जयजित भट्टाचार्य। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नवउद्यम यानी स्टार्टअप संस्कृति विकसित करने के उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रत्येक वर्ष 16 जनवरी को नेशनल स्टार्टअप डे मनाने की घोषणा की है। इस अवसर पर उन्होंने स्टार्टअप्स को सरकारी प्रक्रियाओं के जाल से मुक्त कराने का आह्वान किया। हालांकि यह इतना आसान नहीं है। नए उद्यमों की राह में मुश्किलें केवल भारत तक सीमित नहीं। उबर जैसा दिग्गज वैश्विक स्टार्टअप इसकी बड़ी मिसाल है। आज उबर का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है, किंतु शुरुआत में उबर को अधिकांश देशों में अवैध माना गया। अमेरिका के कुछ राज्यों ने उबर को नियामकीय गुंजाइश प्रदान की, जिससे उसे वहां पैर जमाने में मदद मिली। यदि ऐसा न हुआ होता तो उबर जैसे कारोबारी विचार की भ्रूण हत्या हो गई होती। अमेरिकी राज्यों में मिली पैठ से उबर को अन्य देशों में नियामकीय मोर्चे पर बदलाव की क्षमता प्राप्त हुई। इस प्रकार वह एक वैश्विक बहुराष्ट्रीय रुझान के रूप में उभरी।

स्पष्टता से ही बढ़ेगी उद्यमिता

भारत में भी ऐसे स्टार्टअप्स हैं, जिनकी राह मौजूदा नियामकीय ढांचे के कारण अवरुद्ध बनी हुई है। इस ढांचे के सृजन का सरोकार अलग टेक ईकोसिस्टम से है। समूचा ड्रोन स्टार्टअप ईकोसिस्टम इसका उम्दा उदाहरण है। जब तक सरकार ने ड्रोन को लेकर सुविचारित नीति को आकार देकर अस्पष्टताओं को स्पष्ट नहीं किया तब तक ड्रोन वैध और अवैध के बीच झूलते रहे। स्पष्ट नीतियों के अभाव का ही नतीजा था कि सैन्य ड्रोन की आपूर्ति करने वाले आपूर्तिकर्ता भी अवैध गतिविधियों में लिप्त रहते। समस्या केवल इतनी ही नहीं। हमारे घरेलू वाणिज्यिक वाहनों से जुड़ी नीतियों में भी लचीलेपन का अभाव है। मसलन आटोरिक्शा से किसी सामान की आपूर्ति में आपके लिए मुश्किलें खड़ी हो जाएंगी। यदि कोई आटोरिक्शा चालक सामान ढुलाई से अपनी आमदनी और अर्थव्यवस्था की क्षमता बढ़ाने की जुगत करे तो आखिर इसमें क्या अवैध है? परंतु नियमों के अनुसार आटोरिक्शा में सवारियों के स्थान पर सामान की ढुलाई गैर-कानूनी है। हैरानी इस पर होती है कि ऐसे कानून पहले-पहल बनाए ही क्यों गए? वर्तमान में जब लगभग हर चीज एप के माध्यम से उपलब्ध है तब आटोरिक्शा के माध्यम से किसी सामान की ढुलाई में अड़चनें सालती हैं। इस कारण यथास्थिति में परिवर्तन के प्रयास में लगे स्टार्टअप्स को मदद नहीं मिल पाती, जो बाजार के विस्तार, निवेश जुटाने, प्रतिभाओं को लुभाने और देश में मौजूद नियमों के साथ ताल मिलाने में लगे होते हैं।

अनुभव से सीखना आवश्यक

ई-लर्निंग के रूप में मैं अगला उदाहरण सामने रखता हूं। महामारी के दौर में हम साक्षी हैं कि पिछले कुछ समय के दौरान आनलाइन शिक्षा ने लाखों-करोड़ों विद्यार्थियों का भला किया है। यदि ऐसा है तो हम उच्च शिक्षा के कम से कम उन पाठ्यक्रमों में आनलाइन शिक्षा को बढ़ावा क्यों नहीं देते, जहां प्रयोगशाला और भौतिक उपस्थिति उतनी आवश्यक नहीं। आखिर हमारे यहां पूर्ण रूप से डिजिटल विश्वविद्यालय क्यों नहीं हो सकते, जो इतने बड़े देश को निरंतर रूप से उच्च गुणवत्ता की शिक्षा प्रदान कर सकें? इसमें बड़े पैमाने पर इमारतों की उपलब्धता एवं बड़ी संख्या में योग्य अध्यापकों की भर्तियों जैसे पहलुओं से पार पाया जा सकता है। भारत अगर अपने कार्यबल की शैक्षणिक योग्यता और उनकी उत्पादकता में कम समय में अधिक से अधिक वृद्धि चाहता है तो डिजिटल विश्वविद्यालय उसे संभव बनाने का सबसे सशक्त विकल्प होंगे। समस्या यह है कि भारत में डिजिटल विवि जैसी कोई अवधारणा ही नहीं है। चूंकि ऐसी संकल्पना ही नहीं तो कोई डिजिटल विवि के लिए आवेदन भी नहीं कर सकता।

