[ विकास सारस्वत ]: आज भारत एक नहीं दो-दो महामारियों से लड़ रहा है। एक, कोरोना महामारी से और दूसरे, दुष्प्रचार एवं सनसनी से। कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर ने देश को झकझोर कर रख दिया है। संक्रमण की व्यापकता के आगे हमारी सारी तैयारियां नाकाफी साबित हो रही हैं। पिछली लहर में ऑक्सीजन की कुल मांग 2400 मीट्रिक टन तक पहुंची थी, परंतु इस बार ऑक्सीजन की मांग 8800 मीट्रिक टन तक पहुंच गई है। टेस्टिंग किट्स एवं दवाइयों की उपलब्धता और उपचार विधि के मानकीकरण से उम्मीद थी कि दूसरी संक्रमण लहर से लड़ने में अपेक्षाकृत आसानी होगी, परंतु संक्रमण के तीव्र और व्यापक विस्तार ने सारी व्यवस्थाओं पर पानी फेर दिया। अमूमन हर राज्य में बेड एवं वेटिलेटरों की संख्या काफी बढ़ी होने के बाद मरीजों को भटकना पड़ रहा है। रही-सही कसर मीडिया के एक हिस्से और विषाक्त राजनीति ने भय और व्याकुलता को बढ़ावा देकर पूरी कर दी है। आपदा के भयावह चित्रण और सनसनीखेज पत्रकारिता ने जहां स्वस्थ लोगों को भी दवाइयों और ऑक्सीजन के गैर जरूरी भंडारण के लिए उकसाया है, वहीं कटुता और वैमनस्य से भरी राजनीतिक प्रतिक्रियाएं सामूहिक मनोबल को कमजोर करने का प्रयास कर रही हैं।

कोरोना मरीजों के हृदयविदारक दृश्यों के लगातार प्रसारण से लोग हतोत्साहित

कोरोना की दूसरी लहर की गंभीरता से आज सभी वाकिफ हैं। अस्पतालों में प्रवेश, ऑक्सीजन की किल्लत और असामान्य मृत्यु दर का सभी को अंदाजा है। ऐसे में हृदयविदारक दृश्यों का लगातार प्रसारण कोई नया परिप्रेक्ष्य न देकर लोगों को और हतोत्साहित कर रहा है। कोरोना महामारी का जो विकराल स्वरूप भारत आज देख रहा है, पश्चिम के कई देश उस स्थिति से गुजर चुके हैं। इटली, ब्रिटेन, स्पेन और अमेरिका सरीखे विकसित देश भी संक्रमण के चरम पर असहाय हो गए थे। अस्पतालों में मरीजों के लिए पर्याप्त ऑक्सीजन एवं बिस्तर न होने पर लंबी प्रतीक्षा सूचियां बन गई थीं। फर्क सिर्फ इतना था कि अस्पतालों में भीड़ की जगह मरीजों को घर पर ही रोक कर रखा जा रहा था। इटली और स्पेन को तो ऐसे कठोर निर्णय लेने पड़े कि गंभीर रूप से बीमार वृद्ध लोगों को छोड़कर युवा रोगियों को प्राथमिकता देनी पड़ी। वहां बिना उपचार घर पर ही मरने वालों की संख्या काफी ज्यादा थी। ऐसा नहीं है कि यह समस्या वहां पहली संक्रमण लहर तक ही सीमित रही।

विदेशी पत्रकार ने जलती चिताओं के दृश्य को शानदार बताया

दूसरी लहर में भी हालात बुरे ही बने रहे। सरकारों की लॉकडाउन नीतियों पर सवाल अवश्य हुए, पर स्वास्थ्य सेवाओं की कमियों पर राजनीति नहीं देखी गई। स्थिति की भयावहता के बावजूद पक्ष एवं विपक्ष, दोनों ही ने गंभीरता से उसका सामना किया। मीडिया भी सनसनी से दूर रहा। न तो उग्र और व्याकुल परिजनों के चित्र दिखाए गए, न ही ताबूतों की कतारों का प्रदर्शन हुआ। महामारी की चुनौती का सामना समाज के सभी वर्गों ने धैर्य और परिपक्वता के साथ किया। भारत में दुर्भाग्य से स्थिति काफी भिन्न है। एक वरिष्ठ महिला पत्रकार ने तो श्मशान में ही स्टूडियो बना लिया। दिल्ली में तैनात वाशिंगटन पोस्ट की एक विदेशी पत्रकार ने तो जलती चिताओं के दृश्य को शानदार तक बताया।

