नई दिल्ली [ ए. सूर्यप्रकाश ]। संसदीय गतिरोध कई वर्षों से भारतीय लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय बना हुआ है, लेकिन हाल में संसदीय कार्यवाही का स्तर इतनी गहरी गर्त में चला गया कि उसे संदेह की दृष्टि से देखने वाले बड़े से बड़े आलोचक ने भी इसकी कल्पना नहीं की होगी। इसकी मिसाल केवल बीते 16-17 दिन से संसद का न चलना ही नहीं, बल्कि यह भी है कि बजट बिना चर्चा के ही पारित हो गया। आम बजट चार चरणों में पारित होता आया है। इसके लिए हर साल मध्य फरवरी से मई के मध्य तक बजट सत्र आहूत होता है जिसमें एक अंतराल भी रहता है। वित्त मंत्री द्वारा बजट प्रस्ताव पेश करने के बाद उस पर चर्चा के लिए कई दिन आवंटित किए जाते हैं। इसके बाद विभिन्न मंत्रालयों की अनुदान मांगों पर चर्चा होती है।

पहले इस कवायद से सांसदों को किसी विशेष मंत्रालय के कामकाज पर अपने विचार रखने का अवसर मिलता था और कई बार यह सिलसिला हफ्तों तक खिंच जाता था। अनुदान मांगों पर मतदान के बाद सदन विनियोग विधेयक पर चर्चा के साथ उसे पारित करता है। सबसे अंत में सरकार के वित्तीय प्रस्तावों वाले वित्त विधेयक को गहन चर्चा के बाद पारित किया जाता है। बीते कई दशकों में स्थापित हुई परंपराएं केवल दोनों सदनों को सक्रिय रखने के लिए ही नहीं बनी हैं, बल्कि एक महत्वपूर्ण संसदीय कर्तव्य को पूरा करने के लिहाज से भी महत्वपूर्ण हैं।

संविधान ने संसद को एक बेहद अहम दायित्व सौंपा है कि वह केंद्र सरकार के व्यय एवं कराधान प्रस्तावों का बारीकी से मूल्यांकन करे। अनुच्छेद 112 से 119 में केंद्र सरकार के वार्षिक वित्तीय ब्योरे से जुड़ी प्रक्रियाओं का उल्लेख है जिनमें अनुदान मांगों और व्यय के लिए संसद की अनुमति लेने के लिए सरकार द्वारा अपनाए जाने वाले तरीकों, अनुपूरक मांगों और लेखानुदान के लिए प्रावधान शामिल हैं। इस प्रकार बजट पेश किए जाने से लेकर विनियोग विधेयक और वित्त विधेयक को मंजूरी मिलने तक सांसदों को कम से कम चार मौके मिलते हैं कि वे सरकार के व्यय और कराधान प्रस्तावों पर विचार-विमर्श कर सकें। एमएन कौल और एसएल शंखधर द्वारा तैयार ‘संसद की प्रक्रिया एवं संचालन’ में प्रकाशित एक तालिका में 1986-87 में रेल बजट, आम बजट और अनुदान मांगों पर सदन में हुई बहस से जुड़े दिलचस्प आंकड़े दिए गए हैं।

उस साल लोकसभा में रेल बजट और रेलवे की अनुदान मांगों पर 19 घंटे बहस हुई तो आम बजट पर 20 घंटे और विभिन्न मंत्रालयों की अनुदान मांगों पर 92 घंटे बहस हुई। कुल मिलाकर बजट के विभिन्न पहलुओं पर सदन में तकरीबन 130 घंटे चर्चा हुई। इसी तरह वर्ष 1986-87 में समूची बजट कवायद पर दिया गया समय दर्शाता है कि वर्ष 1952 से दोनों सदनों के अस्तित्व में आने के बाद से जनप्रतिनिधि कैसे अपने दायित्वों का निर्वहन करते रहे। अब जरा इस साल की बजट कवायद से इसकी तुलना की जाए। एक फरवरी को आम बजट पेश होने के बाद 7 और 8 फरवरी को उस पर हुई बहस केवल लगभग 12 घंटे ही चल पाई। फिर परंपरा अनुसार दोनों सदन स्थगित कर दिए गए और विभिन्न मंत्रालयों की अनुदान संबंधी मांगों की समीक्षा के लिए उन्हें संबंधित स्थाई समितियों के पास भेज दिया गया।

