[ विवेक कौल ]: अब यह मानने में कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि देश आर्थिक सुस्ती के दौर से गुजर रहा है। ऐसे में एक प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यन ने पिछले महीने कहा था कि निवेश आर्थिक विकास और उपभोग का प्रमुख संचालक है। यहां तर्क सीधा है। निवेश से रोजगार सृजित होते हैं। ये नौकरियां लोगों को आय प्रदान करती हैं। लोग इस पैसे को खर्च करते हैं और यह उपभोग को बढ़ावा देता है। इससे अन्य लोगों को भी आय अर्जित करने में मदद मिलती है। ये लोग भी पैसा खर्च करके खपत के लिए एक और विकल्प प्रदान करते हैं। इस तरह से यह पूरा चक्र काम करते हुए आर्थिक गतिविधियों को गति देता है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में बहुत कम निवेश हो रहा

समस्या यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में बहुत कम निवेश हो रहा है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी का डाटा बताता है कि अप्रैल से जून 2019 की अवधि के दौरान घोषित नई परियोजनाओं का स्तर 15 साल में सबसे निचले स्तर पर आ गया। अगर जुलाई से सितंबर 2019 के बीच के आंकड़ों पर गौर करें तो स्थिति में थोड़ा सा सुधार तो जरूर हुआ है, लेकिन यह न के बराबर यानी नाकाफी ही कहा जाएगा।

निवेश-जीडीपी अनुपात 28-29 फीसद पर स्थिर

वर्ष 2007-2008 में 35.8 प्रतिशत के उच्च स्तर पर पहुंचने के बाद, पिछले चार वर्षों से निवेश एवं सकल घरेलू उत्पाद का अनुपात (निवेश-जीडीपी अनुपात) 28-29 प्रतिशत पर स्थिर रहा है। निवेश में ऐसी सुस्ती को देखते हुए आय पहले की तरह नहीं बढ़ रही है। यदि हम 2004 और 2014 के बीच प्रति व्यक्ति आय देखें तो यह प्रत्येक वर्ष में दो अंकों में बढ़ी थी। वर्ष 2016-2017 को छोड़कर इसकी वृद्धि एकल अंक में सिमट गई है। इस दौरान केवल 2016-2017 में ही प्रति व्यक्ति आय 10.2 प्रतिशत बढ़ी थी।

ग्रामीण मजदूरी में बढ़ोतरी एकल अंक में

यदि हम पुरुषों के लिए ग्रामीण मजदूरी के बढ़ने की दर को देखें तो यह 2008-2009 और 2014-2015 के बीच बड़े पैमाने पर उछली थी। 2013-2014 में मजदूरी दर में तकरीबन 28 फीसद तेजी आई। तब से इसमें बढ़ोतरी एकल अंक में रह गई है। वर्ष 2018-19 में यह केवल 3.8 प्रतिशत की दर से बढ़ी। यह दर केवल निवेश की कमी से ही नहीं गिरी है। जब महिला श्रमिकों की बात आती है तो 2008-2009 और 2014-2015 के बीच ग्रामीण मजदूरी में भारी वृद्धि हुई। 2013-2014 में मजदूरी 25.3 प्रतिशत बढ़ी थी। तब से 2018-2019 के दौरान मजदूरी दर में बढ़ोतरी एकल अंक में हुई है। वर्ष 2018-2019 में मजदूरी में वृद्धि महज छह प्रतिशत रही थी। यह कम खाद्य मुद्रास्फीति का दूसरा पक्ष है। आखिर इस स्थिति से बाहर निकलने का क्या तरीका है?

अधिक निवेश की आवश्यकता

इसमें संदेह नहीं कि भारतीय अर्थव्यवस्था को अधिक निवेश की आवश्यकता है, मगर समस्या यह है कारोबारी तभी निवेश करते हैं जब उन्हें मुनाफे की उम्मीद दिखती है। फिलहाल पस्त पड़ी उपभोक्ता मांग के चलते कारोबारियों को ऐसा महसूस नहीं हो रहा। इसके अलावा भारतीय कारोबारी अभी भी अपनी मौजूदा उत्पादन क्षमता का पूरी तरह उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। इस परिदृश्य में उनके निवेश और विस्तार करने की संभावना कम है।

