[डॉ. भरत झुनझुनवाला]

इन्फ्रास्ट्रक्चर लीजिंग एंड फाइनेंशियल सर्विसेज यानी आइएलएंडएफएस एक विशालकाय कंपनी है। इस कंपनी के मुख्य शेयरधारक भारतीय जीवन बीमा निगम, भारतीय स्टेट बैंक और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया हैं। ये तीनों ही सरकारी उपक्रम हैं। आइएलएंडएफएस द्वारा बाजार से 91 हजार करोड़ रुपये का भारी-भरकम कर्ज लिया गया। इस धन का उपयोग कंपनी ने सड़कें, सुरंग, पुल और बिजली संयंत्र जैसी बुनियादी सुविधाओं के निर्माण में किया, लेकिन कंपनी संकट में फंस गई और इस ऋण की अदायगी नहीं कर पाई। इस ऋण को लेने में भी कंपनी ने चतुराई की। इसे ऐसे समझते हैं कि मान लीजिए आपके पास 25 हजार रुपये की पूंजी है। आपने इस पूंजी को दिखाकर बैंक से 75 हजार रुपये का कर्ज ले लिया। इस तरह आपके पास एक लाख रुपया हो गया। इस एक लाख रुपये को आपने फिक्स डिपॉजिट करा दिया और फिर इस फिक्स डिपॉजिट को दिखाकर दूसरे बैंक से तीन लाख रुपये का कर्ज ले लिया। फिर इस तीन लाख रुपये का फिक्स डिपॉजिट कराया और तीसरे बैंक से 9 लाख रुपये का कर्ज ले लिया। इस प्रकार आपने 25 हजार की पूंजी पर लगभग 12 लाख रुपये का कर्ज ले लिया। बैंकों द्वारा सामान्य रूप से ऋण पूंजी अनुपात 3:1 रखा जाता है यानी 25 हजार रुपये की पूंजी पर बैंक अधिकतम 75 हजार रुपये का कर्ज देते हैं। इस दृष्टि से 12 लाख रुपये के कर्ज पर आइएलएंडएफएस को तीन लाख रुपये की पूंजी उपलब्ध करानी थी, लेकिन अपनी तिकड़म से आइएलएंडएफएस ने मात्र 25 हजार की पूंजी पर 12 लाख रुपये का कर्ज ले लिया। बैंकों द्वारा ऋण पूंजी अनुपात 3:1 इसलिए रखा जाता है कि यदि कंपनी घाटे में आ गई तो पहले उसकी अपनी पूंजी का सफाया होगा और घाटे के बावजूद कर्ज की वसूली की जा सकेगी। इस काल्पनिक मामले में 12 लाख रुपये के कर्ज को 25 हजार रुपये की पूंजी पर लेने से कर्ज की सुरक्षा नहीं रह गई। यही आइएलएंडएफएस के संकट का मूल कारण है।

आइएलएंडएफएस के अधिकारियों का कहना है कि सरकारी उपक्रमों पर उनका हजारों करोड़ रुपया बकाया है। सरकार द्वारा यह भुगतान न किए जाने के कारण आइएलएंडएफएस संकट में आ गई। आइएलएंडएफएस का यह कहना सही है, लेकिन मूल रूप से अपनी क्षमता से अधिक कर्ज लेने के कारण यह कंपनी संकट में फंसी है। वित्तीय जगत में लोग इससे वाकिफ थे कि यह कंपनी अपनी क्षमता से अधिक कर्ज ले रही है। आइएलएंडएफएस के पूर्व निदेशक एवं मारुति सुजूकी के चेयरमैन आरसी भार्गव ने एक साक्षात्कार में इसकी तस्दीक भी की है कि सभी को मालूम था एक दिन आइएलएंडएफएस संकट में फंसेगी। प्रश्न है कि आइएलएंडएफएस की यह तिकड़म समय रहते सरकार और जनता को क्यों नहीं बताई जा सकी? लगता है कि एलआइसी, एसबीआइ और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के अधिकारियों ने भी यह छिपाया कि आइएलएंडएफएस ने अपनी क्षमता से अधिक कर्ज ले रखा है। इसका प्रमाण यह है कि जब आइएलएंडएफएस पर संकट के बादल मंडराने शुरू हुए तो उसके अध्यक्ष रवि पार्थसारथी ने इस्तीफा दे दिया। फिर एलआइसी के प्रबंध निदेशक हेमंत भार्गव इसके अध्यक्ष बने।

