पंकज चतुर्वेदी। सावन तो सामान्य ही था, लेकिन भादव जम कर बरसा तो एक-एक बूंद पानी के लिए तरसने वाला देश प्रकृति की इस अनमोल देन को आफत कहने लगा। घर, गांव, बस्ती पानी से भर गए। सभी जानते हैं कि बरसात की ये बूंदें सालभर के लिए यदि सहेज कर नहीं रखीं तो सूखे-अकाल की संभावना बनी रहती है। हर बूंद को सहेजने के लिए हमारे पास छोटी-बड़ी नदियों का जाल है। तपती धरती के लिए बारिश अकेले पानी की बूंदों से महज ठंडक ही नहीं ले कर आती है, यह समृद्धि, संपन्नता की दस्तक भी होती है। लेकिन यह भी हमारे लिए चेतावनी है कि यदि बरसात वास्तव में औसत से छह फीसद ज्यादा हो गई तो हमारी नदियों में इतनी जगह नहीं है कि वह उफान को सहेज पाए, परिणामस्वरूप बाढ़ और तबाही के मंजर उतने ही भयावह हो सकते हैं जितने कि पानी के लिए तड़पते बुंदेलखंड या मराठवाड़ा के।

वर्ष 2015 की चेन्नई में बाढ़ बानगी है कि किस तरह शहर के बीच से बहने वाली नदियों को जब समाज ने उथला बनाया तो पानी उनके घरों में घुस गया था। मुंबई तो हर साल नदियों को लुप्त करने का पाप भोगती है। दिल्ली राजधानी में ही यमुना नदी टनों मलबा उड़ेल देने के कारण उथली हो गई है। एनजीटी ने दिल्ली मेट्रो सहित कई संगठनों को चेताया भी, इसके बावजूद निर्माण से निकले मलबे को यमुना नदी में खपाना आम बात हो गई है।

यह सर्वविदित है कि पूरे देश में कूड़ा बढ़ रहा है और कूड़े को खपाने के स्थान सिमट रहे हैं। विडंबना है कि चलती ट्रेन से पेंट्री के कूड़े से लेकर स्थानीय निकाय भी अपने कूड़ा वाहनों को नदियों में ढकेलने से बाज नहीं आ रहे हैं। इसका ही कुप्रभाव है कि नदियां मर रही हैं और उथली हो रही हैं। नदियों के सामने खड़े हो रहे संकट ने मानवता के लिए भी चेतावनी का बिगुल बजा दिया है, जाहिर है कि बगैर जल के जीवन की कल्पना भी संभव नहीं है। हमारी नदियों के सामने मूलरूप से तीन तरह के संकट हैं- पानी की कमी, मिट्टी का आधिक्य और बढ़ता हुआ प्रदूषण। धरती के तापमान में निरंतर हो रही बढ़ोतरी के चलते मौसम में बदलाव हो रहा है और इसी का परिणाम है कि या तो बारिश अनियमित हो रही है या फिर बेहद कम।

बड़ी नदियों में ब्रह्मपुत्र, गंगा और महानदी के रास्तों में पानी खूब बरसता है और इनमें न्यूनतम बहाव 4.7 लाख घनमीटर प्रति वर्ग किमी होता है। वहीं कृष्णा, सिंधु, तापी, नर्मदा और गोदावरी का पथ कम बारिश वाला है, सो इसमें जल बहाव 2.6 लाख घनमीटर प्रति वर्ग किमी ही रहता है। कावेरी, पेन्नार, माही और साबरमती में तो बहाव 0.6 लाख घनमीटर ही रह जाता है। सिंचाई व अन्य कार्यो के लिए नदियों के अधिक दोहन, बांध आदि के कारण नदियों के प्राकृतिक स्वरूपों के साथ भी छेड़छाड़ हुई व इसके चलते नदियों में पानी कम हो रहा है। भारतीय नदियों के मार्ग से हर साल 1,645 घन किलोलीटर पानी बहता है, जो दुनिया की कुल नदियों का 4.4 प्रतिशत है। आंकड़ों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लेकिन चिंता का विषय यह है कि पूरे पानी का करीब 85 फीसद बारिश के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता है और नदियां सूखी रह जाती हैं।

नदियां अपने साथ अपने रास्ते की मिट्टी, चट्टानों के टुकड़े व बहुत सा खनिज बहा कर लाती हैं। नदियों के मार्ग पर अंधाधुंध जंगल कटाई, खनन, पहाड़ों को काटने आदि के चलते थोड़ी सी बारिश में ही बहुत सा मलबा बह कर नदियों में गिर जाता है। परिणामस्वरूप नदियां उथली हो रही हैं, उनके रास्ते बदल रहे हैं और थोड़ा सा पानी आने पर ही वे बाढ़ का रूप ले लेती हैं। यह भी खतरनाक है कि सरकार व समाज इंतजार करता है कि नदी सूखे व हम उसकी छोड़ी हुई जमीन पर कब्जा कर लें। इससे नदियों के पाट संकरे हो रहे हैं। अनियंत्रित विकास और औद्योगीकरण के कारण प्रकृति के तरल स्नेह को संसाधन के रूप में देखा जाने लगा, श्रद्धा-भावना का लोप हुआ और उपभोग की प्रवृत्ति बढ़ती चली गई। चूंकि नदी से जंगल, पहाड़, वन्य जीव, पक्षी और जन-जीवन गहरे तक जुड़ा है, इसलिए जब नदी पर संकट आया, तब उससे जुड़े सभी सजीव-निर्जीव प्रभावित हो रहे हैं।

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