रसाल सिंह। पिछले कुछ वर्षों में भारत द्वारा अपने सीमाई क्षेत्रों में सड़क, पुल, मोबाइल टॉवर और हवाई पट्टी आदि के निर्माण में विशेष तेजी दिखाई गई है। ऐसी ढांचागत परियोजनाओं को लेकर जो सक्रियता दिखाई गई है, उससे पड़ोसी देश चीन बौखला गया है। इसलिए अभी उसका उद्देश्य भारत के लिए सामरिक रूप से महत्वपूर्ण गलवन घाटी में भारत की सड़क विकास परियोजना को पूरा होने से रोकना है ताकि वह भारत पर अपनी सामरिक बढ़त बनाए रख सके। सैन्य मजबूती के साथ उसकी आर्थिक ताकत को कम करके हम उसे करारा जवाब दे सकते हैं

भारतीय सैनिकों पर एलएसी का अतिक्रमण : हाल ही में पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर गलवन घाटी में अतिक्रमण को लेकर भारत और चीनी सैनिकों के बीच हुई हिंसक झड़प में भारतीय सेना के 20 सैनिकों के शहीद होने के बाद से वहां पर तनाव का माहौल कायम है। भारतीय सैनिकों पर एलएसी का अतिक्रमण करने के चीन के आरोपों को खारिज करते हुए भारत ने साफ कर दिया है कि तनाव कम करने के लिए वह बातचीत को तो राजी है, मगर चीन की ऐसी हरकतों का माकूल जवाब देने में भी सक्षम है। स्पष्ट है कि भारत सीमा विवाद सुलझाने के लिए चीन के सैन्य दबाव के सामने झुकने को कतई तैयार नहीं है और विषम परिस्थितियों से निपटने के लिए विशेष रूप से तैयार है। यह एक स्थापित और सर्वज्ञात सत्य है कि सीमा विवाद और तदजन्य संघर्ष चीनी विस्तारवाद की रणनीति है। वह अंधाधुंध पूंजीनिवेश और अपार सैन्यबल के बलबूते अपने विस्तारवादी भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना चाहता है।

एशियाई एवं वैश्विक राजनीति में भारत के बढ़ते कद से परेशान चीन : दरअसल भारत चीन सीमा-विवाद की असल वजह क्षेत्र विशेष में बनाई जा रही सड़क मात्र नहीं, बल्कि भारत का एशियाई एवं वैश्विक राजनीति में तेजी से बढ़ता कद है। भारत की यह उपलब्धि चीन के लिए असहनीय है, क्योंकि वह एशिया महाद्वीप की एकमात्र महाशक्ति बना रहकर अपने वर्चस्व का स्थायित्व चाहता है। इस बात की पुष्टि प्रभावशाली अमेरिकी थिंक टैंक हडसन इंस्टीट्यूट की हालिया रिपोर्ट करती है जिसमें दावा किया गया है कि दक्षिण एशिया में चीन का तात्कालिक लक्ष्य विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की हर प्रकार की चुनौती को सीमित करना और अमेरिका के साथ उसकी तेजी से मजबूत होती साझेदारी को बाधित करना है।

चीन सबसे ज्यादा तेजी से आर्थिक वृद्धि कर रहा: चीन का असीम आर्थिक विकास उसके भू-राजनीतिक विस्तारवाद का प्रमुख अस्त्र है। आर्थिक सुधारों के बाद से चीन सबसे ज्यादा तेजी से आर्थिक वृद्धि कर रहा है। ऐसा माना जा रहा है कि इस रफ्तार से बढ़ते हुए वह जल्द ही दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति अमेरिका से भी आगे निकल जाएगा। आर्थिक स्तर पर अपने पड़ोसी देशों से जुड़ाव के चलते चीन पूर्वी एशिया के आर्थिक विकास का इंजन जैसा बना हुआ है और इस कारण क्षेत्रीय मामलों में उसका प्रभाव बहुत बढ़ गया है। इस चिंता को ध्यान में रखते हुए अमेरिका ने भारत, ऑस्ट्रेलिया एवं जापान के साथ मिलकर एक चतुष्कोणीय गठबंधन तैयार किया है।

चीन के पास विदेशी मुद्रा का अपरिमित कोष: वर्ष 1949 में माओ के नेतृत्व में हुई साम्यवादी क्रांति के बाद चीन ने अर्थव्यवस्था के साम्यवादी मॉडल को अपनाया। इस मॉडल में चीन ने औद्योगिक अर्थव्यवस्था का आधार खड़ा किया। विदेशी मुद्रा की कमी के कारण चीन ने आयातित सामानों को धीरे-धीरे घरेलू स्तर पर ही तैयार करवाना शुरू किया। चीनी नेतृत्व ने पिछली सदी के आठवें दशक में कुछ बड़े निर्णय लिए। नई आर्थिक नीतियों के कारण उद्योग और कृषि दोनों ही क्षेत्रों में चीन की वृद्धि दर काफी तेज रही है। व्यापार के नए उदारवादी कानूनों तथा विशेष आर्थिक क्षेत्रों के विकास के परिणामस्वरूप चीन पूरे विश्व में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए सबसे आकर्षक देश बनकर उभरा है। उल्लेखनीय आर्थिक वृद्धि करने वाले चीन के पास विदेशी मुद्रा का अपरिमित कोष है और इसी के बल पर वह दूसरे छोटे-बड़े देशों में व्यापक स्तर पर आर्थिक, राजनीतिक और सामरिक निवेश में जुटा हुआ है। चीन 2001 में विश्व व्यापार संगठन में शामिल हो गया और इस संगठन के कमजोर कानूनों, सस्ते श्रम और कुशल एवं सक्षम प्रशासनिक व्यवस्था के कारण उसने विश्व के बाजारों को चीनी सामानों से पाट दिया है।

