[ अवधेश कुमार ]: जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय यानी जेएनयू के दृश्य किसी भी विवेकशील व्यक्ति को व्यथित कर देने वाले हैैं। विश्वविद्यालय परिसर में नकाबपोश लाठी-डंडे लेकर छात्रों, शिक्षकों पर हमला कर दें, छात्रावासों में तोड़फोड़ करें और फिर भी आराम से भाग जाएं, यह सब सामान्य कल्पना से परे है। जिस तरह के वीडियो सामने आए हैैंं उनसे लगता ही नहीं कि जेएनयू कोई विख्यात विश्वविद्यालय है। अब पुलिस सक्रिय है, प्राथमिकी भी दर्ज हो गई है। उम्मीद करनी चाहिए कि छानबीन निष्पक्ष होगी और दोषी पकड़े जाएंगे। हालांकि जिस तरह की राजनीति इस हिंसा को लेकर हो रही है उससे पुलिस पर भी दबाव बढ़ा है।

जेएनयू में वैचारिक संघर्ष विचारधारा तक ही सीमित होना चाहिए

एक स्वर में हिंसा की निंदा हो तो पुलिस निर्भीक और निष्पक्ष होकर जांच करती है, लेकिन अगर एक समूह दूसरे पर हिंसा का आरोप मढ़े और दूसरा पहले पर तथा राजनीतिक दल भी कूद जाएं तो फिर दोषियों और अपराधियों का पकड़ा जाना कठिन हो जाता है। जेएनयू में विचारधारा को लेकर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद एवं वामपंथी संगठनों के बीच संघर्ष नया नहीं है। इसका अंत भी नहीं हो सकता, लेकिन वैचारिक संघर्ष विचारधारा तक ही सीमित होना चाहिए। इसमें हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं। जैसे ही आप हिंसा करते हैं वैसे ही आप अपराधी हो जाते हैं।

फीस वृद्धि को लेकर वामपंथी संगठन और एनएसयूआइ ने आंदोलन किया

जेएनयू में जो कुछ भी हो रहा है वह कई पहलुओं पर हमें गंभीरता से विचार करने को मजबूर करता है। पिछले साल अक्टूबर में फीस वृद्धि को लेकर दोनों पक्षों के छात्र संगठनों ने आंदोलन किया। वामपंथी संगठन और कांग्रेस से जुड़ा एनएसयूआइ आंदोलन पर कायम रहे, लेकिन विद्यार्थी परिषद यह कहते हुए पीछे हट गया कि हमारी लड़ाई केवल फीस वृद्धि के खिलाफ है। यह आंदोलन पिछले तीन महीनों से चल रहा है। विश्वविद्यालय प्रशासन ने फीस में कटौती भी की। आर्थिक रूप से कमजोर छात्रों के लिए भी प्रावधान किया गया है। अब फीस इतनी ज्यादा नहीं कि आंदोलन को सही ठहराया जा सके। बावजूद इसके अगर अहिंसक तरीके से कोई विरोध प्रदर्शन हो रहा है तो हम उसे रोकने के लिए बल प्रयोग की अनुशंसा नहीं कर सकते, लेकिन अगर आंदोलनरत समूह परीक्षाओं का बहिष्कार करें और इसके लिए बलपूर्वक दूसरे छात्रों को भी मजबूर करें तो यह कानून हाथ में लेना है।

सेमेस्टर परीक्षाओं के लिए रजिस्ट्रेशन को रोक रहे थे वामपंथी छात्र समूह

वामपंथी छात्र समूह सेमेस्टर परीक्षाओं के लिए रजिस्ट्रेशन को रोक रहे थे। प्रशासन ने रजिस्ट्रेशन के लिए ऑनलाइन व्यवस्था की तो उन्होंने सर्वर केंद्र पर कब्जा कर उसके तार काट दिए। जो छात्र रजिस्ट्रेशन करने जाते थे उन्हें जबरन भगाया जाता था। उनके साथ मारपीट भी की जाती थी। यहां एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि अगर कोई छात्र संगठन या कई संगठनों का समूह बलपूर्वक छात्रों को रजिस्ट्रेशन कराने से रोकता है, सर्वर केंद्र पर कब्जा कर लेता है तो उनके खिलाफ कानूनी तौर पर कार्रवाई करने में समस्या क्या है?

