श्रीराम चौलिया। बांग्लादेश में दुर्गा पूजा आयोजन के दौरान हिंदुओं पर सुनियोजित हिंसक हमले और मंदिरों के विध्वंस से उत्सव का रंग फीका पड़ने के साथ ही अब भय का माहौल बन गया है। वहां एक दर्जन से अधिक जिलों में हिंसक भीड़ ने जिस प्रकार निरीह हिंदुओं के पूजा स्थलों पर आक्रमण कर उनके देवी-देवताओं की मूर्तियां खंडित कीं, उससे भारत के अंत:करण को चोट पहुंची है। बांग्लादेश में हिंदुओं को प्रताड़ित करने का यह पहला मामला नहीं है। वहां यह बहुत गंभीर समस्या है। उसके समाधान से केवल बांग्लादेश ही नहीं, बल्कि भारत का भी सरोकार है।

भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक जुड़ाव के कारण बांग्लादेश में जो भी नकारात्मक घटनाएं घटित होती हैं, वे भारत और समस्त भारतीय उपमहाद्वीप के लिए चिंता का सबब बन जाती हैं। दरअसल, ऐसी क्रूरता और धार्मिक कटुता माचिस की एक तीली के समान है, जिसकी एक चिंगारी से भड़की आग बहुत दूर तक फैल जाती है। जबसे तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता हथियाई है, तबसे दक्षिण एशिया में जिहादी मानसिकता वालों का दुस्साहस बढ़ा है। इसके शिकार हिंदू, सिख, शिया और अन्य अल्पसंख्यक हो रहे हैं। आतंकी दरिंदों के दुस्साहस की पराकाष्ठा देखिए कि वे बेखौफ हमला बोल रहे हैं। कश्मीर की हालिया आतंकी घटनाएं भी इसका सुबूत हैं। इससे खतरे की आहट का अंदाजा लगता है।

पाकिस्तान, अफगानिस्तान के अलावा बांग्लादेश में भी कट्टरपंथी तत्वों ने अपने यहां हिंदुओं और अन्य अल्पसंख्यकों के जबरन मतांतरण की मुहिम तेज कर दी है। वहां अल्पसंख्यकों की संख्या लगातार घटी है, जिसे कट्टरपंथी और घटाने पर तुले हैं। श्रीलंका और मालदीव सरकारों की बेचैनी भी बढ़ी हुई है, क्योंकि आइएस वहां पहले से कायम असंतोष को आग देकर माहौल खराब कर सकता है। यानी समूचे दक्षिण एशिया में जिहादी लहर के विस्तार की आशंकाएं अतिरंजना नहीं, अपितु वास्तविकता हैं, जो प्रतिदिन किसी न किसी रूप में प्रकट हो रही हैं। ऐसे में भारत की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह न केवल अपनी सीमा के भीतर इन शक्तियों से जूङो, बल्कि पड़ोसी देशों की भी उचित सहायता करे। आपात स्थितियों में भारत ने पड़ोसी देशों में सताए अल्पसंख्यकों को शरण दी है। भारत ही उनका आखिरी आसरा है। यदि भारत न होता तो उनका सफाया हो जाता। यही कारण है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम यानी सीएए जैसे कानून के माध्यम से भारत अपने-अपने देशों में सताए गए दक्षिण एशियाई अल्पसंख्यकों को रोशनी की किरण दिखाता है।

भारत पड़ोसी देशों में फल-फूल रहे जिहादी संगठनों और उनके कृत्यों पर पैनी नजर रखता है। हमारी खुफिया एजेंसियां सक्रिय रहकर पड़ोसी मित्र देशों को षड्यंत्रों के विषय में सूचित करती हैं। जैसे 2019 में श्रीलंका में ईसाई अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर किए गए आतंकी हमलों के बारे में भारतीय एजेंसियों ने पहले से ही चेतावनी साझा की थी कि कुछ अनर्थ होने वाला है। तत्कालीन श्रीलंकाई प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे ने यह माना था कि ‘भारत ने हमें खुफिया जानकारी दी, लेकिन उस पर कार्रवाई करने में हमसे चूक हुई।’ इस वर्ष मालदीव में जब भारतीयों और भारतीय राजनयिकों के विरुद्ध कट्टरपंथियों द्वारा झूठे आरोपों से जुड़ा अभियान चलाया गया और हिंसक धमकियां दी गई तो भारत ने वहां के सत्तारूढ़ दल और सुरक्षा कर्मियों को सावधान किया। साझा जानकारी और प्रशिक्षण के जरिये आतंकी हमलों या अल्पसंख्यकों के सुनियोजित दमन को विफल करने हेतु हमें पड़ोसी देशों के साथ सहयोग बढ़ाना ही होगा।