अब चीन की योजना विश्व अर्थव्यवस्था से अपने जुड़ाव को और सशक्त और प्रभावशाली बनाने की है, ताकि भविष्य में वह विश्व-व्यवस्था को मनचाहा स्वरूप दे सके। इस दिशा में तेजी से कदम बढ़ाते हुए चीन अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना वन बेल्ट, वन रोड को धरातल पर उतारने की कोशिश में लगा है। उल्लेखनीय है कि यदि चीन इस महत्वाकांक्षी परियोजना को अमलीजामा पहनाने में सफल होता है तो दक्षिण एशिया में शक्ति संतुलन बिगड़ जाएगा और यह भारत के लिए हानिकारक सिद्ध होगा।

चीन का लंबे समय से आसियान देशों जिनमें वियतनाम, ब्रूनेई, फिलीपींस और मलेशिया आदि हैं, के साथ दक्षिण चीन सागर में स्थित स्पार्टले और पारासेल द्वीप को लेकर विवाद चल रहा है। चीन ने इन एशियाई देशों के अनन्य आर्थिक क्षेत्र में अतिक्रमण कर वहां अपनी संप्रभुता के दावों के लिए नौ स्थानों पर डैश लगाकर विवाद बढ़ा दिया है। दरअसल चीन दक्षिण चीन सागर में पाए जाने वाले प्राकृतिक संसाधनों, प्राकृतिक तेल, गैस, मत्स्य संसाधनों पर कब्जा करना चाहता है। इन द्वीपों पर नियंत्रण कर चीन अपने आर्थिक प्रभाव और क्षेत्र का विस्तार करना चाहता है। इस विवाद के कारण अनन्य आर्थिक क्षेत्र का निर्धारण नहीं हो पा रहा है।

चीन के द्वारा दक्षिण चीन सागर में स्थित द्वीपों में सैनिक अड्डे के निर्माण का भी प्रयत्न किया जा रहा है और चीन ने इन द्वीपों पर एक हवाई पट्टी भी बनाई है। हाल ही में दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के साथ मिलकर अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र से अपील की है कि अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता न्यायालय द्वारा दक्षिण चीन सागर के विवाद पर फिलीपींस के पक्ष में दिए गए निर्णय का त्वरित क्रियान्वयन होना चाहिए। इस मामले में न्यायालय के निर्णय की अवहेलना करके चीन हठधर्मिता के साथ दावा कर रहा है कि यह समुद्री क्षेत्र का विवाद नहीं है, बल्कि चीन की भौगोलिक संप्रभुता का मुद्दा है, जिस पर न्यायाधिकरण निर्णय नहीं दे सकता है। चीन ने नवंबर 2013 में पूर्वी चीन सागर में अपना पहला एयर डिफेंस आइडेंटिटी जोन बनाकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय को एक बार फिर अपना दबदबा दिखाने की कोशिश की है।

वर्तमान में भारत और अमेरिका के बीच व्यापारिक और सामरिक संबंधों का विकास हो रहा है और वह क्रमशः भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक और सामरिक सहयोगी बन रहा है। अमेरिका द्वारा चीन को हथियारों का निर्यात नहीं किया जाता इसीलिए चीन और अमेरिका के बीच सामरिक संबंध नगण्य हैं। अमेरिका की भारत के साथ बढ़ती निकटता के कारण बौखलाकर चीन द्वारा सीमा विवाद के मुद्दे पर सख्त रुख अपनाया जा रहा है और वह भारत पर दबाव बनाना चाहता है। अमेरिका द्वारा भारत को साथ लेकर चीन को प्रतिसंतुलित करने की नीति अपनाई जा रही है। भारत अपने राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए दोनों देशों के साथ समानांतर संबंध विकसित करना चाह रहा है, परंतु इस स्थिति में भारत को अवसर का लाभ उठाते हुए अमेरिका के साथ संबंधों को मजबूत बनाकर चीन के साथ संवाद करना चाहिए, ताकि चीन को यह अहसास कराया जा सके कि भारत देशकाल के अनुरूप अपनी परंपरागत सॉफ्ट डिप्लोमेसी को एग्रेसिव डिप्लोमेसी में भी बदलना जानता है।

[प्रोफेसर, जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय]