कुमुद शर्मा। पिछले कुछ समय से हिंदी की स्थिति के संदर्भ में कुछ न कुछ ऐसा घटित हो रहा है जो बहुत कुछ सोचने-विचारने के लिए विवश कर रहा है। इसी सप्ताह हिंदी को लेकर दो खबरें पढ़ने को मिलीं। दस अगस्त के अखबार में खबर पढ़ी कि ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला खामेनई ने आधिकारिक हिंदी ट्विटर अकांउट की शुरुआत की। इसमें देवनागरी लिपि में उनका बायो लिखा है। इसी लिपि में ट्वीट भी किए गए हैं।

दूसरी खबर इसके एक दिन बाद पढ़ने को मिली कि डीएमके सांसद कनिमोझी ने चेन्नई एयरपोर्ट पर सीआइएसएफ की एक अधिकारी द्वारा हिंदी बोलने का अनुरोध करने पर जब यह कहा कि उन्हें हिंदी नहीं आती (आइ डोंट नो हिंदी), तमिल या अंग्रेजी में बात करें, तो उस अधिकारी के मुख से संभवत: अनायास निकलनेवाला प्रश्नसूचक यह वाक्य, क्या वह भारतीय हैं? उन्हें इतना नागवार गुजरा कि इसे राजनीतिक मसला बनाते हुए सोशल मीडिया पर लिखा।

कैसी विडंबना है कि जिस भाषा में समूचे देश को एकजुट कर हमने आजादी की लड़ाई जीती, आज उसी भाषा को लेकर इतना संशय। आज जो भाषा समूचे विश्व में अपने पंख पसार रही है उस भाषा को लेकर उसके अपने ही देश में परायेपन का भाव? हम उपनिवेशवाद स्थापित करने में कारगर भूमिका निभानेवाली अंग्रेजी को सिर माथे पर बिठा सकते हैं। लेकिन प्रांतीय भाषाओं के साथ सखी सहेली का भाव लिए सहभागिता करती हिंदी को अपनाने को तत्पर नहीं हैं। क्या यह विश्वास किया जा सकता है कि कनिमोझी को हिंदी नहीं आती? वह तिहाड़ जेल में रही थीं। तिहाड़ जेल अधीक्षक के हवाले से यह बात सार्वजनिक हो चुकी है कि वे उनसे हिंदी बोलती थीं और अपनी जरूरतों को छोटी र्पिचयों में हिंदी में लिख कर देती थीं।

देश के चेहरे की पहचान हिंदी: आज हिंदी का विरोध एक सायास ओढ़ी हुई मुद्रा है। जबकि आजाद भारत को हिंदी का ऋणी होना चाहिए, क्योंकि स्वाधीन भारत का स्वप्न हिंदी में देखा गया था। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान हिंदी राजनीति की एक महत्वपूर्ण कड़ी थी, उस समय सर्वमान्य राय यही थी कि इसे निकाल देने पर भारतीय संस्कृति और राजनीतिक एकता बिखर जाएगी। भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्वाधीनता आंदोलन के दौरान हिंदी जातीय अस्मिता और चेतना की अभिव्यक्ति का माध्यम थी। आत्मविश्वास, आत्मावलंबन और आत्मगौरव की भावना के दृढ़ीकरण के समय हिंदी अंग्रेजी साम्राज्यशाही के विरुद्ध देश को एकजुट करने का माध्यम बनी। सांस्कृतिक परंपरा की साझेदारी में उसकी भूमिका महत्वपूर्ण हुई। वह देश के चेहरे की पहचान बनी।

सी राजगोपालाचारी की भूमिका: हिंदी की मांग के प्रश्न को सांस्कृतिक बताकर अभियान चलाने में दक्षिण की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को ही ताकत दी। उन्होंने कहा, 'हिंदी का श्रृंगार राष्ट्र के सभी लोगों ने किया है, वह हमारी राष्ट्रभाषा है।' हिंदी प्रचार प्रसार से जुड़े प्रसंगों को देखें तो दक्षिण के राज्यों को हिंदी समझने में दिक्कत नहीं होती थी। प्रो. ललिता प्रसाद सुकुल ने जून 1934 में र्दािजलिंग में आयोजित हिमाचल हिंदी भवन के वार्षिक समारोह में कहा था कि लगभग एक दशक के भीतर 15 लाख मद्रासियों ने हिंदी सीखी। और हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में पहचान मिले, इसके लिए वे उत्सुक भी हैं।

स्वाधीनता आंदोलन के दौरान गांधीजी ने इस तथ्य को समझ लिया था कि देश की सामासिक संस्कृति का संवहन यदि कोई भाषा कर सकती है तो वह हिंदी ही हो सकती है। इसलिए उन्होंने चेन्नई यानी तब मद्रास में 'दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा' की स्थापना करके हिंदीतर-भाषी प्रदेशों में हिंदी के प्रचार प्रसार का बीड़ा उठाया। मैसूर की हिंदी प्रचार सभा के एक अधिवेशन में मद्रास सरकार में जन स्वास्थ्य मंत्री डॉ. टी एस एस राजन ने हिंदी सीखने की प्रेरणा इन शब्दों में दी थी, 'राष्ट्र की स्वाधीनता अवश्यंभावी है और स्वाधीन भारत का राज्यशासन एक संघ के रूप में ही होगा। संघ की भाषा केवल वही हो सकती है जो देश के अधिकांश लोगों के द्वारा समझी या बोली जाती है। और वह भाषा न कन्नड़ है, न तमिल और न अंग्रेजी। वह होगी केवल हिंदी। मैसूर का निवासी मुझसे पूछे कि उसे हिंदी क्यों सीखनी चाहिए तो मैं कहूंगा कि वह मैसूर की उत्तर दिशा में कुछ मील चला जाए तो स्वयं अनुभव कर लेगा कि वहां का जनसमुदाय जिन भाषाओं में अपने रोजमर्रा के कामकाज निबटाता है वह हिंदी का ही एक रूप है और उनके साथ उसका निर्वाह बिना हिंदी सीखे संभव नहीं।'

तमिलनाडु में राजनीतिक एजेंडा: आज इतना विरोध क्यों? विरोध में जन सामान्य की सहभागिता कितनी है? दक्षिण की क्षेत्रीय र्पािटयों द्वारा प्रादेशिक भाषाओं को हिंदी के विरोध में खड़ा करने की मानसिकता क्या है? वस्तुत: हिंदी विरोध का नेतृत्व तमिलनाडु के राजनीतिक दल ही क्यों करते हैं? इसकी एक पृष्ठभूमि है।

चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के नेतृत्व में वर्ष 1937 में मद्रास प्रेसीडेंसी में कांग्रेस की सरकार बनी। सरकार ने 1938 में माध्यमिक विद्यालयों में हिंदी को अनिवार्य घोषित कर दिया। उस समय पेरियार की जस्टिस पार्टी विपक्ष में थी, उसने इस निर्णय के विरुद्ध अपना मोर्चा खोला और राज्य भर में हिंदी विरोधी आंदोलन चलाया। राजगोपालाचारी ने 1939 में त्यागपत्र दे दिया था। अंग्रेज गवर्नर द्वारा 1940 में सरकार के निर्णय को वापस ले लिया गया। लेकिन इससे हिंदी विरोधी बीज का प्रस्फुटन हो गया। वर्ष 1967 में सीएन अन्नादुरई जब एक क्षेत्रीय पार्टी द्रमुक के नेता के तौर पर राज्य के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने हिंदी विरोध का नेतृत्व किया। विरासत में मिली हिंदी विरोध की रणनीति को एम करुणानिधि ने अपने राजनीतिक एजेंडे में शामिल किया। करुणानिधि के पुत्र एमके स्टालिन भी कमोबेश उसी राह पर जाते दिख रहे हैं।

भाषा का राजनीतिकरण: राजनीतिक दबावों से हिंदी विरोध आंदोलन की शक्ल में समय-समय पर उभरता रहता है। भाषा व संस्कृति चुनावी दंगल का मोहरा बन जाती है। राजनीतिक मंच पर भाषा को समस्या बनाकर प्रस्तुत किया जाता है। कनिमोझी से जुड़ा हिंदी से संबंधित विवाद चुनावी राजनीति का ही हिस्सा है। नौ महीने बाद तमिलनाडु विधानसभा के चुनाव हैं। राज्य में डीएमके हिंदी विरोध का नेतृत्व करता है। इस समय इस पार्टी अध्यक्ष स्टालिन हैं। कुछ दिनों पहले उनके पिता करुणानिधि इस पार्टी की कमान संभाले हुए थे। नेता बदल जाने से हिंदी विरोध की नीति पर कोई असर नहीं पड़ा। उनके रिश्तेदार और पूर्व केंद्रीय मंत्री मुरासोली मारन भी यही करते हैं।

आपको जानकर यह आश्चर्य होगा कि हिंदी विरोध का नेतृत्व करने वाले इन नेताओं के पचास से ज्यादा स्कूल हैं और इनमें से अधिकांश स्कूलों में हिंदी पढ़ाई जाती है। लेकिन जब अपनी भाषा और अपनी संस्कृति को बचाने का मुहिम छेड़ी जाती है तो ये लोग राजनीतिक निहित स्वार्थों से वोट बैंक की राजनीति के कारण हिंदी विरोध का झंडा लेकर आंदोलन पर उतर आते हैं। इस मुहिम की मौन सहमति देने वाले दल भी इस आंदोलन का विरोध करने के बजाय यह टिप्पणी करते हैं कि हिंदी को देश पर नहीं थोपना चाहिए। अगर हिंदुस्तान में हिंदी को नहीं थोपेंगे तो कहां थोपेंगे। यह महज भाषा का मसला नहीं है, इसे समझना चाहिए।

कम नहीं सकारात्मक बदलाव के वाहक: इस प्रकरण में तमाम विरोधाभासों के बीच कुछ अच्छी बाते भी हैं। इनमें एक बात यह कि तमिलनाडु से ही तमिल भाषा के लिए चरमपंथी राजनीति करनेवाली राजनीतिक पार्टी 'पुथिया तमिलागम' ने खुलेआम हिंदी का झंडा बुलंद कर दिया है। उसका कहना है कि हमें प्रदेश में हिंदी चाहिए, हम पिछड़ रहे हैं। इसके लिए उसने लंबा प्रदर्शन किया और नारे लगाए, जुलूस निकाला। वहां की वर्तमान राज्य सरकार हिंदी के मामले पर चुप है। उनके एकाध नेताओं के विरोध के बावजूद मोटे तौर पर सब चुप हैं। इसको समर्थन ही समझना चाहिए। और यही कारण है कि जब पुथिया तमिलागम के लोगों ने हिंदी के समर्थन में प्रदर्शन किया और जुलूस निकाला तो प्रदेश की वर्तमान सरकार ने जुलूस और प्रदर्शन के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की।

इसका सकारात्मक पक्ष यह भी है कि राजनीतिक कारणों से हिंदी का विरोध करने वाली डीएमके अपने स्कूलों में हिंदी पढ़ा रही है। राजनीतिक कारणों से ही अन्ना द्रमुक की वर्तमान सरकार मौन समर्थन दे रही है। दोनों पार्टियों के बीच इस विषय पर मतभेद उभर रहे हैं जो कि भविष्य में और भी गहरा हो सकता है, यही उसका सकारात्मक पक्ष है। कुछ और भी सकारात्मक है। तमिलनाडु के बाजारों, रेस्टोरेंट और मनोरंजन की दुनिया में हिंदी की मांग बढ़ रही है। आज तमिलनाडु का जन सामान्य हिंदी पठन पाठन को मातृभाषाओं के अपमान या निरादर से जोड़कर नहीं देखता। शोधार्थी हिंदी में पीएचडी की उपाधि ले रहे हैं। हिंदी फिल्में शौक से देखी जाती हैं। नौकरी, व्यापार और बाजार की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए वहां का युवा हिंदी पढ़ना चाहता है।

आज जब हिंदी वैश्विक दायरा बढ़ा रही है तब दक्षिण भारत का जन सामान्य हिंदी विरोधी आंदोलन को समर्थन देगा, इसमें संदेह है। वर्ष 2011 की जनगणना में भाषा के आंकडे़ देखें तो दक्षिण भारत में हिंदी बढ़ रही है। तमिलनाडु और केरल में किसी भी अन्य राज्य की तुलना में हिंदी भाषा को सर्वाधिक बढ़त मिली है। दक्षिण भारत में हिंदी बोलनेवालों की सर्वाधिक संख्या केरल और आंध्र प्रदेश में है। रामविलास शर्मा ने तमिलनाडु में हिंदी विरोधी नेताओं पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि यदि तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलन के नेता वास्तव में अपनी मातृभाषा से प्रेम करते हैं तो उन्हें सबसे पहले तमिल को शिक्षा का माध्यम बनाने के लिए संघर्ष करना चाहिए। संघर्ष हिंदी और भारतीय भाषाओं के बीच नहीं होना चाहिए, बल्कि हमारी लड़ाई अंग्रेजी के वर्चस्व, अंग्रेजी की संप्रभुता को चुनौती देने की होनी चाहिए। हिंदी और भारतीय भाषाओं के प्रचार प्रसार में अंग्रेजी अवरोध पैदा कर रही है। अपनी भाषा का व्यवहार करने वालों और अपनी मातृभाषा में शिक्षा र्अिजत करनेवालों की क्षमताओं को कम करके आंका जाए, यह आजाद भारत का दुर्भाग्य है।

[प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय]