[ हर्ष वी पंत ]: जो बिडेन ने कमला हैरिस को उपराष्ट्रपति पद की उम्मीदवार बनाकर नीरस अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव को दिलचस्प बना दिया है। कैलिर्फोिनया की सीनेटर हैरिस एक वक्त खुद राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी में बिडेन की प्रतिद्वंद्वी रह चुकी हैं। यह निश्चित ही ऐतिहासिक पड़ाव है जहां किसी बड़ी पार्टी द्वारा उपराष्ट्रपति पद की प्रत्याशी बनाई जाने वाली कमला हैरिस पहली अश्वेत और एशियाई अमेरिकी महिला हैं। पुलिस द्वारा जॉर्ज फ्लायड की हत्या के बाद हुए राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन जब चुनावी बयार को प्रभावित कर रहते दिख रहे थे तब डेमोक्रेट्स के लिए महत्वपूर्ण था कि वे अफ्रीकी अमेरिकी समुदाय में अपनी पैठ बढ़ाएं। हैरिस के नामांकन के साथ उम्मीद है कि यह तबका बिडेन के पीछे एकजुट होगा।

अश्वेत मतदाताओं की अहमियत बढ़ी

अश्वेत मतदाताओं की अहमियत न केवल मिशिगन, पेंसिलवेनिया और विस्कॉन्सिन जैसे कांटे की टक्कर वाले राज्यों में बढ़ेगी, बल्कि जार्जिया और फ्लोरिडा जैसे रिपब्लिकन झुकाव वाले राज्यों में भी ऐसा होने के आसार हैं। हैरिस युवा मतदाताओं से जुड़ाव में भी मददगार होंगी जिनकी आकांक्षाएं शायद 77 वर्षीय बिडेन उतने बेहतर तरीके से न व्यक्त कर पाएं। उम्र के इस पहलू ने इन अटकलों को भी बल दिया है कि बिडेन एक ही कार्यकाल पूरा कर सकेंगे और 2024 के लिए हैरिस राष्ट्रपति की संभावित दावेदार हो सकती हैं। जो भी हो, बिडेन ने इस फैसले से अपने आधार को ऊर्जा से भर दिया है।

वर्षों के राजनीतिक सफर में कमला हैरिस ने भारत के साथ कोई खास जुड़ाव नहीं दिखाया

कमला हैरिस पर हमला करने में ट्रंप ने कड़े शब्दों का चयन किया। वहीं हैरिस के नामांकन ने भारत में यह बहस छेड़ दी कि वह क्या बदलाव लाएंगी और भारत-अमेरिका रिश्तों के भविष्य की तस्वीर कैसी होगी? जो देश आत्मविश्वास से लैस उभरती हुई शक्ति का दावा करता है वहां ऐसा विमर्श हमारी इस बुनियादी कमजोरी को उजागर करता है कि हम हमेशा दूसरों से प्रभावित होते आए हैं, न कि उन्हेंं प्रभावित करते हैं। हैरिस का भारतीय जुड़ाव न तो भारत की आकांक्षाओं और न ही खुद हैरिस के साथ न्याय करता है, जो खुद की अश्वेत पहचान को लेकर हमेशा यह कहती रही हैं कि उन्हेंं इस पर गर्व है। इतने वर्षों के राजनीतिक सफर में उन्होंने भारत के साथ अपना कोई खास जुड़ाव भी नहीं दिखाया। हमें भी इसका सम्मान करते हुए उन पर अपनी भावनाएं नहीं थोपनी चाहिए।

हैरिस एक ताकतवर अमेरिकी नेता के रूप में उभरी हैं

हैरिस एक ताकतवर अमेरिकी नेता के रूप में उभरी हैं और उनसे अपेक्षा है कि वह अपने राष्ट्रीय हितों का ख्याल रखें। हमें उनका आकलन उनकी भारतीय जड़ों से नहीं, बल्कि विदेश नीति पर उनके रुख के आधार पर करना चाहिए। चूंकि विदेश नीति पर हैरिस का कोई पुराना रिकॉर्ड नहीं है तो भविष्य के उनके रुख का अनुमान लगाना मुश्किल है। राष्ट्रीय सुरक्षा के विषय पर भी उनकी पकड़ उतनी मजबूत नहीं है। विदेश नीति को लेकर उनका रवैया अस्पष्ट रहा है और वह अमेरिकी विदेश नीति के लिए कोई व्यापक दृष्टिकोण नहीं रख पाईं। अधिकांश मसलों पर उन्होंने डेमोक्रेटिक पार्टी के रुख का ही समर्थन किया है। ऐसे में माना जा सकता है कि विदेश नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मसलों के अनुभवी बिडेन ही इसमें निर्णायक होंगे।

बिडेन ने भारत-अमेरिका रिश्तों को और प्रगाढ़ बनाने का किया आह्वान

बिडेन ने स्पष्ट किया कि उनका प्रशासन खतरों का सामना करने में भारत का साथ देगा। उन्होंने भारत-अमेरिका रिश्तों को और प्रगाढ़ बनाने का आह्वान भी किया है। भारतीय अमेरिकी समुदाय को लुभाने के प्रयास में उनके प्रचार अभियान में पहले से ही यह रेखांकित किया जा रहा कि यदि वह राष्ट्रपति चुने जाते हैं तो एच-1बी वीजा तंत्र में सुधार और ग्रीन कार्ड के लिए देशीय कोटा खत्म करने की दिशा में काम करेंगे। उधर ट्रंप ने दावा किया है कि भारतीय मूल के मतदाता हैरिस से ज्यादा उनका समर्थन करते हैं। यह इस समुदाय को लुभाने की होड़ का ही संकेत करता है। यह सब इसलिए हो रहा है कि खुद के एजेंडे को आगे बढ़ाने में अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने में भारतीय अमेरिकी समुदाय माहिर हो गया है।

सत्ता में कोई भी पार्टी रही हो, अमेरिका के लिए भारत एक अमूल्य साथी रहा

चाहे कोई भी पार्टी सत्ता में रही हो, अमेरिका के लिए भारत एक अमूल्य साथी रहा जिसे लगातार लुभाने के प्रयास हुए। वहीं भारत से जुड़े मुद्दों पर हैरिस के पुराने बयान भारतीय नीतियों के खिलाफ रहे। अनुच्छेद 370 की समाप्ति पर उन्होंने कहा था, हम कश्मीरियों को याद दिलाना चाहते हैं कि वे दुनिया में अकेले नहीं हैं और हम हालात पर नजर रखे हुए हैं। अगर दखल देने की जरूरत होगी तो वह भी किया जाएगा। उन्होंने विदेश मामलों की संसदीय बैठक में विदेश मंत्री जयशंकर द्वारा भाग न लेने की भी आलोचना की थी जिन्होंने प्रमिला जयपाल की मौजूदगी के कारण उस बैठक से किनारा कर लिया था। जयपाल ने कश्मीर मसले पर सदन में एक प्रस्ताव पेश किया था जिसे जयशंकर ने खारिज कर दिया था। भारत जैसे देश के लिए इस तरह के प्रकरण सामान्य हैं।

आज का भारत दूसरों के व्यवहार को प्रभावित करने की क्षमता रखता है

हैरिस के उक्त बयान या उनकी भारतीय जड़ें हमारे लिए महत्व का विषय नहीं होनी चाहिए। हमारे लिए महत्व का मुद्दा यही होना चाहिए कि कैसे हम खुद को अपने देश के उभार के अनुरूप नहीं बना पाए हैं। हम वैश्विक परिणामों को तो प्रभावित करना चाहते हैं, लेकिन इस संभावना को नहीं भुनाते कि आज का भारत दूसरों के व्यवहार को प्रभावित करने की क्षमता रखता है।

अमेरिकी विदेशी नीति का एजेंडा बुनियादी वास्तविकताओं के आधार पर तैयार होगा

अमेरिकी विदेशी नीति का एजेंडा 21वीं सदी में बुनियादी वास्तविकताओं के आधार पर तैयार होगा। जब बात भारत-अमेरिका संबंधों की आती है तो उस पर व्यक्तित्व लंबे समय तक हावी नहीं रहते। बराक ओबामा ने जब कार्यभार संभाला तब परमाणु अप्रसार से लेकर कश्मीर तक भारत को लेकर उनका एक तय रुख था। इन मुद्दों पर वह नई दिल्ली को चुनौती देना चाहते थे, पर कार्यकाल के अंत तक उनकी धारणाएं बदल गईं और वह भारत के सबसे बड़े हितैषी बन गए।

ट्रंप के कार्यकाल में भारत-अमेरिकी रिश्ते और मजबूत हुए

ट्रंप ने भी अपने चुनाव अभियान में चीन के साथ भारत को भी आड़े हाथों लिया था, पर उनके कार्यकाल में भारत-अमेरिकी रिश्ते और मजबूत हुए हैं। यदि बिडेन-हैरिस की जोड़ी चुनाव जीतती है तो भारत-अमेरिका संबंध हैरिस की भारतीय जड़ों या कश्मीर पर उनके बयाने से नहीं, बल्कि उन बुनियादी वास्तविकताओं से निर्धारित होंगे जो वाशिंगटन और नई दिल्ली के लिए महत्वपूर्ण हैं। बाकी सब फिजूल की बातें हैं।

( लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक हैं )