(शिवकुमार विवेक): सरस्वती नदी के उद्गम और प्रवाह मार्ग की खोज करने के प्रयासों का जब भी जिक्र किया जाएगा, डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर के उल्लेख के बिना अधूरा रहेगा। डॉ. वाकणकर देश के उन गिने-चुने अध्येताओं में से थे जिन्होंने देश के ऐतिहासिक-सांस्कृतिक मानचित्र की पुनर्व्याख्या करने में जिंदगी खपाई। 1988 में 4 मई को उनके अवसान के बाद से उनका स्थान रिक्त है। किसी भी शख्सियत के जाने के बाद कहे जाने वाले दो शब्द अपूरणीय क्षति उनके मामले में सार्थक सिद्ध हुए हैं।

भीमबैठका की 750 गुफाओं की खोज की 

डॉ. वाकणकर ने पुरावशेषों पर शोध करके नई स्थापनाएं तो दी हीं, शैलचित्रों की खोज के मामले में उनके योगदान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली। मध्यप्रदेश में राजधानी भोपाल के पास भीमबैठका की 750 गुफाओं की वर्ष 1957 में उनके द्वारा की गई खोज ने मानव सभ्यता के इतिहास का एक अत्यंत प्राचीन सिरा थमाया। 1892 हेक्टेयर क्षेत्र में फैली ये गुफाएं आदिमानव के दुनिया के प्राचीनतम आश्रय स्थलों में से एक थीं जहां पाषाण युग से लेकर ईसा पूर्व दूसरी सदी तक मानव का आवास रहा। 2003 में इन्हें विश्व धरोहर घोषित किया गया है।

शैलचित्रों के व्यापक अनुसंधान को किया उत्प्रेरित 

इसके साथ ही उन्होंने प्रदेश की सतपुड़ा और विध्याचल पर्वतश्रंखलाओं में शैलचित्रों के व्यापक अनुसंधान को उत्प्रेरित किया। उनके नेतृत्व में सागर विश्वविद्यालय में शैलचित्रों पर काम करने वालों की बड़ी टीम खड़ी हुई। मध्यप्रदेश में शैलचित्रों पर पहला शोध प्रबंध भी इसी विश्वविद्यालय में लिखा गया। देश भर में चार हजार से ज्यादा शैलचित्रों की खोज और अध्ययन के कारण उन्हें भारतीय शैलचित्रों का पितामह कहा गया।

हड़प्पा-मोहनजोदड़ो के समकालीन जीवन की खोज की 

डॉ. वाकणकर, जिन्हें स्नेह से लोग हरिभाऊ कहा करते थे, ने नदी सभ्यता और हड़प्पा-मोहनजोदड़ो के समकालीन जीवन की खोज में काफी श्रम किया। मध्यप्रदेश की नर्मदा और चंबल के इलाके में उन्होंने इतिहास की कई परतें उघेड़ीं। उज्जैन के विक्रम विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग, जिससे वे वर्षों तक संबद्ध रहे, के संयोजन में उन्होंने मालवा में व्यापक उत्खनन किया। उन दिनों पुणे के डेक्कन कॉलेज के अलावा मध्यप्रदेश के सागर और उज्जैन के विक्रम विश्वविद्यालय ही उत्खनन का काम प्रमुखता से करते थे। मालवा में उज्जैन के गांव कायथा, जहां प्राचीन खगोलविद् वराहमिहिर का जन्म हुआ था और दंगवाड़ा व महेश्वर के पास नावड़ा तोड़ी के उत्खनन के जरिये डॉ. वाकणकर ने यह सिद्ध किया कि हड़प्पा व मोहनजोदड़ो की संस्कृति का विस्तार यहां तक था। 

'मालवा में अब दूसरा वाकणकर पैदा नहीं होगा'

उन्होंने सारनाथ, बनारस, अमरावती, नागार्जुन कोंडा के बौद्ध स्मारकों का सर्वेक्षण कर बौद्ध इतिहास की समझ को सामने रखा तो बड़वानी (मप्र) की सौ से ज्यादा जैन मूर्तियों के पादपीठ अभिलेखों का वाचन कर प्रकाशन किया। यही नहीं, वे इंग्लैड और फ्रांस की खुदाइयों में शामिल रहे और मैक्सिको, अमेरिका सहित दुनिया के अन्यान्य भागों में भारतीय संस्कृति के प्रभाव को स्थापित करने के लिए दुनिया भर के पुराविदों और इतिहासवेत्ताओं के साथ काम किया। उनके निधन के बाद तत्कालीन सामयिक पत्रिका दिनमान ने लिखा था-उनके जरिये इतिहास ने मानव रूप धरा था, वहीं डॉ. राजशेखर व्यास ने धर्मयुग में लिखा था-मालवा में अब दूसरा वाकणकर पैदा नहीं होगा।   

सारस्वत सभ्यता पर काम अधूरा रह गया 

सरस्वती की खोज के लिए डॉ. वाकणकर परंपराओं, लोककथाओं और लोकमान्यताओं का सहारा लिया। उन्होंने जिज्ञासु शोधकर्ताओं का एक समूह बनाकर हरियाणा से गुजरात तक सरस्वती के लोकश्रुत मार्ग में एक माह तक लोकसाहित्य के साथ-साथ वहां मिलने वाले सिक्कों और अन्य साक्ष्यों का संकलन किया। वे सारस्वत सभ्यता पर विस्तार से काम करना चाहते थे जो अधूरा रह गया। वे खुद ऋगवेदी ब्राह्ण थे। वैदिक अध्ययन ने उनके पुराविद् व्यक्तित्व में सोने में सुहागा कर दिया। उन्होंने वैदिक कथाओं के सत्य को पुरातत्व दृष्टि से प्रमाणित करने का प्रयास किया। इन कथाओं में छुपे प्राचीन भारतीय इतिहास को उद्घाटित करते हुए उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि वैदिक साहित्य व पौराणिक आख्यान भी हमारे इतिहास के सूत्र प्रदान करते हैं। आधुनिक इतिहास इसे नकारता रहा है। 

