[ सुरेंद्र किशोर ]: मन का दाग मिटाने की जगह सिर्फ कायापलट की कोशिश से कांग्रेस का कोई कल्याण होता नजर नहीं आ रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद एंटनी कमेटी ने कांग्रेस आलाकमान को एक तरह से ‘आत्मा की बैटरी चार्ज करने’ की सलाह दी थी। मगर पिछले पांच वर्षों में आलाकमान ने उस पर कोई ध्यान ही नहीं दिया। हालिया आम चुनाव में हार के बाद भी पार्टी पर कोई फर्क नहीं पड़ा। आज भी कांग्रेस यह समझ रही है कि पार्टी के शीर्ष पर राहुल गांधी के अलावा किसी अन्य को बैठा देने और कार्यकर्ताओं को उनकी तथाकथित अकर्मण्यता के लिए फटकार लगाने से काम चल जाएगा। इससे कांग्रेस का काम नहीं चलेगा। मुद्दों के ईंधन के बिना वंशवाद की गाड़ी भी अधिक दिनों तक नहीं चल सकती।

कांग्रेस की गिरती लगातार सेहत

कांग्रेस 1984 के बाद कभी लोकसभा में पूर्ण बहुमत नहीं पा सकी तो आलाकमान को इसके कारण तलाशने होंगे, परंतु क्या पार्टी ने अपने भीतर कभी झांकने का प्रयास किया? क्या पार्टी के सलाहकारों ने कभी आलाकमान को यह सलाह देने की हिम्मत जुटाई। शायद नहीं। वहीं अधिकांश राजनीतिक पंडित कांग्रेस की लगातार गिरती सेहत के असली कारणों को नहीं समझ पा रहे हैं। एके एंटनी को इसकी समझ जरूर रही है। यदि खुली छूट के साथ उन्हें नेतृत्व सौंपा जाता तो फर्क पड़ सकता था, पर संभवत: उन्हें भी लगता है कि परिवार के आधार पर चल रही पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से उन्हें वैसी छूट नहीं मिलेगी, क्योंकि दाग चेहरे पर हैं, लेकिन नेतृत्व आईना साफ करने में जुटा है।

एंटनी की रिपोर्ट पर ध्यान नहीं दिया

कहा जा रहा है कि स्वास्थ्य कारणों से एंटनी ने राहुल गांधी के स्थान पर अध्यक्ष पद संभालने में अपनी असमर्थता प्रकट की, मगर यह भी संभव है कि उन्होंने सोचा हो कि जब पार्टी की नीतियां हमारे हिसाब से नहीं चलेंगी तो पार्टी के नेतृत्व पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। पांच साल पहले अपनी रिपोर्ट में एंटनी ने स्पष्ट रूप से कहा था कि पार्टी की हार इस धारणा की वजह से हुई जिसमें लोगों को लगता है कि कांग्रेस का झुकाव अल्पसंख्यकों की ओर है। इसीलिए बहुसंख्यकों का झुकाव भाजपा की ओर हुआ। एंटनी के अनुसार भ्रष्टाचार, मुद्रास्फीति और अनुशासनहीनता हार के अन्य कारण थे। जब कांग्रेस आलाकमान ने एंटनी की सलाह पर ध्यान तक नहीं दिया तो सवाल उठता है कि कांग्रेस के कायाकल्प की कितनी गुंजाइश बची हुई है?

1969 में मुद्दों के जरिये कांग्रेस को मिली थी चुनावी सफलता

कम से कम दो अवसरों पर कांग्रेस नेतृत्व ने मुद्दों के जरिये पार्टी को चुनावी सफलता के शीर्ष पर पहुंचा दिया था। ये मुद्दे बाद में नकली साबित हुए, पंरतु तात्कालिक तौर पर उन्होंने अपना असर जरूर दिखाया। 1969 में कांग्रेस में हुए विभाजन के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार अल्पमत में आ गई थी। वह कम्युनिस्ट पार्टियों और द्रमुक की मदद से सरकार चला रही थीं।

इंदिरा का ‘गरीबी हटाओ’ का नारा

इंदिरा गांधी और उनके नेतृत्व वाली कांग्रेस का भविष्य अनिश्चित हो चुका था, लेकिन इंदिरा गांधी ने साहस के साथ ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया। उनकी सरकार ने 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर यह धारणा बनाई कि निजी बैंक गरीबी हटाने की राह में बाधक हैं, क्योंकि वे गरीबों को कर्ज नहीं देते। इसके साथ ही उन्होंने राजाओं के प्रिवीपर्स और विशेषाधिकार खत्म किए। कालांतर में ये कदम लाभकारी नहीं रहे, लेकिन तब गरीबों को यही लगा कि इंदिरा गांधी हमारे लिए काम कर रही हैं। नतीजतन 1971 के लोकसभा चुनाव और 1972 के विधानसभा चुनावों में इंदिरा कांग्रेस ने भारी सफलता हासिल की जबकि मूल कांग्रेस के अधिकांश दिग्गज पुराने धड़े में ही बने हुए थे। तब मुद्दों के दम पर ही इंदिरा गांधी ने मैदान फतह किया था। आज जब मुद्दे नहीं हैं तो प्रियंका गांधी चुनावी हार के लिए कार्यकर्ताओं को फटकार रही हैं।

