[ ए. सूर्यप्रकाश ]: आजादी के बाद छह दशकों तक देश में ‘लुटियन समूह’ का बोलबाला रहा। इसमें नेहरूवादी-मार्क्सवादी और छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों का जमावड़ा रहा जो कुछ असहमतियों के बावजूद वैचारिक सहोदर हैं। उन्होंने स्कूली पाठ्यक्रम से लेकर लोक नीतियों और इतिहास लेखन तक को प्रभावित किया। अपने इस प्रभाव से वे ऐसा झूठा विमर्श खड़ा करने में सफल रहे जिसने भारतीय सभ्यता पर प्रहार करते हुए उसे लगातार कमजोर किया ताकि वह समय के साथ विस्मृत होती जाए। इससे वे स्वतंत्रता के बाद जन्मीं भारत की तीन पीढ़ियों को उनकी स्वर्णिम विरासत से दूर रखने में सफल रहे। उन्होंने भारतीयों के मन में अपने अतीत को लेकर हीनता और शर्म का भाव भी भर दिया। इस मोर्चे पर सबसे ज्यादा नुकसान वामपंथी नेताओं, नौकरशाहों और अकादमिक तबके ने किया। उन्होंने स्कूली किताबों से लेकर इतिहास के उच्च अध्ययन पाठ्यक्रमों की विषयवस्तु को विकृत किया। साथ ही ऐसे विधायी कदम उठाए और सरकारी नीतियां बनाईं जिससे आम जनमानस अपनी खुद की संस्कृति और परंपराओं से परहेज करने लगे।

नफरत और विरोध की आग का दायरा फैलता गया

सदियों से भारत की सभ्यतागत पहचान हिंदुत्व से जुड़ी थी तो इस तबके की व्यापक योजना हिंदू विरोध ही बन गई। उसने हिंदुत्व से जुड़ी चीजों के प्रति नकारात्मकता और हिंदू विरोधी बातों को प्रोत्साहन देने का काम किया। नफरत और विरोध की इस आग का दायरा कई क्षेत्रों तक फैलता गया जिसमें वेदों, रामायण एवं महाभारत जैसे महाकाव्यों का उपहास उड़ाना, योग और आयुर्वेद को खारिज करना और सभी भारतीय भाषाओं की जननी संस्कृत की लानत-मलानत करना शामिल था।

सभ्यता एवं संस्कृति से दूर करने में सफल

दुनिया में अन्यत्र ऐसी कोई मिसाल मिलना मुश्किल है जहां कुछ लोगों का समूह देश की बड़ी आबादी को उनकी सभ्यता एवं संस्कृति से दूर करने में सफल रहा हो। यह वर्ग 67 वर्षों तक अपनी इस मुहिम में कामयाब रहा। इसमें 1998 से 2004 के बीच राजग सरकार के छह वर्षों का कार्यकाल भी शामिल है। सत्ता की कमान नरेंद्र मोदी के हाथों में आने के बाद ही वे अपनी नियति को प्राप्त हुए, जब 2014 में भारतीय जनता उनसे त्रस्त आ गई और उसने नेहरूवादी-माक्र्सवादी ब्रिगेड को उनके अड्डों से बेदखल करने का फैसला किया। 2019 के आम चुनाव में जनता ने अपने उसी जनादेश को दोहराया। इससे विमर्श बदलने की प्रक्रिया में निरंतरता का भाव आया और विश्व में प्राचीन भारतीय सभ्यता के अद्भुत योगदान को स्वीकारने, सराहने का सिलसिला शुरू हुआ।

शाह ने किया वीर सावरकर का विशेष उल्लेख

भारतीय जनता ने छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी तबके को जब हाशिये पर पहुंचा दिया है तब राष्ट्रीय गौरव की पुर्नस्थापना प्रक्रिया भी अवश्य आरंभ की जानी चाहिए। गृहमंत्री अमित शाह द्वारा इतिहास के पुनर्लेखन के आह्वान को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। शाह ने तमाम उदाहरण गिनाए, मगर उन्होंने वीर सावरकर का विशेष उल्लेख किया जिन्होंने 1857 को स्वतंत्रता के पहले संग्राम की संज्ञा दी थी जबकि इतिहासकारों ने उसे अंग्रेजों के खिलाफ महज एक बगावत माना था।

शाह ने कहा- हमें ऐसा इतिहास लिखना चाहिए जो तथ्यों से न्याय करे

शाह ने सही कहा कि हमें ऐसा इतिहास लिखना चाहिए जो तथ्यों से न्याय करे। जैसे औरंगजेब की ही मिसाल लें। वर्ष 1669 में उसने अपने सेनापतियों को हिंदू मंदिरों के विध्वंस का आदेश दिया। इनमें काशी विश्वनाथ मंदिर, सोमनाथ मंदिर और मथुरा के बेहद पवित्र मंदिर शामिल थे। उसने मथुरा में मंदिर ध्वस्त कर एक विशाल मस्जिद बनवाई और भगवान कृष्ण की मूर्ति को मस्जिद की सीढ़ियों के नीचे दफन करा दिया ताकि मुस्लिम श्रेष्ठता कायम हो सके।

