Analysis : सस्ते पेट्रोल-डीजल की उम्मीद नहीं
अगर सरकार पेट्रोल और डीजल के दाम को बढ़ने से रोकती है तो किसी न किसी को उसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा
[विवेक कौल]। दूसरा विश्वयुद्ध खत्म होने से कुछ समय पहले दुनिया के तमाम देश एक कांफ्रेंस में न्यू हैंपशायर, अमेरिका में मिले। इस कांफ्रेंस में सभी देश मिलकर एक नई अंतरराष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली का आगाज करना चाहते थे। आखिरकार ऐसा ही हुआ भी। इस प्रणाली के केंद्र में अमेरिकी डॉलर को रखा गया। ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि अमेरिका डॉलर को सोने में बदलने के लिए तैयार था। बाकी देशों के पास उस समय इतना सोना नहीं था, जितना अमेरिका के पास था। इस प्रणाली को ब्रेटन वुड्स सिस्टम के नाम से जाना गया। इस प्रणाली की वजह से अंतरराष्ट्रीय व्यापार धीरे- धीरे ब्रिटिश पाउंड से हटकर अमेरिकी डॉलर की तरफ चलता चला गया। सभी देश ऐसी मुद्रा में अंतरराष्ट्रीय व्यापार करना चाहते थे जिसे सोने में बदला जा सके। अमेरिकी डॉलर एकमात्र ऐसी मुद्रा थी। 1945 की शुरुआत में अमेरिकी राष्ट्रपति फैंकलिन रूजवेल्ट सऊदी अरब के बादशाह इब्न साऊद से मिलने गए।
अमेरिका उस समय विश्व में सबसे ज्यादा तेल उत्पादित करने वाला देश था, पर देश के अंदर तेल की मांग बढ़ रही थी और विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद और भी ज्यादा बढ़ने वाली थी। रूजवेल्ट इस बात को अच्छी तरह से समझते थे। सऊदी अरब के पास विश्व में सबसे ज्यादा तेल का भंडार था। रूजवेल्ट चाहते थे कि अमेरिका तेल आपूर्ति के लिए एक और स्नोत सुरक्षित कर ले। यह स्नोत था सऊदी अरब। रूजवेल्ट ने इब्न साऊद को तेल के बदले में मिलिट्री गारंटी दी। आप यह सोच रहे होंगे कि मैं भी कहां इतिहास का पाठ लेकर बैठ गया, लेकिन इतिहास का यह पाठ यह समझने के लिए बेहद जरूरी है कि विश्व भर में कच्चा तेल क्यों अमेरिकी डॉलर में बेचा जाता है। एक तो ब्रेटन वुड्स सिस्टम ने अमेरिकी डॉलर को अंतरराष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली के बीचों-बीच रख दिया और दूसरा सऊदी अरब को तेल के बदले अमेरिका ने मिलिट्री गारंटी दी। सऊदी अरब ओपेक (तेल उत्पादक देशों का संघ) का नेता बन कर उभरा। इन दोनों वजहों से कच्चा तेल अंतरराष्ट्रीय बाजार में अमेरिकी डॉलर में बिकता है।
भारत में जितनी पेट्रोलियम उत्पादों की खपत होती है उतना कच्चे तेल का उत्पादन नहीं होता। इसकी वजह से भारत को तेल बाहर के देशों से खरीदना पड़ता है। 2011-2012 में जितनी तेल की भारत में खपत हुई थी, उसका करीब तीन-चौथाई हिस्सा आयात करना पड़ा था। 2017-2018 में यह बढ़कर 82.8 प्रतिशत तक पहुंच गया था और इस वित्तीय वर्ष के पहले पांच महीनों (अप्रैल से अगस्त 2018) में यह और भी बढ़कर 83.2 प्रतिशत तक पहुंच गया। इसका मतलब यह हुआ कि हर साल भारत और भी ज्यादा तेल का आयात करता है। जब तेल के दाम ठीक-ठाक होते हैं (यानी 60 डॉलर प्रति बैरल से कम) तब कोई दिक्कत नहीं होती है, लेकिन जब तेल के दाम चढ़ते हैं तब ज्यादा अमेरिकी डॉलर की जरूरत पड़ती है। तेल खरीदने के लिए रुपये बेच कर डॉलर खरीदे जाते हैं। इससे रुपये के मुकाबले डॉलर की मांग बढ़ती है और रुपये का मूल्य डॉलर के मुकाबले गिरता है। ऐसा ही पिछले कुछ महीनों से हो रहा है।
तेल के दाम का पूर्वानुमान लगाना बहुत ही मुश्किल काम है। इसके बावजूद हम कुछ कारकों पर नजर डाल सकते हैं। अमेरिका ने ईरान पर प्रतिबंध लगाए हैं। ये प्रतिबंध 4 नवंबर, 2018 से लागू होंगे। अमेरिका ने बाकी देशों को ईरान के साथ व्यापार करने से मना किया है। इसकी वजह से तेल के दाम और भी बढ़ सकते हैं। पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान का बयान आया है कि नवंबर के बाद भी भारत ईरान से तेल का आयात करता रहेगा। इस आयात का भुगतान भारत रुपये में करेगा। अगर ऐसा हुआ तो इससे भारत को थोड़ी कम तकलीफ होगी।
