अंशुमाली रस्तोगी। एक सवाल जिससे इन दिनों हम रूबरू हो रहे हैं कि कोरोना काल के बाद दुनिया कैसी होगी? क्या बदलेगा, क्या नहीं बदलेगा? इस प्रश्न पर अभी कोई राय बनाना जल्दबाजी होगी। लेकिन एक बड़ी बात यहां यह है कि कोरोना के बाद इंसानी फितरत कितनी और किस हद तक बदल पाएगी। क्योंकि जो भी बदलाव हुए हैं या आगे होंगे, उनमें तकनीक, रहन-सहन, वातावरण, काम करने का ढंग आदि में तो बदलाव होते रहते हैं, किंतु मनुष्य खुद को मनुष्यता के स्तर पर कितना बदल पाएगा, यह देखना आवश्यक होगा।

फिर भी, अपनी-अपनी सुविधानुसार लोगों ने अवधारणाएं बना ली हैं कि हमारे विचार, व्यवहार एवं आचरण में निश्चित फर्क आएगा। अभी जिन बातों को हम हल्के में लेकर इग्नोर कर दिया करते थे, उन्हें गंभीरता से लेंगे। मसलन साफ-सफाई, इसे गंभीरता से लेना हमने शुरू भी कर दिया। क्योंकि कोरोना से बचाव का एकमात्र उपाय साफ-सफाई ही है। न केवल अपने आसपास की, बल्कि खुद की सबसे ज्यादा। लॉकडाउन के रहते जो हमने सीखा है, वह कहीं भूला तो नहीं दिया जाएगा। ये सारी आशंकाएं इसलिए भी हैं, क्योंकि मनुष्य अपनी बेपरवाह फितरत से कभी बाज नहीं आया है। वह तकनीक में बदलाव ला सकता है, रहन-सहन में बदलाव ला सकता है, काम करने का तरीका बदल सकता है, ज्ञान-विज्ञान को समृद्ध कर सकता है, लेकिन अपनी फितरत या आदत बदल पाएगा? यह सबसे बड़ा सवाल है।

कुछ का कहना यह भी है कि कोरोना काल चाहे रहे या जाए मनुष्य अपनी फितरत नहीं बदलेगा। छल-कपट, भ्रष्टाचार, उत्पीड़न आदि में क्या बदलाव होगा? खबरें बताती हैं कि लॉकडाउन के दौर में सबसे अधिक मामले महिला उत्पीड़न के ही सामने आए हैं। बदलाव में बड़ा प्रश्न आस्था और अंधविश्वास का भी है। क्या मनुष्य इनसे मुक्त हो पाएगा? यह एक ऐसा समय रहा है, जहां न किसी आस्था ने असर दिखाया न अंधविश्वास ने काम किया। वहम चाहे कितने पाल लीजिए, पर जीत आपको विज्ञान और मेडिकल साइंस ही दिलवाएगी।

डिजिटल होती दुनिया मनुष्य को इंसानियत का पाठ नहीं पढ़ा सकती। तकनीक दूरियों को कम कर सकती है, कठिन चीजें आसान कर सकती है, लेकिन इंसान की इंसान के प्रति सोच, एक-दूसरे से बेईमानी न करने की आदत में परिवर्तन नहीं ला सकती। इसे सिर्फ मनुष्य ही, अगर वह चाहे तो, बदल सकता है। हैरानी यह सुनकर भी अधिक होती है, जब लोग 2020 को सबसे खराब साल कहने की घोषणा कर देते हैं। इसमें साल का भला क्या दोष? क्या साल ने कहकर बुलाया था कोरोना को? साल को कोसने से कोई फायदा नहीं। यहां भी दोषी इंसान ही है। उसकी फितरत है। साल आएगा, चला जाएगा, पर मनुष्य के कर्म रहेंगे, अच्छे भी बुरे भी।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)