सुरेंद्र किशोर। राज्यसभा के सभापति और देश के उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने मतदाताओं से अपील की है कि ‘आप हंगामा करने वाले जनप्रतिनिधियों की पहचान कर उन्हें सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा करें। सदन को बाधित करने का अर्थ है देश के सपने और लोगों के जीवन को बाधित करना।’ हाल में लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिरला ने भी एक अन्य अवसर पर कहा कि ‘सदन हंगामा और अड़ंगा लगाने के लिए नहीं है, बल्कि चर्चा के लिए है।’ देश के इन शीर्ष पीठासीन पदाधिकारियों ने संसद से बाहर के अलग-अलग समारोहों में ऐसी बातें बड़ी पीड़ा के साथ देश के सामने रखी हैं। वे यह अनुमान लगा रहे हैं कि संसद सहित विधानसभाओं में यदि ऐसे ही सब कुछ चलता रहा तो नई पीढ़ी संसदीय व्यवस्था पर अपना विश्वास खोने लगेगी। वेंकैया नायडू और ओम बिरला की बातों पर हर लोकतंत्र प्रेमी को गंभीरतापूर्वक विचार करना ही होगा। अन्यथा एक दिन पछताने के लिए भी लोकतंत्र के नाम पर संभवत: कुछ नहीं बचे।

वर्ष 2001 में नई दिल्ली में देशभर के तत्कालीन पीठासीन पदाधिकारियों का एक सम्मेलन हुआ था। उसमें कई मुख्यमंत्री और दलीय नेतागण भी शामिल हुए थे। सम्मेलन में पारितकुछ संकल्प इस समस्या से निपटने की राह दिखाते हैं। ‘भय बिनु होइ न प्रीति’ का फार्मूला अपनाते हुए वेंकैया नायडू और ओम बिरला को उन संकल्पों के तहत मिले अधिकारों का इस्तेमाल करना चाहिए। अन्यथा देर-सवेर यह माना जा सकता है कि पीठासीन पदाधिकारी गण उन जिम्मेदारियों को नहीं निभा पाए, जो उनको बीस साल पहले ही सौंप दी गई थीं। संबंधित सरकारों को भी इस काम में पीठासीन पदाधिकारियों का सहयोग करना चाहिए। संदन में हंगामा, कामकाज में अड़ंगा और दूसरी तरह के अशिष्ट एवं हिंसक व्यवहार करने वाले सदस्यों के खिलाफ विभिन्न तरह की सजाओं का प्रविधान किया गया है। ये हैं-भर्त्सना, फटकार, निंदा, सभा से निकालना, खास अवधि के लिए सभा की सेवा से निलंबन और कोई अन्य दंड, जो सभा द्वारा उचित समझा जाए।

किसी अन्य दंड में सदन की शेष अवधि के लिए सदस्यता खत्म कर देना भी शामिल है। ये दंड वैसे हैं, जो विधायिका की आचार संहिता के उल्लंघन के आरोप में सदस्यों के लिए निर्धारित हैं। इस देश में इनका इस्तेमाल बहुत ही कम होने के कारण भी सदनों में हंगामा बढ़ता जा रहा है। साथ ही हिंसक व्यवहार भी। पता नहीं कल हिंसक व्यवहार कौन-सा रूप ले ले! बदलती राजनीति और राजनीति में बढ़ते आपसी द्वेष को देखते हुए कहा जा सकता है कि फिलहाल अनेक सदस्यों का विवेक कभी जगनेवाला नहीं है।

गत वर्ष राज्यसभा में उपसभापति के साथ कुछ सदस्यों द्वारा किए गए अभूतपूर्व र्दुव्‍यवहार से न सिर्फ सदन, बल्कि पूरे देश के विवेकशील लोगों को पीड़ा हुई। तब कुछ उद्दंड सदस्यों ने अत्यंत शर्मनाक दृश्य पैदा किए थे। ऐसी घटनाएं देश के विभिन्न सदनों में आए दिन होती रहती हैं। गत साल कर्नाटक विधानपरिषद के उपसभापति को कुछ सदस्यों ने मिलकर उनके आसन से जबरन उठाया और दूर कर दिया। बाद में उनका शव रेलवे लाइन पर पाया गया। केरल विधानसभा में 2015 में हुई हिंसक घटना को लेकर आपराधिक मुकदमा दर्ज किया गया है। उस मुकदमे की समाप्ति के लिए आरोपी पक्ष सुप्रीम कोर्ट तक गया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘बर्बरता और तोड़फोड़ किसी के संसदीय विशेषाधिकार में शामिल नहीं हैं।