ओपेक देशों ने यह साफ कर दिया है कि वे अभी कच्चे तेल का उत्पादन बढ़ाने का इरादा नहीं रखते हैं। इन दोनों वजहों से यह कहा जा सकता है कि विश्व में तेल की आपूर्ति की चिंता बनी रहेगी और इस तरह आने वाले कुछ महीनो में कच्चे तेल के दाम गिरने वाले नहीं। जब मई 2014 में, नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली तब कच्चे तेल का दाम करीब 107 डॉलर प्रति बैरल चल रहा था। फिर उसके दाम गिरने शुरू हुए और जनवरी 2016 में करीब ़28 डॉलर प्रति बैरल तक आ गए। मोदी सरकार ने गिरते हुए दाम का फायदा पूरी तरह से उपभोक्ता तक नहीं पहुंचने दिया और पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क बढ़ा दिया। 2014-2015 में केंद्रीय सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों पर लगाए गए उत्पाद शुल्क के जरिये 99,069 करोड़ रुपये कमाये थे। 2017-2018 में यह बढ़ कर 2,28,907 करोड़ रुपये हो गया। कई राज्य सरकारों ने भी पेट्रोल और डीजल पर बिक्री कर यानी वैट बढ़ा कर राजस्व कमाया। 2014-2015 में राज्य सरकारों ने 1,37,517 करोड़ रुपये कमाए थे। 2017-2018 में यह बढ़ कर 1,84,091 करोड़ रुपये हो गया।
चूंकि केंद्रीय सरकार और राज्य सरकारों, दोनों ने तेल के गिरते दाम का फायदा उठाया इसलिए अब जब तेल के दाम बढ़ रहे हैं तो उपभोक्ता को थोड़ी राहत देनी चाहिए। केंद्रीय सरकार ने अभी हाल में पेट्रोल और डीजल, दोनों पर उत्पाद शुल्क डेढ़ रुपये कम किया। तेल विपणन कंपनियों ने भी अपनी तरफ से 1 रुपये प्रति लीटर दाम में कटौती की। इसके अलावा कई राज्य सरकारों ने भी अपनी-अपनी टैक्स की दरें कम कीं, लेकिन अब देखना यह है कि फायदा कितने दिन मिलता रहता है? मुंबई में 4 अक्टूबर को दाम में कटौती से पहले पेट्रोल का दाम 91.34 प्रति लीटर था।
अगले दिन केंद्रीय और राज्य सरकार दोनों के टैक्स कम करने के बाद दाम 86.97 प्रति लीटर हो गया, लेकिन 9 अक्टूबर को यह बढ़ कर 87.73 प्रति लीटर पर पहुंच गया। अगर रुपये का मूल्य डॉलर के मुकाबले गिरता रहा और कच्चे तेल का दाम अंतरराष्ट्रीय बाजार में बढ़ता रहा या फिर अभी के स्तर पर बना रहा तो भारत में पेट्रोल और डीजल का दाम बढ़ता रहेगा। चूंकि कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं तो ऐसे में केंद्रीय सरकार और राज्य सरकारें नहीं चाहेगी कि पेट्रोल और डीजल के असली दाम उपभोक्ता तक पहुंचें। इसके लिए उन्हें उत्पाद शुल्क की दरें और भी कम करनी पड़ सकती हैं, पर प्रश्न यह है कि इसकी भरपाई कहां से होगी? सरकार अपना खर्चा कम करेगी? यह थोड़ा मुश्किल लगता है, क्योंकि अगले साल लोकसभा चुनाव है।
एक तरकीब है, जो पिछले साल आजमायी जा चुकी है, वह इस साल भी काम आ सकती है। पिछले साल सरकार ने हिंदुस्तान पेट्रोलियम में अपना हिस्सा ओएनजीसी को बेचा था। एक सरकारी कंपनी ने दूसरी सरकारी कंपनी को खरीदा था। इससे सरकार को पैसे मिले थे। इसी तरह की तिकड़म इस बार भी आजमाई जा सकती है। भारतीय जीवन बीमा निगम को भी कुछ सरकारी कंपनियों के शेयर बेचे जा सकते हैं। आगे क्या होगा, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन यह तय है कि अगर सरकार पेट्रोल और डीजल के दाम को बढ़ने से रोकती है तो किसी न किसी को उसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा।
(लेखक इजी मनी ट्राइलॉजी के रचनाकार
और आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)