पांच मार्च से दोनों सदनों की बैठक फिर शुरू हुई, लेकिन तब से ही वहां अलग-अलग राजनीतिक दलों के सांसदों के गतिरोध के कारण कार्यवाही सुचारू रूप से नहीं चल पाई है। आंध्र प्रदेश के सांसद जहां राज्य के लिए विशेष दर्जे की मांग को लेकर गतिरोध पैदा कर रहे हैं तो तमिलनाडु के सांसद एक प्रतिमा को नुकसान पहुंचने पर रोष जताते रहे। इसके अतिरिक्त अन्य दलों के सांसद भी अलग-अलग मसले उठाते रहे और उनकी आड़ में संसद को एक तरह से बंधक बनाए रहे। इस अफरातफरी और सांसदों की ओर से बजट पर चर्चा के कोई संकेत नहीं मिलने के बाद स्पीकर ने 14 मार्च को सदन में अनुदान मांगों, विनियोग विधेयक और वित्त विधेयक पर मतदान का फैसला किया। उस दिन स्पीकर ने 12 बजकर 3 मिनट पर अनुदान मांगों को सामने रखा। पहले तो उन्होंने सभी कटौती प्रस्तावों को मतदान के लिए रखा। ये प्रस्ताव अमूमन विपक्षी सांसदों द्वारा दिए जाते हैं जिसमें वे किसी विशेष मांग पर अपनी नाखुशी जाहिर करते हैं। चूंकि इनमें एक तरह का आलोचना भाव ही होता है तो यह सत्ता पक्ष का यह दायित्व हो जाता है कि वह इन प्रस्तावों को मात दे।

स्पीकर ने इस सभी प्रस्तावों को एकमुश्त ही पेश कर दिया और वे खारिज भी हो गए। 12 बजकर 4 मिनट पर स्पीकर ने एलान किया कि वह सभी अनुदान मांगों को सदन के समक्ष मतदान के लिए रख रही हैं। सदन ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। 12 बजकर 5 मिनट पर वित्त मंत्री अरुण जेटली ने विनियोग विधेयक सदन में रखा। सदन ने उसके प्रत्येक पहलू के आधार पर उसे पारित कर दिया। 12 बजकर 6 मिनट पर वित्त मंत्री ने वित्त विधेयक रखा। इसमें अन्य विधेयकों की तुलना में कुछ अधिक समय लगा, क्योंकि इसमें 21 सरकारी संशोधनों और तीन नए प्रावधानों को जोड़ना था। इसके बाद बजट संबंधी अन्य प्रक्रियाओं को निपटाने के बाद सदन को 12 बजकर 38 मिनट पर स्थगित कर दिया गया। इस तरह सब कुछ आनन-फानन हो गया। इस पर गौर किया जाना चाहिए कि सभी सरकारी मंत्रालयों और विभागों की मांगों को मंजूरी देने में लोकसभा ने महज एक मिनट लगाया जबकि अतीत में इसके लिए 80 से 100 घंटे तक लगते थे।

इस दौरान अच्छी-खासी बहस होती थी, लेकिन इस बार लोकसभा में बजट पारित कराने की संसदीय कवायद में कुल 12 घंटे और 35 मिनट ही लगे। एक समय इन सभी गतिविधियों को पूरा करने में 130 घंटे तक लग जाते थे। इसका अर्थ यही है कि संविधान ने संसद को जो एक प्रमुख संवैधानिक दायित्व सौंपा है यह उससे विमुख हो रही है। 14 मार्च की घटनाएं और भी ज्यादा विचलित करने वाली हैं, क्योंकि पहले कम से कम 40 प्रतिशत मांगों पर संसद में चर्चा हुआ करती थी। दस साल पहले यह आंकड़ा सिमटकर 25 प्रतिशत रह गया। इस साल एक भी मांग पर चर्चा नहीं हुई जबकि इस साल सरकार का अनुमानित बजट खर्च 24.42 लाख करोड़ रुपये है।

हालांकि राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू और लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन ने सदस्यों से सदन चलाने में सहयोग की अपील की, लेकिन इसमें भी कोई खास सफलता नहीं मिली। नायडू ने इस पर कुपित होकर सांसदों को चेताया कि अगर वे इसी तरह गतिरोध पैदा करते रहे तो जनता का जनप्रतिनिधियों में भरोसा खत्म हो जाएगा। अगर संसद के पास ही केंद्रीय बजट की जांच-परख के लिए समय और उत्साह की कमी है तो फिर उसके लिए अपने अस्तित्व और खुद के लिए आवंटित भारी-भरकम राशि को जायज ठहराना मुश्किल होगा। क्या विवेक बुद्धि असर दिखाएगी? हम यही उम्मीद कर सकते हैं।

(लेखक प्रसार भारती के चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)