कोरोना त्रासदी की मीडिया कवरेज में भय और वीभत्स रस परोसा जा रहा

रिपोर्टिंग के नाम पर कोरोना त्रासदी की मीडिया कवरेज में भय और वीभत्स रस परोसा जा रहा है। इस कवरेज में संवेदनशीलता और जिम्मेदारी का अभाव है। जिस विदेशी मीडिया ने अपने देश की कोरोना कवरेज में संयम बरता था, वह भारत में हो रही मौतों में एक विकृत तृप्ति ढूंढ रहा है। यदि इस त्रासदी की व्यापकता मापने में चूक हुई है तो यह सरकार के एक नहीं, बल्कि हर स्तर की विफलता है। इसके लिए केंद्र, राज्य या निकाय स्तर पर हर किसी की जिम्मेदारी बनती है। साथ ही यह भी अध्ययन का विषय होगा कि क्या वाकई इस संक्रमण की सुनामी का पूर्वानुमान ठीक-ठीक लगाना मुमकिन था? परंतु ये सभी प्रश्न आज के लिए नहीं हैं। आज भयंकर मानसिक त्रास से जूझ रहे जनमानस को ढांढस बंधाने की आवश्यकता है। घर-घर में कोरोना के मरीज और तीमारदारों पर निराशा की बारिश का क्या असर पड़ रहा होगा, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। आपदा के समय धैर्य और गंभीरता का परिचय समाज के हर संस्थान की जिम्मेदारी है। बदनीयती, द्वेष और नकारात्मकता ने महामारी को इस हाल तक पहुंचाने में बहुत बड़ा योगदान दिया है।

कोरोना टीकों पर राजनीतिक दलों एवं बुद्धिजीवियों द्वारा भ्रम फैलाया जा रहा

कोरोना टीकों पर राजनीतिक दलों एवं कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा फैलाए गए भ्रम ने जनता में उस समय अविश्वास का निर्माण किया, जब भारत टीकाकरण की शुरुआत कर रहा था। नतीजतन टीकाकरण अभियान के पहले चरण में औसतन पांच लाख टीके रोज व्यर्थ हुए। अकेले तमिलनाडु में प्रथम चरण में 44 लाख टीके बर्बाद हुए। आज जब टीकों की प्रामाणिकता और उनके सकारात्मक प्रभाव पर मुहर लग चुकी है, तब यह सोचने का विषय है कि इन बर्बाद हुए टीकों से कितनी जानें बचाई जा सकती थीं?

कोरोना महामारी पर विपक्ष और देसी-विदेशी पत्रकारों का एक वर्ग संवेदनहीन

सरकार के विरोध में हुई देसी-विदेशी लामबंदी ने महामारी में भी राजनीतिकरण का लोभ नहीं छोड़ा। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने एक ओर वैक्सीन निर्माताओं पर मुनाफाखोरी और सरकारी प्रश्रय का आरोप लगाकर गैर जिम्मेदारी का परिचय दिया, वहीं दूसरी ओर पूरे भारतीय तंत्र को विफल घोषित कर दिया। सत्ता विरोध में चूर राहुल को यह आभास नहीं है कि सरकारी तंत्र का अर्थ केवल सत्ताधारी ही नहीं, बल्कि कार्यपालिका का वह बड़ा अमला भी है, जो ऊपर से निचले स्तर तक जी-जान से महामारी से लड़ने में दिन-रात लगा हुआ है। विपक्ष और देसी-विदेशी पत्रकारों के एक वर्ग में महामारी से हो रही जनहानि के प्रति संवेदना कम संतुष्टि और जय का भाव अधिक दिख रहा है। संक्रमण की दूसरी लहर के सबसे बड़े स्नोत महाराष्ट्र पर पूरी तरह चुप्पी बनाए रखने वाले स्वास्थ्य के राज्य का विषय होने के बावजूद केवल और केवल केंद्र सरकार को घेरने पर लगे हुए हैं।

कटु राजनीति में साझेदार मीडिया ने भारतीय समाज और व्यवस्था को विषाक्त कर दिया

कटु राजनीति में साझेदार मीडिया ने पिछले कुछ वर्षों में भारतीय समाज और व्यवस्था को विषाक्त कर दिया है। महामारी के समय संयम बरतने से मानवता की सेवा होगी। स्थितियां सुधरने पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला फिर से शुरू हो सकता है। आज जब कोरोना वायरस कहर बनकर टूट रहा है, तब दुष्प्रचार, भय और विषवमन की महामारी हमारी अपनी बनाई हुई है। कम से कम इस पर विराम लग जाए तो परिस्थितियां थोड़ी आसान हो जाएंगी।

( लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )