[ तरुण गुप्त ]: पाकिस्तान के प्रधानमंत्री पद की शपथ लेकर इमरान खान ने अपना एक और सपना पूरा कर लिया। उनके नेतृत्व को लेकर पाकिस्तान के लोगों की राय कुछ भी हो, भारत में कम से कम राजनीतिक वर्ग को उनसे बहुत उम्मीदें नहीं हैं। ऐसा विरले ही देखने को मिलता है कि किसी मसले पर विभिन्न दलों के भारतीय नेताओं की राय एक सी हो। प्रधानमंत्री के रूप में इमरान की ताजपोशी के पहले ही अधिकांश भारतीय नेताओं ने करीब-करीब एक स्वर में कहा कि इमरान का उभार पाकिस्तानी फौज की मेहरबानी से हुआ है। यह धारणा निराधार नहीं कि पाकिस्तानी सेना को इस पूर्व क्रिकेट कप्तान में एक लोकप्रिय, लेकिन आसानी से वश में किया जाने वाला प्रत्याशी दिखा। इस अंदेशे को नकारना मूर्खतापूर्ण ही होगा कि बतौर प्रधानमंत्री उनकी स्वायत्तता उनके पूर्ववर्तियों जितनी ही होगी।

यह भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में माना जा रहा है कि सेना की उन पर कड़ी बंदिशें होंगी, विशेषकर सुरक्षा और विदेश संबंधी मामलों में। इसके बाद भी अमनपसंद लोग शायद यह अटकल लगाना चाहते हैं कि क्या इमरान विविधता भरे स्वरों की नुमाइंदगी का माद्दा दिखाएंगे? ऐसा हो या न हो, लेकिन एक झगड़ालू पड़ोसी देश की सरकार के प्रमुख को कसौटी पर तो कसा ही जाना चाहिए। 

इमरान खान की गिनती दुनिया के प्रतिभाशाली क्रिकेटरों में की जाती रही है, लेकिन आंकड़े उन्हें करिश्माई खिलाड़ी साबित करते हैं। वह एक ऐसे कप्तान थे जिन्होंने अनगढ़ हीरे जैसे खिलाड़ियों को तराशकर निरंतर उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाली टीम में तब्दील किया। क्रिकेट के मैदान पर वह जुझारू, भाग्यशाली और ऐसे खिलाड़ी थे जिनकी धमक महसूस होती थी। वह एक दशक तक पाक क्रिकेट के सर्वेसर्वा रहे- वही कप्तान, वही कोच, वही मार्गदर्शक और वही चयनकर्ता।

क्रिकेट की पिच से विदाई के बाद सियासी मैदान में दस्तक देने से पहले उन्होंने अपनी मां के नाम पर एक कैंसर अस्पताल स्थापित कर परोपकारी शख्स के रूप में अपनी पहचान बनाई। यह अनुमान कुछ ज्यादा ही आसान होगा कि उनके पुराने रिकॉर्ड को देखते हुए वह अपनी नई भूमिका में भी पुरानी उपलब्धियों को दोहराने में सक्षम होंगे। पाकिस्तान में राजनीति क्रिकेट की 22 गज की पट्टी से ज्यादा दुरूह मानी जाती है। इमरान के व्यक्तित्व में विरोधाभास और अंतर्द्वंद दिखता है। एक ओर वह सौम्य, शिक्षित और लिबरल सेलेब्रिटी की पहचान रखते हैं तो दूसरी ओर मुस्लिम कट्टरपंथ की तरफदारी करने वाले शख्स के तौर पर भी जाने जाते हैैं। इसी कारण उन्हें तालिबान खान का तमगा मिला। यकीनन यह हैरान करने वाली तब्दीली रही, लेकिन ऐसा दोहरा रवैया राजनीति में हमेशा उपयोगी माना जाता है। अपने विजयी भाषण में इमरान ने भारत से संबंध सुधारने की इच्छा जताई, लेकिन इसकी अनदेखी कैसे करें कि वह कई मौकों पर यह कह चुके हैं कि कश्मीर दोनों देशों के बीच कलह का मुख्य मुद्दा बना हुआ है। इससे यह स्पष्ट है कि कश्मीर की उलझन सुलझाए बिना रिश्तों में सुधार नहीं हो सकता। 

यदि कश्मीर मुद्दे को विदेश नीति की जटिलताओं, भू-राजनीतिक निहितार्थों से परे हटकर सामान्य तर्कों के नजरिये से देखें तो शायद यह विवाद इतना पेचीदा नहीं होता। संयुक्त राष्ट्र के जिस प्रस्ताव में जनमत संग्रह की बात है उसी में यह भी शर्त है कि पहले पाकिस्तानी सेनाएं वहां से पीछे हटेंगी। 1948 के बाद से ऐसा नहीं हो सका तो अब तो यह और भी दूर की कौड़ी है। अब जनता की राय लेने के लिए आप वक्त की सुई को 70 साल पहले नहीं ले जा सकते। आखिर कश्मीर के भारत में विलय को लेकर सवाल उठाने वाला पाकिस्तान इस तथ्य की अनदेखी क्यों करता है कि कश्मीर में भारत का विलय उसी ब्रिटिश कानून के तहत हुआ जिसके आधार पर भारत से अलग होकर पाकिस्तान का निर्माण हुआ? कश्मीर की हकीकत भांपने के लिए इमरान के पास बौद्धिक समझ तो हो सकती है, लेकिन शायद उनके पास ऐसी क्षमता नहीं कि वह अपने लोगों को भी उसे समझा सकें। अगर वह पाकिस्तानी फौज के मूर्खतापूर्ण ढंग से जोर देने पर कश्मीर पर जनमत संग्रह की तोता रटंत लगाए रहेंगे तो सुलह की कोई राह नहीं दिखेगी। 

शुरुआती संकेत बहुत उम्मीदें नहीं जगाते। इमरान ऐसे कई सवालों से दो-चार हैैं कि क्या वह उन आतंकी तत्वों पर लगाम लगाकर पाकिस्तान को उनकी ऐशगाह बनने से रोक पाएंगे जो भारत समेत दुनिया भर में आतंकी गतिविधियों को अंजाम देते हैं? अगर कश्मीर उनके लिए सनक है तो हमारे लिए सीमा-पार आतंकवाद, मुख्य मसला है। जब तक 1993 के बम धमाकों, 26/11 के आतंकी हमलों और ऐसे ही अन्य वीभत्स अपराधों के दोषियों के मामले में इंसाफ नहीं होता और आतंकियों की घुसपैठ के साथ संघर्ष विराम का उल्लंघन बंद नहीं होता तब तक भारत के लिए पाकिस्तान से संवाद शायद संभव नहीं होगा। इस मोर्चे पर नतीजे सेना के साथ इमरान के संबंधों पर निर्भर होंगे।

व्यापक तौर पर उन्हें फौज की कठपुतली माना जा रहा है, लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान में उन्हें बहुत लोकप्रियता और सम्मान हासिल है। वह ऐसे देश के नायक हैं जहां वास्तविक नायकों का अकाल है। यदि उन्हें पाकिस्तानी सेना का बेजा समर्थन हासिल है तो उनके पास लोकप्रिय जनादेश की ताकत भी है। वह गर्वीले लड़ाकों वाले उस पठान तबके से ताल्लुक रखते हैं जिनके बारे में माना जाता है कि उपमहाद्वीप में केवल वही थे जिनसे अंग्रेज भी पार नहीं पा पाए थे। 

एक बार अपने हमवतन आक्रामक खिलाड़ी जावेद मियांदाद पर चुटकी लेते हुए इमरान ने कहा था कि लगता है कि वह क्रमिक विकास को दरकिनार करते हुए ही इतने बड़े हो गए हैं। यह उनके लिए भले ही हास-परिहास रहा हो, लेकिन भारतीयों के साथ-साथ दुनिया भर की क्रिकेट बिरादरी ने इस चुटीले बयान में सच्चाई ही देखी। आज अधिकांश सभ्य और लोकतांत्रिक समाज का मानना है कि पाकिस्तानी फौज, आइएसआइ और आतंकी समूहों की दुरभिसंधि भी क्रमिक विकास की प्रक्रिया से अछूती ही रही।

क्या इमरान खान सेना की खुशामद और आज्ञापालन में ही लगे रहेंगे या फिर उनके भीतर का कप्तान और पठान चुनौती को स्वीकार करेगा? स्वाभाविक रूप से इसकी संभावनाएं क्षीण ही हैं, लेकिन प्रगति और शांति के लिए उम्मीद करते हैं कि वह एक स्टेट्समैन के रूप में उभरें। पाकिस्तान के पिटारे से निकली वह शायद आखिरी उम्मीद हैं।

लोग यही चाहते हैं कि पाकिस्तान पिछले दरवाजे से शासन कर रहे लोगों यानी फौजी अफसरों को पीछे कर अपने सही स्वरूप में उभरकर आए-बिल्कुल वैसे जैसे सामान्य लोकतंत्रों में होता है। चीजें आगे कैसे आकार लेंगी, यह भविष्य के गर्भ में है, लेकिन अगर इमरान खान हालात को ठीक नहीं कर सकते तो फिर शायद ही कोई कर पाए। इस बार वह कहीं ज्यादा बड़ी चुनौती यानी अपनी ही सेना के समक्ष गेंदबाजी कर रहे हैं। क्या उनमें अभी भी रिवर्स स्विंग का दमखम बचा है?

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रबंध संपादक हैं ]