बांग्लादेश में हिंदुओं पर हुए हालिया हमलों के बाद प्रधानमंत्री शेख हसीना, जो भारत हितैषी मानी जाती हैं, ने आश्वासन दिया कि अपराधियों को उनके किए की सजा अवश्य दी जाएगी। हसीना सरकार ने बीते कुछ वर्षों के दौरान कई ऐसे कट्टरपंथी मुजरिमों को सजा भी दिलवाई है, जिन्होंने हिंदू अल्पसंख्यकों, नास्तिकों और उदारवादी इस्लाम के समर्थकों की निर्मम हत्याएं कीं। हालांकि, यह भी सच है कि उक्त मसला केवल कानून एवं व्यवस्था की स्थापना और दंड देने से नहीं सुलझेगा। वास्तविकता यही है कि बांग्लादेश और अन्य दक्षिण एशियाई देशों में अल्पसंख्यकों पर जुल्म इस अफवाह की आड़ में किए जाते हैं कि भारत में मुसलमानों का उत्पीड़न किया जा रहा है और चूंकि स्थानीय हिंदू सांस्कृतिक तौर पर भारत से जुड़े हैं तो उनसे बदला लेना जायज है। इन देशों में जिहादी संगठन और कुछ सियासी दल भारतीय कूटनीति को पक्षपातपूर्ण बताकर दुष्प्रचार करते हैं, ताकि वहां के बहुसंख्यक समुदाय को उकसाया जाए कि भारत उनका दुश्मन है और इस्लाम को भारतीय सांस्कृतिक ‘प्रदूषण’ से बचाना उनका धार्मिक कर्तव्य है।

हमें पड़ोसी देशों में न केवल उदार, नरम और पंथनिरपेक्ष घटकों से रिश्ते मजबूत करने चाहिए, वरन वहां के बहुसंख्यक मुसलमानों के मन-मस्तिष्क में भी पैठ बनानी होगी। भारतीय मुस्लिम समाज के प्रगतिशील वक्ताओं, मौलवियों और सूफी इस्लाम के अनुयायियों को दूत बनाकर इन पड़ोसी देशों में भ्रमण करवाना और उनके द्वारा भारत में अल्पसंख्यकों के घुल-मिलकर रहने और उनकी संतुष्टि वाली सच्ची तस्वीर पेश करने से गलतफहमियां दूर हो सकती हैं। साझा राजनय यानी पब्लिक डिप्लोमेसी से यह साबित किया जा सकता है कि भारत पड़ोसी देशों में बहुसंख्यक या मुख्यधारा के विकास और कल्याण हेतु उतना ही तत्पर है, जितना वहां के हिंदू या सिख अल्पसंख्यकों के लिए। भारत चाहे जितनी कोशिश करे, पड़ोसी देशों में धार्मिक बैर को परास्त करना आसान नहीं, क्योंकि वहां की राजनीतिक और सामाजिक दशा पर किसी बाहरी देश का असर कम ही रहेगा। फिर भी बांग्लादेश के हालात और अफगानिस्तान एवं पाकिस्तान से निकली जिहादी लहर को देखते हुए हम निष्क्रिय नहीं रह सकते। वैसे तो भारत दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता, लेकिन यदि पड़ोसी देशों में कुछ तत्व अल्पसंख्यकों की मान-मर्यादा का उल्लंघन करें तो हमें सक्रिय होकर ऐसे शैतानों का सामना करना होगा।

(लेखक जिंदल स्कूल आफ इंटरनेशनल अफेयर्स में प्रोफेसर और डीन हैं)