संसदीय विशेषाधिकार आपको सदन के सदस्य के रूप में अपनी भूमिका निभाने के लिए हैं। किसी सामान्य कानून से आप ऊपर नहीं हैं।’ केरल विधानसभा के भीतर हुई उस घटना से संबंधित मुकदमे में यदि कोर्ट से सजा हो गई तो पीठासीन पदाधिकारियों को भी सदन में शांति बनाए रखने में सुविधा होगी, क्योंकि तब सदन के भीतर आए दिन हो रही हाथापाई के खिलाफ मुकदमों की बाढ़ आ जाएगी। वीडियो सुबूत बनेंगे। विभाजित राजनीति में गवाह भी आसानी से मिल जाएंगे।

वर्ष 1997 में उत्तर प्रदेश विधानसभा में तो जो कुछ हुआ, वह अभूतपूर्व था। विधायकों के बीच देर तक जमकर मारपीट हुई। धक्का-मुक्की हुई। माइक उखाड़कर एक-दूसरे पर फेंके गए। कुछ सदस्य सीट के नीचे छिपकर बचे। अपने आसन पर बैठे तत्कालीन स्पीकर केसरीनाथ त्रिपाठी के आगे सुरक्षाकर्मी लकड़ी की तख्ती लेकर खड़े हो गए। तत्कालीन मुख्यमंत्री को सुरक्षाकर्मियों ने अपने घेरे में ले लिया। इतने अधिक विधायक आपसी मारपीट में संलग्न थे कि सुरक्षाकर्मी कम पड़ गए। कलराज मिश्र सहित कुछ सदस्यों को पट्टियां बंधवानी पड़ीं। यदि उस मामले में आपराधिक मुकदमे दर्ज हुए होते तो कुछ सदस्यों पर जान मारने के प्रयास की धारा भी लगती।

आश्चर्य है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा की उस शर्मनाक घटना के कुछ ही महीने पहले संसद में भ्रष्टाचार एवं राजनीति के अपराधीकरण पर छह दिनों तक करीब 65 घंटे की ऐतिहासिक चर्चा हुई थी। इतनी लंबी चर्चा की जरूरत इसलिए पड़ी थी, क्योंकि उससे ठीक पहले बिहार के दो बाहुबली लोकसभा सदस्यों ने सदन के भीतर हाथापाई कर ली थी। देखा जाए तो अब भी कुछ नहीं बदला है। सदन के भीतर हुड़दंग करने वालों के खिलाफ कठोर कदम उठाए बिना कुछ बदलने वाला नहीं है।

इन दिनों तो सदन के अंदर गाली-गलौज और मारपीट आम बात है। हाल के महीनों में बिहार विधानसभा के भीतर और बाहर जिस तरह के अशोभनीय दृश्य पैदा हुए, उससे राज्य और राजनीति दोनों की छवि खराब हुई। मनमोहन सिंह के शासनकाल में कुछ प्रमुख भाजपा नेताओं ने कहा था कि सदन को नहीं चलने देना भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है। आज के विपक्षी दल उन भाजपा नेताओं के कथन को उद्धृत करके सदन में अक्सर अशोभनीय दृश्य उपस्थित करते रहते हैं। वैसे तो आपकी उद्दंडता मेरी उद्दंडता की वजह नहीं हो सकती। फिर भी इस खास परिस्थिति में भाजपा का मौजूदा नेतृत्व एक कदम उठा सकता है। भाजपा अपने विधायकों को यह सख्त निर्देश दे कि वे सदन में आचार संहिता का पूरी तरह पालन करें, जहां वे विपक्ष में हैं। इससे आम लोगों में भाजपा के प्रति बेहतर राय बनेगी। साथ ही भाजपा को उन सदनों में भी कड़ाई से आचार संहिता लागू करवाने का नैतिक अधिकार मिल जाएगा, जहां भाजपा या राजग बहुमत में है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)