राजीव गांधी की छवि ‘मिस्टर क्लीन’ की थी

संजय गांधी के निधन के बाद जब राजीव गांधी को पार्टी का महासचिव बनाया गया तो उनकी छवि ‘मिस्टर क्लीन’ की थी। उनकी पहल पर ही देश के तीन विवादास्पद कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को हटाया गया। इंदिरा की हत्या से उपजी सहानुभूति के साथ-साथ राजीव गांधी की स्वच्छ छवि भी 1984 में कांग्रेस की अभूतपूर्व जीत का कारण बनी।

भ्रष्टाचार और गरीबी के लिए कांग्रेस जिम्मेदार

आज कांग्रेस के शीर्ष परिवार के साथ-साथ अनेक बड़े नेताओं की एक खास तरह की छवि बन चुकी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल में कहा था कि भ्रष्टाचार और गरीबी के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार मानते हुए लोगों ने उसे ‘बेल गाड़ी’ कहना शुरू कर दिया है। पार्टी में प्रथम परिवार के सदस्य भ्रष्टाचार के मुकदमों के कारण बेल यानी जमानत पर हैं।

कांग्रेस नेतृत्व को लोकलुभावन नारा गढ़ना तक नहीं आता

2014 की शर्मनाक चुनावी पराजय के बाद 2019 में तो कांग्रेस को 18 प्रदेशों और केंद्रशासित राज्यों में लोकसभा की एक भी सीट नहीं मिली। मान लिया कि कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व को इंदिरा गांधी की तरह कोई लोकलुभावन नारा गढ़ना तक नहीं आता, परंतु वह एंटनी कमेटी की सलाह मानकर अपनी बेहतरी की कोशिश कर सकती थी। भले ही केंद्र में कांग्रेस की सरकार नहीं है, लेकिन राज्यों में अपनी सरकारों के जरिये वह यह साबित करने की कोशिश कर सकती थी कि उस पर भ्रष्टाचार का आरोप सही नहीं है। इसके उलट मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार पर कुछ ही महीनों के कार्यकाल में एक बड़े घोटाले का आरोप लग गया।

कांग्रेस के गलत व्यवहार से हुआ भाजपा को लाभ

वर्ष 2014 की हार के बाद कांग्रेस में नई जान फूंकने के लिए आठ सूत्रीय सुझाव के साथ शशि थरूर ने एक लेख लिखा था। उसमें एक सूत्र यह भी था कि कांग्रेस ‘भाजपा को राष्ट्रवाद पर एकाधिकार कायम न करने दे।’ मगर पुलवामा, बालाकोट, र्रोंहग्या घुसपैठ आदि मामलों में कांग्रेस का व्यवहार ऐसा रहा जिससे भाजपा को ही लाभ मिल गया।

मोदी की स्वच्छ छवि को खराब करने की कोशिश

लगता है कांग्रेस नरेंद्र मोदी सरकार के अलोकप्रिय होने के इंतजार में जुटी है। उसे यह वास्तविकता समझ नहीं आ रही कि मोदी पूर्णकालिक राजनेता हैं। उनके पास सरकार भी है। उन्हें जनहित में पहल करने और फैसले लेने की सुविधा है। मोदी की छवि व्यक्तिगत रूप से एक ईमानदार नेता की है। चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी ने कहा था कि ‘मैं मोदी की छवि तहस-नहस कर दूंगा और मैंने ऐसा करना शुरू भी कर दिया है।’ ऐसी ही गलतफहमियां राहुल गांधी और उनकी पार्टी के लिए लगातार नुकसानदेह साबित हुईं। उन्हें समझ नहीं आया कि जिसकी छवि स्वच्छ है उसे कोई खराब कैसे कर सकता है?

जिम्मेदार और मजबूत विपक्ष जरूरी

स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जिम्मेदार और मजबूत विपक्ष जरूरी है, पर यदि कांग्रेस और उसके नेता इसी तरह गैर जिम्मेदाराना व्यवहार करते रहे तो उससे खुद कांग्रेस और लोकतंत्र का कोई भला नहीं होने वाला। क्या यह मामूली बात है कि जब किसी प्रदेश कांग्रेस कमेटी में कोई आंतरिक झगड़ा होता है और उसे सुलझाने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष की जरूरत पड़ती है तो पता चलता है कि वह व्यस्त हैैं या विदेश में छुट्टी मना रहे हैं।

कांग्रेस में जिम्मेदारी की भावना का अभाव

दूसरी ओर प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष ने एक दिन की छुट्टी नहीं ली। यदि कांग्रेस में जिम्मेदारी की भावना विकसित नहीं हुई तो अगले चुनाव में भाजपा इस बार से भी अधिक सीटें पा सकती है।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )

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