[प्रभाकर मिश्र]। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वर्ष 2006 में राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में कहा था, ‘यह सुनिश्चित करने के लिए कि अल्पसंख्यक, खासकर मुसलमान विकास में बराबरी से फायदा ले सकें, हमें मौलिक योजना बनानी पड़ेगी। संसाधनों पर उनका पहला हक होना चाहिए।’ मनमोहन सिंह के उस बयान को भाजपा मुस्लिम तुष्टिकरण से जोड़कर देखती है। मनमोहन सिंह ने तो ‘अल्पसंख्यक’ माने मुसलमान मान लिया था, लेकिन आजादी के सात दशक बाद भी देश में अल्पसंख्यक की परिभाषा तय नहीं हो पाई है।

सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग से कहा है कि वह अल्पसंख्यक की परिभाषा और पहचान तय करने की मांग वाले ज्ञापन पर शीघ्र फैसला ले। भाजपा के नेता और सुप्रीम कोर्ट के वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर कोर्ट से अल्पसंख्यक की परिभाषा तय करने की मांग की थी। इससे पहले उन्होंने अल्पसंख्यक आयोग को 17 नवंबर 2017 को ज्ञापन दिया था और मांग की थी कि पांच समुदायों को अल्पसंख्यक घोषित करने की 1993 की अधिसूचना रद की जाय और अल्पसंख्यक की परिभाषा और पहचान तय करने के साथ जिन राज्यों में हिंदुओं की संख्या बहुत कम है, वहीं हिंदुओं को अल्पसंख्यक घोषित किया जाए। आयोग ने अब तक उस ज्ञापन पर जवाब नहीं दिया है।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 के तहत उन लोगों के लिए कुछ अलग से प्रावधान किया गया है जो भाषा और धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक श्रेणी में आते हैं। लेकिन ‘अल्पसंख्यक’ की परिभाषा नहीं होने से इसका दुरुपयोग हो रहा है। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक जम्मू-कश्मीर में 68 फीसद आबादी मुसलमानों की है। जनसंख्या के आधार पर इस राज्य में मुसलमान किसी भी दृष्टिकोण से अल्पसंख्यक नहीं कहे जा सकते हैं। लेकिन वहां अल्पसंख्यकों को मिलने वाली सारी सुविधाएं इन्हें मिलती हैं। जबकि हिंदू समुदाय उन सुविधाओं से महरूम हैं। हालांकि ऐसा नहीं है कि यह मामला केवल जम्मू-कश्मीर तक ही सीमित है। तमाम हिस्सों में इस शब्द को परिभाषित नहीं किए जाने की वजह से किसी न किसी समुदाय के साथ अन्याय हो रहा है।

भारत में अल्पसंख्यक शब्द की अवधारणा ब्रिटिशकालीन है। वर्ष 1899 में तत्कालीन ब्रिटिश जनगणना आयुक्त द्वारा कहा गया था भारत में सिख, जैन, बौद्ध, मुस्लिम को छोड़ हिंदू बहुसंख्यक हैं। यहीं से इस विमर्श को बल मिला। संविधान निर्माण के लिए जब संविधान सभा बैठी तब इस पर बहस हुई। संविधान सभा में अल्पसंख्यक आरक्षण पर बहस के दौरान अनुसूचित जातियों को आरक्षण देने के प्रश्न पर आम राय थी। लेकिन अल्पसंख्यक आरक्षण पर आम राय नहीं बन पा रही थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री ने साफ किया कि पंथ/ आस्था/ मजहब/ धर्म आधारित आरक्षण गलत है। उस समय तक अल्पसंख्यक का मतलब मुसलमान हो चुका था। उस समय संविधान सभा के एक सदस्य तजम्मुल हुसैन ने कहा था, ‘हम अल्पसंख्यक नहीं हैं। यह शब्द अंग्रेजों का निकाला हुआ है। अंग्रेज यहां से चले गए, अब इस शब्द को डिक्शनरी से हटा दीजिए।’

संविधान निर्माताओं ने संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 के तहत उन लोगों के लिए कुछ अलग से प्रावधान किया जो भाषा और धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक श्रेणी में आते हैं। अनुच्छेद 29 का शीर्षक है- अल्पसंख्यक वर्ग के हितों का संरक्षण। यहां कहा गया है कि भारत के किसी भाग के निवासी नागरिकों के किसी अनुभाग को, जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाए रखने का अधिकार होगा। इस अनुच्छेद में ‘अल्पसंख्यक’ कौन है, इसकी परिभाषा नहीं निकलती।

सरकार ने 1978 में अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना की। इस आयोग के गठन का आधार उनसे भेदभाव, उनकी सुरक्षा, देश की धर्मनिरपेक्ष परंपरा को बनाए रखना व राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देना था। इस आयोग को संसद द्वारा 1992 के ‘राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम’ के तहत ‘राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग’ बनाया गया। इस एक्ट में भी इसकी परिभाषा नहीं तय की गई। यह आयोग सरकार द्वारा अल्पसंख्यकों के लिए लागू की जाने वाली योजनाओं व नीतियों को प्रभावी रूप से लागू करने पर नजर रखता है। इसी अधिनियम की धारा 2(सी) के तहत केंद्र सरकार को किसी भी समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित करने का अधिकार है। किसी जाति समूह को अनुसूचित जाति या जनजाति घोषित करने की विधि जटिल है और यह केवल संसद कर सकती है। लेकिन किसी समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित करने का काम सरकारी दफ्तर से ही हो सकता है। इसी अधिकार का इस्तेमाल करते हुए केंद्र सरकार ने 23 अक्टूबर 1993 को एक अधिसूचना के जरिये पांच समुदायों मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, सिख और पारसी को अल्पसंख्यक घोषित किया।

अल्पसंख्यक का दर्जा मिलने के बाद उसके सदस्यों को अल्पसंख्यकों के लिए कल्याण कार्यक्रमों और छात्रवृत्तियों में केंद्रीय मदद मिलती है। एक रिपोर्ट के मुताबिक जम्मू कश्मीर में 2016-17 में अल्पसंख्यकों के लिए निर्धारित प्री-मैट्रिक स्कॉलरशिप का फायदा जिन छात्रों को मिला है उनमें एक लाख से अधिक मुसलमान समुदाय से आते हैं जबकि सिख, बौद्ध, पारसी और जैन धर्म के पांच हजार छात्रों को इसका फायदा मिल सका है। इसमें भी हिंदू समुदाय के किसी भी छात्र को इसका फायदा नहीं मिला है, जबकि जनसंख्या के आधार पर जम्मू-कश्मीर में हिंदू बहुत कम हैं।

सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में अश्विनी उपाध्याय ने टीएमए पाई मामले में दिए गए संविधानपीठ के फैसले का हवाला देते हुए कहा है कि अल्पसंख्यक की पहचान राज्य स्तर पर की जाए, न कि राष्ट्रीय स्तर पर, क्योंकि कई राज्यों में जो वर्ग बहुसंख्यक हैं उन्हें अल्पसंख्यक का लाभ मिल रहा है। यह विषमता तभी दूर होगी जब अल्पसंख्यक की पहचान राज्य स्तर पर हो। दूसरा उपाय यह है कि अल्पसंख्यक की परिभाषा और अल्पसंख्यकों की पहचान के लिए दिशानिर्देश तय हों, ताकि यह सुनिश्चित हो कि सिर्फ उन्हीं अल्पसंख्यकों को संविधान के अनुच्छेद 29-30 में अधिकार और संरक्षण मिलेगा जो वास्तव में धार्मिक और भाषाई, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली न हों और जो संख्या में बहुत कम हों।

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