सूर्य कुमार पांडेय: छक्कन गुरु राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी रहे हैं। कहते हैं, समय किसी को भी क्षमा नहीं करता। एक दिन छक्कन गुरु को भी ढक्कन होना पड़ गया। एक लंबी राजनीतिक पारी खेलने के बाद जब छक्कन गुरु घिसने लग गए और उनके कारनामों के बरतन की कलई खुलने लग गई, तब उन्होंने अचानक एक दिन संन्यास लेने की घोषणा कर दी। वह राजनीति को पूर्णरूपेण ‘छोड़ने’ की घोषणा भी कर सकते थे, लेकिन यह उनके स्वभाव के सर्वथा प्रतिकूल होता। छक्कन गुरु ने अपने राजनीतिक करियर में ‘लेना’ और ‘ग्रहण करना’ ही सीखा था। लेने के नाम पर सरकारी सुविधाएं और ग्रहण करने के नाम पर शपथ-ग्रहण उन्हें ताउम्र प्रिय रहे। कहा जाता है कि संन्यास लेकर राजनीति में आना संभव है, किंतु राजनीति से संन्यास लेकर उसे त्याग पाना दुष्कर ही नहीं, असाध्य भी है।

जिस प्रकार क्रिकेट से संन्यास के बाद कुछ खिलाड़ी कोच, कमेंट्रेटर, अंपायर वगैरह बन लेते हैं, उसी प्रकार राजनीति का त्याग करने की घोषणा के बावजूद कुछ नेता अपने मूल चरित्र से चाहकर भी मुंह नहीं मोड़ पाते और कुछ न बन पाएं तो दूसरों के खेल को बिगाड़ने में लगे रहते हैं।

छक्कन गुरु ने भले ही घोषित तौर पर राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा कर दी हो, लेकिन परदे के पीछे से रणनीति बनाने में अब भी उनका कोई तोड़ नहीं है। हां, उनके लिए यह एक बात अच्छी हो गई है कि अब वह पार्टीलाइन से हटकर दूसरे राजनीतिक दलों को भी यदा-कदा अपने अनुभव के पुण्य प्रसाद से लाभान्वित करते देखे जा सकते हैं। उन्हें इसका प्रत्यक्ष लाभ यह हुआ है कि सरकार किसी भी दल की हो, छक्कन गुरु का कोई काम कभी भी नहीं अटकता। वसुधैव कुटुंबकम की तर्ज पर उनके उदार चित्त के अनंत आकाश में ‘सर्वदल कुटुंबकम’ के भाव सदैव मेघों की मानिंद उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं और उनकी बूंदों से राजनीति के खेतों में नई संभावनाएं फसल बनकर अंकुरित होती रहती हैं।

जब अयोध्या में राममंदिर निर्माण के लिए भूमिपूजन हुआ और उसका सारा श्रेय एक पार्टी के खाते में जाता दिखलाई पड़ा तो कई दलों को अपने जनाधार की नींव साक्षात खुदती हुई दिखलाई पड़ने लग गई। वे सब छक्कन गुरु के पास भागते हुए पहुंचे। छक्कन गुरु ने कोरोना का बहाना बनाते हुए उन सबसे मिलने से इन्कार कर दिया। समझदार व्यक्ति की यही पहचान हुआ करती है। जब भी कोई अपने काम से मिलने आए, उसको ‘अभी घर पर नहीं हैं’ का बहाना बनाकर चार चक्कर लगवाने से स्वयं का महत्व स्थापित होता है। कुछ आला अफसर भी इसमें निपुण हुआ करते हैं।

छक्कन गुरु जब सक्रिय राजनीति में थे, तब की बात और थी। जो कोई भी उनके दरवाजे पर आ जाता, उससे तुरंत भेंट किया करते थे। काम पूछते थे। कागज लेते थे और आश्वासन देते थे। कभी-कभार किसी का काम भी करा दिया करते थे। छक्कन गुरु ने अमोघ फार्मूला निकाला। उनके पास विपक्षी दलों की चिंता की काट मिल चुकी थी। उन्हें पता था कि आज की राजनीति में कोई भी दल अपने को जातिवादी नहीं कहता है, लेकिन सभी जाति की राजनीति करते हैं। छक्कन गुरु ने एक-एक कर सभी छोटे-बड़े दलों के नेताओं को फोन किया। उनसे सदेह न मिल पाने के लिए क्षमा मांगी और उनके आने का मंतव्य पूछा, जिसका समाधान वह पहले से ही सोचे पड़े थे।

उन्होंने एक पार्टी को मूर्ति की स्थापना की घोषणा करने की सलाह दी तो दूसरी पार्टी को पहली से भी ऊंचे कद की प्रतिमा लगाने की घोषणा के लिए राजी किया। उन्होंने तीसरे दल को इन दोनों में संतुलन बनाने के लिए कहा। साथ में यह भी समझा दिया कि लोकतंत्र में वोटबैंक को साधना ही सच्ची साधना होती है। बैंक से लोन लेकर मौज-मस्ती करनी हो तो विदेश भागना पड़ता है, लेकिन वोटबैंक के जरिये अर्जति संपत्ति से देश में रहकर ही सारे सुख लूटे जा सकते हैं। जब तक छक्कन गुरु जैसे घाघ रणनीतिकार रहेंगे, राजनीति के गर्भ से एक से बढ़कर एक प्रतीक पुरुष बाहर आते रहेंगे।