 

भारतीय परंपराओं को समझना होगा 

उन्होंने मालवा की खुदाई के वक्त प्रसिद्ध पुरातत्वविद् सर मार्टिमर व्हीलर से कहा था- भारतीय परंपराओं को समझे बगैर भारतीय संस्कृति को नहीं समझा जा सकता। ऐसी ही एक कथा का यथार्थ खोजने का प्रसंग उन्होंने ही इस तरह सुनाया था-एक ऋषि के द्वारा जंगल के मुहाने पर नदी किनारे यज्ञ करने के दौरान कुछ ग्रामीणों ने आकर यह शिकायत की कि अकाल के कारण वे भुखमरी के शिकार हैं।

ऋषि ने यज्ञ की अग्नि को मुंह में भरकर जंगल पर फूंका जिससे जंगल भस्म हो गया। ऋषि ने ग्रामीणों से कहा कि अब वे वहां जाकर अन्न उपजाएं। डॉ. वाकणकर ने इस कथा का मर्म जानने के लिए उस स्थल पर खुदाई करवाई तो बड़ी तादाद में कुल्हाड़ी की तरह के औजार मिले। वाकणकर के मुताबिक इसका अर्थ था कि ऋषि ने ग्रामीणों को कुल्हाड़ियां देकर वन काटने और खेती करने को कहा होगा। 

सहजता और सादगी के लिए जाने जाते थे डॉ. वाकणकर

हरिभाऊ का कहना था कि हमारा प्राचीन इतिहास इसी तरह कई प्रतीक कथाओं में व्याप्त है। इन्हें अप्रामाणिक मानकर खारिज नहीं करना चाहिए। पद्मश्री से सम्मानित डॉ. वाकणकर की प्रतिभा के कई आयाम थे। उन्हें देखकर कोई भी व्यक्ति उनकी विराटता का अनुमान नहीं कर सकता था। उनकी सहजता और सादगी के किस्से पुरातत्व के क्षेत्र में आज भी श्रद्धा और प्रेरणा की कहानी की तरह कहा जाते हैं।

मध्यप्रदेश के पुरातत्व विभाग के पूर्व उपनिदेशक और ऐरण की ऐतिहासिक खुदाई करने वाले प्रोफेसर कृष्णदत्त वाजपेयी के सुपुत्र डॉ. एके वाजपेयी के अनुसार ज्यादातर उनका लिबास धोती-कुरता होता था। झोले में उनकी जरूरत की सामग्री होती थी। जब भीमबैठका में छह महीने तक खुदाई चली तो वे अपनी टीम के साथ अथक परिश्रम करते थे। उनका सप्ताह के छह दिन उत्खनन करके सातवें दिन रविवार को इलाके के सर्वेक्षण पर जोर रहता था। 

कई कलाओं के धनी थे डॉ. वाकणकर 

वाजपेयी कहते हैं कि यह सूत्र हमने अपने पूरे जीवन में गूंथ लिया था। डॉ. प्रदीप शुक्ल के अनुसार उनके झोले में हमेशा आलू रहते थे, जिन्हें उत्खनन और सर्वेक्षणों के दौरान जरूरत पड़ने पर रेत में भूनकर खा लेते थे।  

हरिभाऊ की प्रतिभा का बखान किया जाए तो यह लियोनार्दों द विंची की तरह की शख्सियत सामने आती है। वे कई कलाओं के धनी थे। खुद अच्छे चित्रकार थे जिनके 7 हजार से ज्यादा चित्र उज्जैन के भारती कला भवन में संग्रहीत हैं। उन्होंने मुंबई से बकायदा चित्रकला का डिप्लोमा हासिल किया था। 

भारतीय इतिहास को नए सिरे से व्याख्यायित करने के पक्षधर थे  

एक दफे एक कार्यक्रम में जब मैंने उनसे कहा कि कैमरा होता तो तस्वीर ले लेते। डॉ. वाकणकर ने तत्काल मंच का स्कैच तैयार कर दिया था। भारतीय कंप्यूटर को देवनागरी लिपि देने में उनकी अपने भाई लक्ष्मण (बापू) के साथ अहम भूमिका रही। इसके लिए बापू को केंद्र सरकार ने विनोबा भावे पुरस्कार भी दिया था। 

डॉ. वाकणकर हड़प्पा से लेकर मौर्य युगीन ब्राह्मी-खरोष्ठी और आधुनिक युग तक की लिपियों के जानकार थे और लिपियों के अध्ययन से भी उन्होंने इतिहास के कई निष्कर्ष दिए। सिक्के इकट्ठे करना उनका शौक था और उन्होंने 40 हजार से सिक्के जोड़े। वे संगीत के जानकार भी थे। डॉ. वाकणकर भारतीय इतिहास को नए सिरे से व्याख्यायित करने के पक्षधर थे। सो, यही कसक लेकर गए कि इतिहास को हम कई खामियों और आपराधिक चूकों के साथ नई पीढ़ी को परोस रहे हैं।  

(डॉ. वि श्री वाकणकर की जन्मशताब्दी के समापन अवसर (4 मई) पर)

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)