[ प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल ]: इधर एक अर्से से विनायक दामोदर सावरकर बहस के केंद्र में हैैं। उन्हें लेकर बहस का सिलसिला तब और तेज हुआ जब राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर उनका उपहास उड़ाते हुए उन्हें अंग्रेजों से डरने और उनसे माफी मांगने वाला करार दिया। उन्होंने ऐसा इसके बावजूद किया कि खुद उनकी दादी यानी इंदिरा गांधी ने सावरकर के सम्मान में डाक टिकट जारी किया था।

सावरकर के योगदान की सराहना कांग्रेसी नेता भी करते हैैं

आजादी की लड़ाई में सावरकर के योगदान की सराहना अन्य अनेक कांग्रेसी नेता भी करते रहे हैैं। हाल में अभिषेक मनु सिंघवी और यहां तक कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी किया। यह बात और है कि इसके पहले राजस्थान की कांग्रेस सरकार ने सावरकर को पाठ्यक्रम से हटाने का फैसला कर लिया था। सावरकर को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में क्रांतिधर्मी लोगों के आलोक में ही समझा जा सकता है।

‘1857 का भारत का स्वातंत्र्य समर’ प्रकाशित होने के पहले ही प्रतिबंध लग गया था

उन्हें समझने के लिए आवश्यक है कि सबसे पहले उनकी किताब ‘1857 का भारत का स्वातंत्र्य समर’ को समझा जाए। ‘यह शायद दुनिया की पहली ऐसी किताब है जो प्रकाशित होने के पहले ही प्रतिबंधित की गई। उपासना पद्धतियों से परे और राष्ट्रीयता पर आधारित भारत की स्वतंत्रता का सिद्धांत यदि किसी किताब में सबसे पहले प्रतिपादित किया गया तो ‘1857 का भारत का स्वातंत्र्य समर’ में। इस किताब ने 1857 के संग्राम में जो हजारों लोग बागियों के रूप में मारे गए उन्हें वास्तविक पहचान दिलाई। यह किताब सावरकर की डेढ़ वर्ष की शोध साधना का प्रतिफल थी।

1857 का सिपाही विद्रोह दरअसल भारतीय स्वातंत्र्य समर था

सावरकर लंदन की ब्रिटिश म्यूजियम लाइब्रेरी और इंडिया आफिस लाइब्रेरी में 1857 संबंधी दस्तावेजों और ब्रितानियों के लेखन में डूबे रहे और अंतत: इस पुस्तक के रूप में इस सत्य का संधान किया कि 1857 का सिपाही विद्रोह दरअसल भारतीय स्वातंत्र्य समर था। जब अंग्रेजों को पता चला कि सावरकर की यह किताब छपने वाली है तो उन्होंने उसके प्रकाशन के पहले ही उस पर प्रतिबंध की असामान्य घोषणा कर दी। इस पर सावरकर ने द टाइम्स में संपादक के नाम पत्र लिखा कि ब्रिटिश अधिकारियों ने स्वीकार किया है कि वे निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि मेरी पुस्तक अभी छपी है या नहीं? यदि ऐसा है तो सरकार ने यह कैसे जान लिया कि वह पुस्तक भयावह राजद्रोहात्मक है?

1909 में सावरकर की पुस्तक का अंग्रेजी संस्करण गोपनीय ढंग से छपी

द टाइम्स ने सावरकर के उस पत्र को न सिर्फ छापा, बल्कि अपनी तरफ से यह टिप्पणी भी जोड़ दी कि यदि ऐसा असाधारण कदम उठाया गया है तो निश्चित ही दाल में कुछ काला है। 1909 में सावरकर की इस पुस्तक का अंग्रेजी संस्करण गोपनीय ढंग से छप गया। अगले साल उसका फ्रेंच अनुवाद भी छपा। फ्रांसीसी क्रांतिकारी पिरियोन ने उसके प्राक्कथन में लिखा कि यह एक महाकाव्य और देशभक्ति का दिशा बोध है।

1910 में सावरकर गिरफ्तार किए गए

1910 में सावरकर गिरफ्तार किए गए। उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला। उन्हें 50 वर्ष लंबे कारावास की सजा सुनाई गई। उन्हें जेल में भीषण यातानाएं दी गईं। सावरकर पहले क्रांतिकारी थे जिन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा दो बार आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। वह पहले भारतीय नागरिक थे जिन पर हेग के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में मुकदमा चला।

रास बिहारी बोस तो सावरकर को अपना गुरु मानते थे

सावरकर की किताब के प्रथम गुप्त संस्करण से लेकर 1947 में खुले यानी पहले कानूनी प्रकाशन के बीच के वर्षों में न जाने कितने गोपनीय संस्करण छपे। भगत सिंह के क्रांतिकारी दल ने भी उसका एक संस्करण छापा। भगत सिंह सावरकर के प्रशंसक थे। सुभाष चंद्र बोस भी सावरकर के प्रति असीम आदर रखते थे और स्वतंत्रता प्राप्ति की उनकी रणनीति से सहमत थे। रास बिहारी बोस तो सावरकर को अपना गुरु ही मानते थे। सावरकर को जानने और समझने के लिए यह भी जरूरी है कि उनकी रणनीति को समझा जाए।

सावरकर ने तीन बार माफी मांगी थी

सावरकर ने माफी मांगी। एक बार नहीं तीन बार, लेकिन इसे नीर-क्षीर ढंग से देखना होगा कि सावरकर हर बार माफी मांग करके जेल से बाहर आते थे तो करते क्या थे? वह बाहर आकर रणनीतिक तौर पर अपने को मजबूत करते थे। उनका मानना था कि जेल में सड़ने से बेहतर है किसी तरह बाहर आकर देश की आजादी के लिए लड़ना। उनकी इस रणनीति को कायरता बताना हास्यास्पद है। सावरकर मानते थे कि जब तक गोवा और दमन दीव गुलाम है तब तक भारत की आजादी अधूरी है। उन्होंने गोवा की आजादी के लिए आंदोलन खड़ा करने पर जोर दिया। अक्सर लोग पूछते हैैं कि सावरकर का गांधी की हत्या से साथ क्या संबंध था? वे यह भूल जाते हैैं कि न्याय व्यवस्था ने उन्हें गांधी की हत्या में शामिल होने के आरोप से मुक्त किया था।

महान लोगों के ऊपर कीचड़ उछालने की आदत

यदि सावरकर के बारे में उड़ने वाली अफवाहों पर चर्चा होगी तो गांधी के बारे में भी पूछना पड़ेगा और नेहरू के बारे में भी सोचना पड़ेगा? कितनी विडंबना है कि इस देश के महान लोगों के ऊपर कीचड़ उछालने की एक आदत सी बनती जा रही है। सावरकर और गांधी, दोनों हिंदू जीवन दृष्टि को प्रतिपादित करने वाले विचारक थे। सावरकर पूरे जीवन गांधी से मुश्किल से तीन बार मिले। यह सत्य है कि सावरकर और गांधी में वैचारिक मतभेद थे, लेकिन इन मतभेदों के कारण सावरकर को लांछित करने का कोई मतलब नहीं। सावरकर की आलोचना करने वाले यह भूल जाते हैैं कि यातना का जीवन जीते हुए भी यदि किसी में भारत की आजादी का दृढ़ संकल्प कूट-कूट कर भरा था तो वह सावरकर थे। सावरकर मूलत: एक ऐसे क्रांतिकारी थे जो साम्राज्यवाद का विरोध करते थे, लेकिन उन्होंने साम्राज्यवादियों के व्यवहार तंत्र और तकनीक को अपनी आवश्यकता के अनुसार स्वीकार करने में कभी परहेज नहीं किया। वह स्वतंत्रता सेनानी के साथ ही तर्कशास्त्री के तौर पर भी जाने जाते थे।

अभिनव भारत की स्थापना

1896 में इंग्लैंड जाने के पहले ही सावरकर ने भारत में अभिनव भारत नाम की संस्था की स्थापना की थी। इसी अभिनव भारत के माध्यम से उन्होंने इंग्लैंड में श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा स्थापित इंडिया हाउस को अपनी क्रांति साधना का केंद्र बनाया और मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए व्याकुल नौजवानों का संगठन खड़ा किया। उन्होंने अंग्रेजों की जमीन से ही अंग्रेजी साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष शुरू किया। संदर्भहीन बातों और अफवाहों के आधार पर सावरकर की आलोचना करने वाले यह समझें तो बेहतर कि उनके त्याग, बलिदान और अदम्य पराक्रम का और उनकी भारतीय इतिहास दृष्टि का महत्व कभी कम नहीं हो सकता।

( लेखक दर्शनशास्त्री एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति हैं )