उन्होंने भी शीघ्र ही इस्तीफा दे दिया। इसके बाद एलआइसी के पूर्व प्रमुख एसबी माथुर को इसकी कमान सौंपी गई। इस घटनाक्रम से पता चलता है कि एलआइसी पूरे मामले पर नजर बनाए हुई थी, लेकिन उसने भी इस स्थिति को सार्वजनिक नहीं किया। यह भी माना जा सकता है कि वित्त मंत्रलय को भी इसकी भनक लग ही गई होगी। इस संकट के गहराने के पीछे दूसरी भूमिका कंपनी के स्वतंत्र निदेशकों की है। हमारे कानून में व्यवस्था है कि मालिक या प्रवर्तकों के अतिरिक्त कुछ स्वतंत्र निदेशक कंपनी के बोर्ड में शामिल किए जाएंगे। इन निदेशकों की जिम्मेदारी है कि वे कंपनी के कार्यकलापों पर नजर रखें और जनता और शेयरधारकों को वस्तुस्थिति से अवगत कराएं। इस मामले में स्वतंत्र निदेशक भी चुप्पी साधे रहे। तीसरी भूमिका रेटिंग एजेंसियों की थी। इन एजेंसियों ने संकट आने तक आइएलएंडएफएस को ए-1 की रेटिंग दे रखी थी। फिर एक महीने के भीतर ही उसकी रेटिंग घटाकर जंक स्तर पर ले आए। रेटिंग एजेंसियां अपनी भूमिका के साथ न्याय नहीं कर पाईं। एक तरह से यह संकट कंपनी के मालिकों, स्वतंत्र निदेशकों और रेटिंग एजेंसियों के लापरवाह रवैये का परिणाम है।

आइएलएंडएफएस संकट का अर्थव्यवस्था से भी संबंध है। यदि आइएलएंडएफएस ने अपनी क्षमता से अधिक कर्ज ले भी लिया तो उसकी अदायगी क्यों नहीं हो सकी? यदि उससे सड़क बनाई और उस सड़क से कमाई हुई तो फिर भुगतान तो किया ही जा सकता था। लगता है कि आइएलएंडएफएस द्वारा जो बुनियादी ढांचा बनाया गया उससे अपेक्षित आमदनी नहीं हो पाई और इसी कारण कंपनी संकट में पड़ गई। देखना होगा कि बुनियादी ढांचे से आय क्यों नहीं हुई? अर्थव्यवस्था इस समय बड़े शहरों और बड़ी कंपनियों द्वारा ही बढ़ रही है। उन्हें देश के विस्तृत इलाके में बुनियादी ढांचे की खास आवश्यकता नहीं है। जैसे बेंगलुरु के सॉफ्टवेयर पार्क से यदि देश को आय हो रही है तो उसके लिए जम्मू से कश्मीर तक बनाई गई सुरंग का कोई अर्थ नहीं रह जाता। उस सुरंग से आय तभी होगी जब जम्मू-कश्मीर में अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी।

चूंकि देश की अर्थव्यवस्था प्रमुख शहरों में सिमट रही है इसीलिए देश के विस्तृत इलाके में बुनियादी ढांचे का जाल बिछाने का जो प्रयास सरकार कर रही है उससे अपेक्षित राजस्व प्राप्त नहीं हो रहा है। जैसे वर्तमान में बिजली कंपनियों की हालत खस्ता है, क्योंकि बिजली की मांग कम है। कारण यह है कि हमारा आर्थिक विकास मूलत: बड़े शहरों की चुनिंदा कंपनियों पर टिका हुआ है जबकि शेष देश की अर्थव्यवस्था उतनी गतिशील नहीं है। अर्थव्यवस्था का केंद्रीयकरण भी आइएलएंडएफएस संकट का एक प्रमुख कारण है। देश के विस्तृत भू भाग में बुनियादी ढांचे की विशेष जरूरत नहीं रह गई है। उसे बनाने में जो निवेश किया जा रहा है उससे अपेक्षित राजस्व नहीं मिल रहा है। अपनी क्षमता से अधिक कर्ज उठाना भी आइएलएंडएफएस के लिए आफत बन गया। ऐसे में सरकार को चाहिए कि अर्थव्यवस्था को शहरों में केंद्रित करने के स्थान पर पूरे देश में उसका विस्तार करने के लिए एक उपयुक्त रणनीति बनाए।

इस मामले में एलआइसी, स्वतंत्र निदेशकों और रेटिंग एजेंसियों द्वारा जो हीलाहवाली की गई, उससे निपटने के लिए कुछ संस्थागत उपाय किए जाएं। आइएलएंडएफएस संकट का असर हम और आप पर भी पड़ेगा। आपने जो रकम म्यूचुअल फंड अथवा जीवन बीमा पॉलिसी में लगा रखी है उस रकम को आइएलएंडएफएस बांड में लगाया गया है। आइएलएंडएफएस के डूबने के साथ आपकी इस रकम पर भी संकट आ सकता है। इस लिहाज से यह मसला आम आदमी से भी जुड़ा हुआ है। भविष्य में ऐसे संकट की पुनरावृत्ति न हो इसके लिए कुछ कारगर कदम उठाने होंगे।

(लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बेंगलूर के पूर्व प्रोफेसर हैं)