औरंगजेब हिंदू धर्म छोड़ इस्लाम अपनाने वालों को सरकारी नौकरियां देता था

औरंगजेब हिंदू धर्म छोड़ इस्लाम अपनाने वालों को सरकारी नौकरियां देता था। सजा में छूट भी एक लुभावनी पेशकश हुआ करती थी। हिंदुओं द्वारा मंगाई जानी वस्तुओं पर उसने कर बढ़ाया और जजिया कर भी थोप दिया। उसने सिख गुरुद्वारों को भी नहीं बख्शा। गुरु तेगबहादुर को गिरफ्तार कर प्रताड़ित किया और इस्लाम अपनाने से इन्कार करने पर उनका सिर कलम करवा दिया।

औरंगजेब ने गुरु गोविंद सिंह के बेटों की हत्या करा दी थी

गुरु गोविंद सिंह के दौर में भी सिखों पर उसके जुल्म जारी रहे और उसने उनके बेटों की हत्या करा दी। ये औरंगजेब की कुछ करतूतें हैं। फिर भी तमाम इतिहासकारों ने तथ्यों की अनदेखी कर उसे एक ‘सेक्युलर’ व्यक्ति बताया। अगर विकृत इतिहास लेखन के लिए कोई पुरस्कार होता तो ऐसा इतिहास लिखने पर वह शर्तिया मिल जाता। क्या छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी दिल्ली के दिल में एक प्रमुख सड़क का नामकरण ऐसे आततायी के नाम पर करने के पीछे का तर्क बता पाएंगे?

बर्बर जुल्म ढाने वालों को सम्मान

भारत के छोटे-बड़े शहरों में तमाम सड़कों का नामकरण इस अपराधी शासक के नाम पर हुआ। यह इसलिए संभव हुआ, क्योंकि हिंदुत्व से नफरत करने वाले ही विमर्श गढ़ने की दिशा नियंत्रित कर रहे थे। इसी तर्ज पर बाबर, हुमायूं और जहांगीर जैसे बर्बर जुल्म ढाने वालों को भी राजधानी सहित देश के अन्य इलाकों में बहुत सम्मान दिया गया। ऐसे अपराधियों से जुड़े प्रतीकों को कायम रखकर भारत कब तक सेक्युलर एवं लोकतांत्रिक राष्ट्र बना रह सकता है?

लोक नीतियां संविधान के बुनियादी मूल्यों के आधार पर बननी चाहिए

यदि हमें संविधान की रक्षा करनी है और हम अपनी धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक परंपराओं को सहेजना चाहते हैं तो इतिहास की पुस्तकों में इस सच को शामिल करना होगा। हमारी लोक नीतियां भी संविधान के बुनियादी मूल्यों के आधार पर बननी चाहिए। इसका अर्थ यही होगा कि ऐसी भयावह स्मृतियों के अवशेषों को हमेशा के लिए दफन करना होगा। सौभाग्य से दिल्ली में औरंगजेब रोड का नाम बदलकर अब उसे बेहद सम्मानित पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के नाम पर कर दिया गया है। औरंगजेब की श्रेणी में आने वाले दूसरे नामों के साथ भी यही सुलूक किया जाए। उनके साम्राज्य से जुड़े कड़वे सच और कट्टरता के किस्से पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनने चाहिए। ऐसा करके ही सुनिश्चित किया जा सकता है कि भारत का भविष्य ऐसी कट्टरता में नहीं, बल्कि वास्तविक लोकतंत्र में निहित है जहां समता एवं समानता का सिद्धांत ही मूलमंत्र है।

भारतीय सभ्यता को तिलांजलि देना फैशन बन गया

भारत को अपना बसेरा बनाने वाले फ्रांसीसी पत्रकार फ्रेंकोइस गुटेर और बेल्यिजन विद्वान कोनार्ड एल्स्ट ने भारतीयों को उस धोखेबाजी को लेकर चेताया है जो वामपंथी नेता, अकादमिक एवं नौकरशाह करते आए हैं। गुटेर अर्से से भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन की दुहाई दे रहे हैं। एल्स्ट ने उन मार्क्सवादी इतिहासकारों को निशाना बनाया है जिन्होंने हिंदू प्रतीकों को मिटाने की मुहिम चलाई और जिन्हें वामपंथी सोच वाले कथित सेक्युलर नेताओं, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों का साथ मिला। भारतीय राज्य ने भी इसमें सहयोग दिया। एल्स्ट का कहना है कि भारतीय अंग्रेजीदां अभिजात्य वर्ग के लिए भारतीय सभ्यता को तिलांजलि देना ही फैशन बन गया। गृहमंत्री की बातों का सार भी यही है। अब उन लोगों के चेहरे बेनकाब होने ही चाहिए जिन्होंने हमारे स्वर्णिम अतीत को स्याह बनाने की हरसंभव कोशिश की।

( लेखक प्रसार भारती के चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )