नई दिल्ली [अनंत विजय[। भारतीय वायुसेना की महिला पॉयलट गुंजन सक्सेना पर बनी फिल्म पर विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। मामला दिल्ली हाईकोर्ट तक पहुंच गया है। रक्षा मंत्रालय और भारतीय वायुसेना ने दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर कर फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने की मांग की थी।

हाईकोर्ट ने नहीं माना। कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं से पूछा कि फिल्म के रिलीज होने के पहले वो अदालत क्यों नहीं आए? अब तो फिल्म की स्ट्रीमिंग नेटफिल्क्स पर हो रही है, ऐसे में उसको बीच में रोकना ठीक नहीं होगा। कोर्ट ने इस केस को एक बेहद ही दिलचस्प मोड़ भी दे दिया है।

उन्होंने इस केस में गुंजन सक्सेना को भी पार्टी बनाया और कहा कि कोर्ट उनसे सीधे जानना चाहेगी कि फिल्म पर जो आरोप लग रहे हैं वो सही हैं या गलत? दरअसल इस फिल्म पर आरोप है कि उसने वायुसेना के उस समय के माहौल को महिला विरोधी दिखाया है जिससे वायुसेना की छवि खराब हुई है।

वायुसेना का तर्क है कि किसी युद्ध के नायक या नायिकी पर बनाई गई फिल्म को बहुत अधिक काल्पनिक नहीं बनाया जा सकता है, उसका नाटकीय स्वरूप भी पेश करना उचित नहीं होगा। इस फिल्म के निर्माता धर्मा प्रोडक्शंस के वकील हरीश साल्वे ने अदालत में कहा कि ये गुंजन सक्सेना की जिंदगी से प्रेरित है। मतलब कि पूरे तौर पर उनकी जिंदगी पर आधारित नहीं है।

फिल्म के निर्माताओं पर ये भी आप है कि 2013 के रक्षा मंत्रालय के गाइडलाइंस के हिसाब से इस फिल्म को रिलीज करने के पहले रक्षा मंत्रालय की प्रीव्यू कमेटी को नहीं दिखाया गया। नेटफ्लिक्स ने दावा किया है कि फिल्म के रिलीज होने के पहले न केवल इसकी स्क्रिप्ट भारतीय वायुसेना को दी गई बल्कि इस वर्ष फरवरी में उनको फिल्म भी दिखाई गई थी। ये तो कानूनी दांवपेंच है जिसका निस्तारण अदालत से होगा। लेकिन इन कानूनी दावपेंच से कई प्रश्न उठ खड़े हुए हैं। फिल्म गुंजन सक्सेना, द कारगिल गर्ल को नेटफिल्कस पर दिखाया जा रहा है।

इस फिल्म का प्रदर्शन ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म पर बदली हुई परिस्थितियों में किया गया। कोरोना की वजह से सिनेमा हॉल के बंद होने की वजह से इसका प्रदर्शन ओटीटी पर हुआ अन्यथा ये सिनेमा हॉल में प्रदर्शित होती। सिनेमा हॉल में प्रदर्शन के लिए इस फिल्म ने केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से प्रमाण पत्र भी हासिल कर लिया था।

चूंकि ओटीटी पर फिल्मों के प्रसारण के लिए किसी भी तरह के प्रमाणन की आवश्यकता नहीं है इस वजह से जब नेटफ्लिक्स पर बगैर प्रमाणपत्र दिखाए इसका प्रसारण हुआ। अगर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने इस फिल्म को देखकर प्रमाणित किया तो फिर इसको लेकर आपत्ति कैसी? और अगर आपत्ति है तो सवाल उठता है कि क्या केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से इस फिल्म को प्रमाणित करने में चूक हुई?

इस फिल्म को प्रमाणित करने के पहले रक्षा मंत्रालय 2013 के गाइडलाइंस का ध्यान रखा गया या नहीं। सवाल तो ये भी उठता है कि रक्षा मंत्रालय के जो दिशा निर्देश हैं वो केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड पर लागू होते हैं या नहीं? क्या केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड उन गाइडलाइंस को मानने के लिए बाध्य है, क्योंकि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड हमारे देश में फिल्म प्रमाणन की वैधानिक संस्था है और ये सिनेमेटोग्राफ एक्ट से संचालित होती है।

संसद से पारित सिनेमेटोग्राफी एक्ट, 1952 के तहत सेंसर बोर्ड का गठन किया था। 1983 में इसका नाम बदलकर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड कर दिया गया । उसके बाद भी इस एक्ट के तहत समय समय पर सरकार गाइडलाइंस जारी करती रही है। फिल्म प्रमाणन के संबंध में सरकार ने आखिरी गाइडलाइंस 6 दिसबंर 1991 को जारी की थी जिसके आधार पर ही अबतक काम चल रहा है। इक्यानवे के बाद से हमारा समाज काफी बदल गया।

आर्थिक सुधारों की बयार और हाल के दिनों में इंटरनेट के फैलाव ने हमारे समाज में भी बहुत खुलापन ला दिया है। ओटीटी की बढ़ती लोकप्रियता ने फिल्मों के प्रदर्शन की पद्धति को ही बदल दिया है। बदले माहौल में जब हम करीब तीन दशक पुरानी गाइडलाइंस के आधार पर सर्टिफिकेट देंगे तो दिक्कतें तो पेश आएंगी। सिनेमेटोग्राफी एक्ट की धारा 5 बी (1) के मुताबिक किसी फिल्म को रिलीज करने का प्रमाण पत्र तभी दिया जा सकता है जब कि उससे भारत की सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता पर कोई आंच ना आए। मित्र राष्ट्रों के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी ना हो।

इसके अलावा तीन और शब्द हैं – सार्वजनिक शांति, शालीनता और नैतिकता का पालन होना चाहिए। अब इसमें सार्वजनिक शांति या कानून व्यवस्था तक तो ठीक है लेकिन शालीनता और नैतिकता की व्याख्या अलग अलग तरीके से की जाती रही है। हम अगर इस तरफ न भी जाएं तो इस बात को लेकर विचार तो अवश्य होना चाहिए कि संसद के पारित किसी कानून को किसी मंत्रालय के गाइडलाइंस से संशोधित किया जा सकता है।

रक्षा मंत्रालय 2013 के दिशा निर्देशों के मुताबिक अगर कोई फिल्म सेना पर बनाई जाती है तो उस प्रस्ताव को रक्षा मंत्रालय को भेजा जाना चाहिए। फिल्म की शूटिंग खत्म होने के बाद सेना की प्रीव्यू कमेटी को दिखाया जाना चाहिए। इस समिति में रक्षा मंत्रालय और सेना के अधिकारी होते हैं।

प्रीव्यू कमेटी से अनुमति मिलने के बाद फिल्म को रिलीज करने के पहले इसको रक्षा मंत्रालय के संयुक्त सचिव (सेना) की अनुमति भी चाहिए। फिल्म बनाने के पहले फिल्म निर्माताओं को ये जानकारी भी देनी होती है कि वो कब तक फिल्म की शूटिंग खत्म कर लेंगे और कब इसको रिलीज करेंगे। इसके अलावा फिल्म की संकल्पना, फिल्म बनाने का उद्देश्य और फिल्म की स्क्रिप्ट भी सेना को देने की अपेक्षा की गई है।

इसके अलावा भी फिल्मकारों से ये अपेक्षा की गई है कि वो फिल्म रिलीज कॉपी भी भारतीय सेना का उपलब्ध करवाएंगें। फिल्म निर्माताओं को सेना से संबंधित फिल्म बनाने और सेना के क्षेत्र में शूटिंग करने के लिए बहुत विस्तार से फॉर्म आदि भी भरने के अलावा अन्य औपचारिकताओं का भी प्रावधान है।

अरुण जेटली जब सूचना और प्रसारण मंत्री थी तो उन्होंने श्याम बेनेगल की अध्यक्षता में फिल्म प्रमाणन में सुधारों के लिए कमेटी बनाई थी। उस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी। बेनेगल कमेटी ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय को सेंसर बोर्ड के कामकाज के अलावा फिल्मों को दिए जानेवाले सर्टिफिकेट की प्रक्रिया में बदलाव की सिफारिश की थी।

बेनेगल कमेटी ने सुझाव दिया था कि प्रमाणन बोर्ड सिर्फ फिल्मों के वर्गीकरण का काम करे। फिल्म को देखे और उसको किस तरह के यू, ए या फिर यूए सर्टिफिकेट दिया जाना चाहिए, इसका फैसला करे। बेनेगल कमेटी ने ये सिफारिश भी की थी कि फिल्मकार स्वयं बताए कि उनको अपनी फिल्म के लिए किस श्रेणी का प्रमाण पत्र चाहिए। लेकिन इस कमेटी की सिफारिशें लागू नहीं हो सकीं।

अब ओटीटी के बाद तो स्थितियां काफी बदल गई हैं और नए सिरे सिनेमैटोग्राफिक एक्ट में बदलाव की आवश्यकता महसूस हो रही है। इसमें सेना और उससे जुड़ी घटनाओं के चित्रण से लेकर अन्य सभी बिंदुओं पर विचार कर उसको एक्ट में शामिल करना चाहिए।

ओटीटी पर दिखाए जानेवाले कटेंट को भी इसके दायरे में लाने पर विचार किया जा सकता है। अगर ओटीटी पर दिखाई जानेवाली सामग्री के प्रमाणन की जिम्मेदारी भी केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को दी जाती है तो इसके लिए बोर्ड को अपने संसाधन बढ़ाने होंगे ताकि फिल्म और वेब सीरीज निर्माताओं को मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़े।