[रिजवान अंसारी]। IIT council हाल ही में आइआइटी काउंसिल की 53वीं बैठक में कई अहम फैसले लिए गए। इन सभी फैसलों में एक फैसला खासा चर्चा में है। इसके मुताबिक आइआइटी अध्ययन में ‘कमजोर छात्रों’ को तीन साल बाद सम्मानपूर्वक ढंग से संस्थान छोड़ने की अनुमति देगी। इस नई व्यवस्था में कमजोर छात्रों को बीच में पढ़ाई छोड़ने पर बीएससी की डिग्री या फिर डिप्लोमा दिया जाएगा। मौजूदा वक्त में जो व्यवस्था है उसमें अगर कोई विद्यार्थी सही परफॉर्म नहीं कर रहा है तो उस स्थिति में उसे बीच में ही पढ़ाई छोड़नी होती है।

23 आइआइटी संस्थान

जाहिर है कि छात्र का पिछला समय बर्बाद हो जाता है, लेकिन नई व्यवस्था में छात्र की पिछली मेहनत बेकार नहीं जाएगी और वह सम्मानपूर्वक बीएससी की डिग्री या डिप्लोमा ले सकेगा। दूसरे शब्दों में कहें तो कोई भी विद्यार्थी अब चार साल की बीटेक डिग्री की जगह तीन साल की बीएसएसी डिग्री या डिप्लोमा लेकर आइआइटी से विदाई पा सकता है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की मानें तो पिछले दो वर्षों में देश भर के 23 आइआइटी संस्थानों में 2,461 छात्र अपना कोर्स पूरा नहीं कर पाए और उन्हें पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी। ऐसी और भी कई खबरें हम लगातार अखबारों में पढ़ते रहते हैं। आइआइटी कानपुर द्वारा खराब ग्रेड के आधार पर इस साल 18 छात्रों को निकाले जाने की खबर इसी का एक पहलू है।

हर साल 13,500 छात्र इन संस्थानों में लेते हैं दाखिला

गौरतलब है कि आइआइटी में पढ़ना ज्यादातर छात्रों का सपना होता है। हालांकि उसके लिए प्रवेश परीक्षा को पास करना बेहद ही कठिन होता है, लेकिन विडंबना तो देखिए कि जी तोड़ मेहनत कर आइआइटी में दाखिला लेने के बाद भी कोर्स को मुकम्मल करना कई छात्रों के लिए मुश्किल हो जाता है। हालांकि इसके लिए आइआइटी की पढ़ाई के तरीकों को दोष नहीं दिया जा सकता। गौर करें तो हर साल लगभग 13,500 छात्र इन संस्थानों में दाखिला लेते हैं। पिछले दो वर्षों में 27 हजार छात्रों ने दाखिला लिया होगा। ऐसे में अगर पढ़ाई बीच में छोड़ने वाले छात्रों (2,461) का फीसद 10 से भी कम है तो इसका साफ मतलब है कि कुछ ऐसे छात्र भी चयनित होकर आ जाते हैं जो आइआइटी सरीखे संस्थानों के स्टैंडर्ड के काबिल नहीं होते।

क्या आइआइटी की चयन प्रक्रिया में कोई दोष है?

फिर सवाल है कि क्या आइआइटी की चयन प्रक्रिया में कोई दोष है? यह मामूली समझ की बात है कि वस्तुनिष्ठ (ऑब्जेक्टिव) प्रश्न की परीक्षा प्रणाली एक ऐसी प्रणाली है जिसमें अनमने ढंग से विकल्प को चुन कर भी परीक्षा पास की जा सकती है। और इस तरीके से कोई भी कमजोर छात्र मेरिट लिस्ट में अपना नाम दर्ज करवा सकता है। सिविल सेवा में भी इस परीक्षा प्रणाली को अपनाया गया है, लेकिन यह प्रणाली केवल पहले चरण में अपनाई जाती है, जिसका मकसद अवांछित छात्रों की छंटनी करना है। दूसरे चरण में लिखित परीक्षा ली जाती है जिसमें उम्मीदवारों के ज्ञान की असली परख होती है। जाहिर है कि इस व्यवस्था में ‘अयोग्य’ उम्मादवारों के चयन की संभावना बेहद कम रहती है।

नई कोशिश को किस रूप में देखा जाना चाहिए? 

