराई हो गईं। उनमें से कुछ ने अपनी दर्दभरी दास्तान दुनिया को सुनाई भी। प्रियभाषिनी फिरदौसी उनमें से एक थीं जो बांग्लादेश की विख्यात मूर्तिकार थीं। उन्होंने एक जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता से शादी की। उनके चेहरे पर दर्द के ऐसे निशान दिखाई पड़ते हैं जिनका वर्णन करना भी मुश्किल है।

पाक सेना के 195 युद्ध अपराधी अधिकारी शिमला समझौते के तहत रिहा हो गए

पाकिस्तानी सेना के 195 अधिकारियों को युद्ध अपराधी माना गया, लेकिन शिमला समझौते के चलते उन्हें रिहा कर दिया। जबकि अमानवीय अपराध करने वाले ऐसे वहशियों को रिहाई का कोई अधिकार नहीं था। ऐसे में यह हम सभी का दायित्व है कि वह पाकिस्तान के जीवित युद्ध अपराधियों के खिलाफ आवाज बुलंद करें और उनके खिलाफ अंतरराष्ट्रीय अपराध पंचाट में मुकदमा चलाया जाए जैसा द्वितीय विश्व युद्ध के नाजी युद्ध अपराधियों के मामले में किया गया।

कश्मीर मामले में पाक को नापाक करना होगा

भारत को बांग्लादेश में पाकिस्तानी फौज के नरसंहार को उजागर कर पाकिस्तान के दुष्प्रचार की तो काट करनी ही चाहिए, इसके साथ ही बलूचिस्तान और गुलाम कश्मीर में हो रहे दमन को भी दुनिया के सामने लाना चाहिए। यह ठीक नहीं कि दुनिया इससे परिचित नहीं कि गुलाम कश्मीर में क्या हो रहा है और वहां किस तरह आबादी के संतुलन को छिन्न-भिन्न किया जा रहा है। पाकिस्तान की कारस्तानियों को सामने लाकर ही उसे इसके लिए विवश किया जा सकता है कि वह जम्मू-कश्मीर पर बोलने से बाज आए।

( लेखक सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी हैं )