कई कारोबारी कर्ज चुकाने के लिए संघर्ष कर रहे

कई कारोबारी कर्ज चुकाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इसीलिए और अधिक कर्ज लेकर निवेश और विस्तार करना फिलहाल उनके बस की बात नहीं दिखती। निवेश को प्रोत्साहित करना जरूरी है, मगर हाल-फिलहाल यह अधिक महत्वपूर्ण है कि उपभोक्ता मांग को कैसे पटरी पर लाया जाए? जब तक उपभोक्ता मांग में वृद्धि नहीं होगी तब तक अधिकांश निजी कंपनियां निवेश करने से हिचकती रहेंगी। इसलिए अगर सरकार ने कॉरपोरेट कर की दर में कटौती के बजाय व्यक्तिगत आयकर में कटौती की होती तो जरूर कुछ बात बनती।

कॉरपोरेट कर कटौती में यह तय नहीं कि कंपनियां कीमत में कटौती करेंगी या नहीं

कॉरपोरेट करों में कटौती के समर्थन में एक तर्क यह दिया गया कि उपभोक्ताओं को आकर्षित करने के लिए कंपनियां कीमतों में कटौती करेंगी। चलिए इस विकल्प की तुलना व्यक्तिगत आयकर में कटौती के विकल्प से करते हैं। यदि व्यक्तिगत आयकर में कटौती होती तो बचत सीधे उपभोक्ता के हाथों में जाती और फिर वे यह तय कर सकते कि इसके साथ क्या करना है? मसलन इसे खर्च करना है या बचाना है? कॉरपोरेट कर कटौती के मामले में यह तय नहीं है कि कंपनियां अपने सामान या सेवाओं की कीमत में कटौती करेंगी या नहीं? चूंकि उपभोक्ता अपने खर्च का निर्णय करने के लिए कंपनियों के अगले कदम पर निर्भर हैं, इसलिए यह देखना होगा कि उपभोक्ता खर्च बढ़ाने के लिए कौन सा विकल्प बेहतर है।

जीएसटी का सरलीकरण उपभोग को प्रोत्साहित करेगा

नि:संदेह वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी का सरलीकरण भी उपभोग को प्रोत्साहित करेगा। इससे खासतौर से छोटे कारोबारियों को भी बहुत मदद मिलेगी। यह भी मशविरा दिया जा रहा है कि सरकार को ही अपना खर्च बढ़ाना चाहिए। भारतीय संदर्भ में फिलहाल यह सलाह कैसे लागू हो सकती है, इस पर भी गौर करते हैं। 2017-2018 और 2018-2019 में कुल सरकारी व्यय क्रमश: 15 प्रतिशत और 9.3 प्रतिशत रहा। यह आंकड़ा मुद्रास्फीति समायोजन के साथ है। इसी अवधि में भारतीय अर्थव्यवस्था क्रमश: 7.2 प्रतिशत और 6.8 प्रतिशत की दर से आगे बढ़ी। यदि हम अप्रैल और जून 2019 के बीच देखें तो भारतीय अर्थव्यवस्था में पांच प्रतिशत की वृद्धि हुई, निजी उपभोग व्यय में केवल 3.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि सरकारी व्यय में 8.9 प्रतिशत का इजाफा हुआ। स्पष्ट है कि पिछले कुछ वर्षों में सरकारी व्यय ने ही विकास को गति दी है यानी आर्थिक विकास को गति देने के लिए सरकार पहले ही बहुत पैसा खर्च कर रही है।

कर संग्रह के मोर्चे पर तस्वीर बहुत अच्छी नहीं

अगर सरकार और भी ज्यादा खर्च करती है तो उसे और अधिक उधार लेना पड़ेगा, क्योंकि कर संग्रह के मोर्चे पर तस्वीर बहुत अच्छी नहीं लग रही है। अप्रैल और अगस्त 2019 के बीच सकल कर राजस्व में केवल 4.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। सरकार ने बजट में जितने खर्च के लिए प्रावधान किया है उसकी पूर्ति के लिए राजस्व में 18.3 प्रतिशत की वृद्धि करनी होगी। अगर सरकार ज्यादा उधार लेगी तो ब्याज दरें भी ऊपर जा सकती हैं। यहां एक तरीका यह हो सकता है कि सरकारी कंपनियों और उनकी जमीनों को तेजी से बेचा जाए और उस पैसे को राष्ट्रीय निवेश कोष में डाला जाए। फिर इसका उपयोग बुनियादी ढांचे के विस्तार में लगाया जाए। यह सब कहना आसान है, लेकिन इसे मूर्त रूप देना उतना ही मुश्किल। सरकारी कंपनियों के जल्द विनिवेश का अर्थ यथास्थिति को बदलना होगा और इतिहास गवाह है कि सरकारें ऐसा करने से बचती रही हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था की गाड़ी का पहिया इसी गड्ढे में अटका हुआ है। इससे बाहर निकलना आसान नहीं होगा।

( स्तंभकार अर्थशास्त्री एवं इजी मनी ट्राइलॉजी के लेखक हैं )