फिर सवाल है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय की इस नई कोशिश को किस रूप में देखा जाना चाहिए? दरअसल सरकार की इस पहल पर शक करने की कोई वजह नजर नहीं आती। सरकार अपने इस कदम से कमजोर छात्रों के साथ खड़ी नजर आ रही है। गौर करें तो सरकार का यह कदम एक तीर से दो निशाना साधने जैसा है और दोनों ही सकारात्मक हैं। पहला तो यह कि अब डिग्री कोर्स में प्रवेश ले चुके छात्रों के समय को बर्बाद होने से बचाया जा सकेगा और उन्हें एक डिग्री के साथ घर भेजा जा सकेगा। इससे न केवल छात्र दूसरे संस्थानों में दाखिला लेने के लिए भटकने से बच सकेंगे, बल्कि आइआइटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों की डिग्री से भी वे वंचित नहीं रह सकेंगे।

बुनियादी स्तर पर देखी जा रही कमी

दूसरा यह कि बीच में पढ़ाई छोड़ कर चले जाने से विद्यार्थियों पर खर्च किए जा चुके संसाधनों की बर्बादी होती है। यकीनन तीन वर्षीय बीएससी की डिग्री देने से संसाधनों की बर्बादी में कमी आएगी। हालांकि सरकार ने इस बाबत यह पहल जरूर की है, लेकिन सरकार को एक कदम और आगे जाकर सोचने की जरूरत है। अमूमन देश में शिक्षा प्रणाली और उसकी गुणवत्ता को लेकर बहस चलती रहती है, लेकिन यह कम ही देखने और सुनने को मिलता है कि शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर कोई ठोस पहल की गई हो। इसकी एक बानगी 14 वर्षों तक के बच्चों के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा और फिर मिड-डे-मील योजना में देखी जा सकती है।

यहां सरकार घर-घर तक शिक्षा पहुंचाने के लिए तमाम कोशिशें कर रही है। व्यापक पैमाने पर पैसे खर्चे जा रहे हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर शिक्षा की गुणवत्ता की कितनी फिक्र की जा रही है? आए दिन सरकारी विद्यालयों में शिक्षकों की अयोग्यता को बयान करने वाले वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे होते हैं। यकीनन इसमें बुनियादी स्तर पर ही कमी देखी जा रही है। शिक्षकों के चयन की प्रक्रिया ही त्रुटिपूर्ण है।

कुछ कड़े कदम उठाने होंगे

इसी तरह सरकार को आइआइटी संस्थानों में भी चयन की प्रक्रिया को इतनी मजबूत बनाने की जरूरत है कि ‘कमजोर छात्रों’ के लिए कोई जगह न बन सके। इसके लिए दूसरे चरण की परीक्षा को लिखित रूप में लिए जाने की जरूरत है। जाहिर है कि उम्मीदवार प्रवेश परीक्षा से पहले लिखित रूप में सवालों को हल करने का अभ्यास करेंगे जो कोर्स के दौरान पढ़ाई में भी उनके लिए सहायक सिद्ध होगा। यह समझने की जरूरत है कि कोर्स के दौरान भी विद्यार्थियों को लिखित रूप में ही सेमेस्टर की परीक्षाएं देनी होती हैं। हालांकि यह सच है कि लिखित परीक्षा लेने में सरकार के खर्चे बढ़ जाएंगे। दूसरे चरण में भी लाखों की संख्या में छात्र होते हैं, लेकिन अगर गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं करना है तो कुछ कड़े कदम उठाने ही होंगे।

यह समझने की जरूरत है कि कमजोर छात्रों को बीएससी की डिग्री देना भी गुणवत्ता से समझौता न करने का ही संकेत है। फिर कुछ कमजोर छात्रों के लिए आइआइटी की पढ़ाई को आसान न बनाना भी इसी का उदाहरण है। अन्यथा आसान बनाने से कमजोर छात्र भी कोर्स में बने रहने के लिए जरूरी अंक ले ही आएंगे, लेकिन ऐसा नहीं किया गया है। इसलिए जब इस स्तर पर गुणवत्ता से समझौता करना सरकार और प्रबंधन को मंजूर नहीं है तो प्रवेश परीक्षा के स्तर पर गुणवत्ता से समझौता करना भी मुनासिब नहीं है। बहरहाल सरकार को इस बिंदु पर भी फिक्रमंद होने की जरूरत है।

[स्वतंत्र टिप्पणीकार]