अब मैं तीसरे उदाहरण पर आता हूं। स्कूटर, कारों और बस इत्यादि जैसे वाहनों को आटोमोटिव रिसर्च एसोसिएशन आफ इंडिया से प्रमाणन मिलता है। अगर कोई उसकी परिभाषा पर खरा नहीं उतरता तो उसे भारत में अपना वाहन बेचने के लिए आवश्यक प्रमाण पत्र ही नहीं मिलेगा। अगर कोई स्टार्टअप वाहन के अगले हिस्से में दो और पीछे एक पहिये वाला तिपहिया वाहन ट्राइक पेश करे तो संभव है कि उसका उत्पाद बाजार का मुंह ही न देख सके, क्योंकि भारत में ऐसे वाहन के लिए कोई श्रेणी ही नहीं है। इसकी तुलना में यूरोपीय बाजार को देखें तो वहां इस पर पेटेंट युद्ध छिड़ा हुआ है। इतालवी स्कूटर निर्माता पियाजियो ने फ्रांसीसी विनिर्माता प्यूजो को ऐसा ही ट्राइक वाहन बनाने के लिए बाध्य किया। पियाजियो ने दावा किया है कि ऐसे वाहन का पेटेंट उसके पास है। यह भी दिलचस्प है कि पियाजियो ने पेटेंट को लेकर यह कवायद तभी की जब प्यूजो के इस उत्पाद का स्वामित्व महिंद्रा एंड महिंद्रा के पास आ गया। वहीं भारतीय ईकोसिस्टम में ट्राइक जैसी 'अद्भुत' संकल्पना का सिरे चढऩा आसान नहीं, क्योंकि नियामकीय बाधाओं ने इसकी इजाजत नहीं दी होगी। यह स्थिति हमें डा. सुभाष मुखोपाध्याय के मामले को स्मरण कराती है। डा. मुखोपाध्याय ने स्वतंत्र रूप से इन विट्रो फर्टिलाइजेशन यानी आइवीएफ का आविष्कार किया। वह अपने नवाचार से जरूरतमंदों की मदद करना चाहते थे, परंतु तत्कालीन सरकार और नियामक के रवैये के कारण उन्हें आत्महत्या पर मजबूर होना पड़ा। भारत में आइवीएफ को तभी अनुमति मिली, जब विदेशी कंपनियां इस अवधारणा को देश में लेकर आईं।

समय की मांग है परिवर्तन

वास्तव में भारतीय नियामकीय ढांचा ऐसा है जो आटोरिक्शा को सामान ढुलाई जैसे आय बढ़ाने वाले विकल्प या डिजिटल विश्वविद्यालय की स्थापना को सुगम नहीं बनाता। भारत के बारे में यह आम धारणा है कि देश में ऐसे नवाचार को तभी मान्यता मिलती है जब वह किसी अन्य देश में हुआ हो या कोई विदेशी कंपनी उसे भारत लेकर आए। नए भारत में जहां सरकार, समाज और उद्योग जगत द्वारा तमाम परिवर्तनों को मूर्त रूप दिया जा रहा हो वहां एक ऐसे माध्यम की मौजूदगी अनिवार्य है, जो स्टार्टअप को नियामकीय बाधाओं से त्वरित आधार पर मुक्ति दिला सके। स्टार्टअप्स नवाचार के साथ ही समृद्धि के वाहक बनते हैं और इस प्रक्रिया में समग्र राष्ट्र को समृद्ध करते हैं। ड्रोन के मामले में सरकार पहले ही ऐसा कर चुकी है। क्या हमारे पास ऐसी कोई ढांचागत प्रक्रिया हो सकती है, जहां सभी क्षेत्रों के लिए ऐसा संभव हो सके।

(लेखक सेंटर फार डिजिटल इकोनामी पालिसी रिसर्च के प्रेसिडेंट हैं)