ऐसे छात्र संगठन के खिलाफ जेएनयू प्रशासन कार्यवाही करने में कमजोर साबित हुआ

आखिर जेएनयू प्रशासन बार-बार इतना दब्बू और कमजोर क्यों नजर आता है कि कोई भी छात्र संगठन कानून हाथों में लेकर मनमानी करें और उसके खिलाफ कुछ न किया जाए? इससे पता चलता है कि जेएनयू के अंदर कितनी विकट और जटिल चुनौतियां पैदा हो गई हैं। यह स्थिति एक-दो दिनों में नहीं हुई है। वर्षों से वहां विचारधारा का टकराव चला आ रहा है। वामपंथी समूह का वर्चस्व जेएनयू में लंबे समय से रहा है। एक समय ऐसा था जब कांग्रेस से जुड़े छात्र संगठन एनएसयूआइ के साथ भी उनका टकराव होता था।

जेएनयू में जो कुछ भी होता है उसे वैचारिक चश्मे से देखा जाता है

विद्यार्थी परिषद के शक्तिशाली होने के बाद एनएसयूआइ वामपंथी छात्र संगठनों के सहयोगी की भूमिका में आ गई है। यह वैचारिक विभाजन छात्रों तक सीमित नहीं है। यह शिक्षकों, प्रशासनिक अधिकारियों और कर्मचारियों सभी के बीच है। जेएनयू में जो कुछ भी होता है उसे वैचारिक चश्मे से देखा जाता है। किसी भी शिक्षा संस्थान में ऐसी स्थिति के कारण असामाजिक और उपद्रवी तत्वों को प्रवेश करने का मौका मिलता है। हमने फरवरी 2016 में वहां भारत विरोधी नारे के दृश्य देखे थे। उसके बाद जेएनयू में क्या हुआ, यह सबके सामने है। मकबूल बट्ट से लेकर अफजल गुरु तक की बरसी मनाना जेएनयू के अंदर घनीभूत हो चुकी वैचारिक विकृति के ही प्रमाण थे। वर्तमान हमले और प्रतिहमले को देखने के बाद यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि वहां असामाजिक और उपद्रवी तत्व प्रभावी हो चुके हैं।

भाजपा विरोधी दल पूरे कांड को संघ द्वारा प्रायोजित बताकर आग में घी डालने का काम कर रही हैं

दुर्भाग्य यह है कि भाजपा विरोधी पार्टियां पूरे कांड को संघ परिवार द्वारा प्रायोजित बताकर आग में घी डाल रही हैैं। विचार करने की जरूरत है कि कोई सत्तारूढ़ पार्टी इस ढंग से हिंसा कराकर कौन-सा लक्ष्य प्राप्त करेगी? इस पर भी विचार करना जरूरी है कि जेएनयू में इस तरह के टकराव को रोकने के लिए क्या किया जाए? यह केवल कानून और व्यवस्था का प्रश्न नहीं है। पुलिस की भूमिका कानून तोड़े जाने के बाद आरंभ होती है। कानून तोड़े जाने की पृष्ठभूमि को रोकने में मुख्य भूमिका विश्वविद्यालय प्रशासन, शिक्षकों, छात्रों और सामाजिक समूहों की ही हो सकती है। राजनीतिक दलों की भूमिका की हम अनुशंसा इसलिए नहीं कर सकते, क्योंकि भाजपा के विरोध में मौका ढूंढ़ने वाले राजनीतिक दल कभी नहीं चाहेंगे कि टकराव खत्म हो और सरकार को घेरने का अवसर उनके हाथ से निकल जाए।

विचारधारा के स्तर पर असहमति खत्म नहीं हो सकती, बशर्ते यह दुश्मनी में न बदले

विचारधारा के स्तर पर असहमति खत्म नहीं हो सकती, लेकिन यह दुश्मनी में न बदले इसका उपाय करना होगा। इसलिए ऐसे लोग, जो किसी राजनीतिक विचारधारा से नहीं जुड़े हैैं, वे आगे आएं। जेएनयू प्रशासन, छात्र संगठन, शिक्षक संगठन सभी से बातचीत करें। उनके बीच संवाद कराने की कोशिश हो। सबको समझाया जाए कि विचारधारा के संघर्ष का मतलब यह नहीं कि हम एक-दूसरे के दुश्मन हो जाएं। संवाद की यह प्रक्रिया सतत चले। जब भी टकराव की नौबत आए उनके बीच मध्यस्थता हो सके, इसकी औपचारिक संस्थानिक व्यवस्था हो। अगर ऐसा नहीं हुआ तो जेएनयू में हुई हिंसा की पुनरावृत्ति आगे भी हो सकती है।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार हैैं )