पवन चौरसिया। तुर्की आज व्यापक राजनीतिक और सामाजिक असमंजस से गुजर रहा है। चूंकि तुर्की के पूर्व प्रधानमंत्री और तत्कालीन राष्ट्रपति रेसेप तईप एर्दोगान स्वयं को मुस्लिम जगत के –नव-खलीफा- के रूप में स्थापित करना चाहते हैं, इसीलिए वो तमाम ऐसे कदम उठा रहे हैं जिससे तुर्की में लोकतांत्रिक व्यवस्था और धर्मनिरपेक्षता समाप्त हो रही है और तुर्की इस्लामिक कट्टरपंथ की ओर बढ़ता जा रहा है।

हाल ही में कश्मीर मुद्दे पर भी जिस तरह से तुर्की ने वैश्विक मंचों पर पाकिस्तान का समर्थन किया, उसे एर्दोगान के खुद को मुसलमानों के –नव-खलीफा- के रूप में पहचाने जाने के प्रयासों का ही एक हिस्सा माना जा रहा है। लेकिन उनके द्वारा तुर्की की अदालत की मंजूरी के बाद तुर्की के ऐतिहासिक संग्रहालय -हागिया सोफिया- को मस्जिद में परिवर्तित करने और वहां नमाज पढ़ने की इजाजत देने के निर्णय ने एक बार फिर उनकी इस्लामीकरण की नीतियों को चर्चा के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया है।

वर्ष 2003 में जब से एर्दोगान ने तुर्की की सत्ता संभाली है, उनकी सरकार के द्वारा लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और संस्थाओं पर अभूतपूर्व हमले किए गए हैं। एक समय पर तुर्की अन्य मुस्लिम देशों के समक्ष एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा था, क्योंकि समस्त मुस्लिम जगत में केवल तुर्की ही ऐसा देश था, जहां पर धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र फल-फूल रहे थे। लेकिन आज स्थिति पूरी तरह से परिवर्तित हो चुकी है और अब वहां यह दोनों ही गुण अपनी आखिरी सांसें गिन रहे हैं। वर्ष 2016 में एर्दोगान को सत्ता से हटाने के लिए सेना के एक धड़े ने तख्तापलट का प्रयास किया जो सफल नहीं हो पाया था। वैसे तुर्की में सेना द्वारा तख्तापलट की कोशिश करना कोई नई बात नहीं है। इसकी वजह समझने के लिए हमें तत्कालीन तुर्की गणराज्य के स्थापना के इतिहास को समझना पड़ेगा।

ओटोमन साम्राज्य से तुर्की गणराज्य तक का ऐतिहासिक सफर तुर्की गणराज्य स्वयं को इस्लामिक इतिहास के सबसे महान साम्राज्यों में से एक ओटोमन साम्राज्य का उत्तराधिकारी मानता है। वही ओटोमन साम्राज्य जिसका सुल्तान खलीफा, यानी विश्व भर के मुसलमानों का राजा माना जाता था। लेकिन प्रथम विश्व युद्ध में हारने के बाद मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने तुर्की की कमान संभाली और वहां आमूलचूल परिवर्तन किए। एक आधुनिक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र स्थापित करने की मंशा से अतातुर्क ने सबसे पहले तो खलीफा के पद को समाप्त किया। इसके बाद उन्होंने तुर्की भाषा की लिपि को अरबी से बदल कर रोमन कर दिया। धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने के लिए औरतों के हिजाब पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया और हागिया सोफिया को मस्जिद से बदल कर एक संग्रहालय बना दिया। तुर्की की सेना अपने आप को अतातुर्क की इसी धर्मनिरपेक्ष विचारधारा का रक्षक मानती है और जब भी तुर्की में किसी भी लोकतांत्रिक सरकार ने इस विचारधारा से भटकने की कोशिश की है, सेना ने तख्तापलट कर के वहां धर्मनिरपेक्षता को बचाया है।

हागिया सोफिया का इतिहास वर्ष 537 में शुरू हुआ, जब बीजांटिन सम्राट जस्टिनियन ने गोल्डन हॉर्न बंदरगाह की ओर इस विशाल चर्च का निर्माण किया। अपने विशाल गुंबद के साथ यह दुनिया का सबसे बड़ा चर्च माना जाता था। वर्ष 1204 में एक संक्षिप्त काल के अलावा (जब क्रूसेडर्स ने शहर पर छापा मारा था) सदियों तक यह चर्च बीजांटिन हाथों में ही रहा। लेकिन 1453 में ओटोमन सुल्तान मेहमेद द्वितीय ने इस्तांबुल पर कब्जा कर लिया और हागिया सोफिया के अंदर शुक्रवार की नमाज अदा की। ओटोमन साम्राज्य ने जल्द ही इस इमारत को मस्जिद में बदल कर बाहर चार मीनारें खड़ी कर दीं और अलंकृत ईसाई प्रतीकों को अरबी धार्मिक सुलेख के पैनलों से ढंक दिया। फिर 1934 में इसे एक संग्रहालय में बदल दिया गया था, ताकि तुर्की को धर्मनिरपेक्ष बनाया जा सके। अब यह एक यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल भी है।

यह संग्रहालय दरअसल तुर्की के धर्मनिरपेक्ष होने का जीता-जागता उदाहरण है। मुस्लिम रूढ़िवादियों को यह संग्रहालय कभी रास नहीं आया और समय-समय पर उनके द्वारा इसको दोबारा से मस्जिद बनाए जाने की मांग की जाती रही है। परंतु सेना के डर और अंतरराष्ट्रीय दबाव के चलते कोई भी सरकार ऐसा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। लेकिन एर्दोगान इस कदम से तुर्की के अपने मुस्लिम रूढ़िवादी समर्थकों को खुश करना चाहते हैं। चाहे स्कूली शिक्षा में इस्लाम और कुरान को शामिल करना हो या ऐतिहासिक धरोहरों को परिवर्तित करना एर्दोगान ने शुरू से ही तुर्की को इस्लामिक राष्ट्र बनाने की अपनी विचारधारा को लागू करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

खतरनाक परिणामों की संभावना : तुर्की के इस कदम का दुनिया के तमाम देशों में विरोध हो रहा है। तुर्की के पड़ोसी और अपने आप को बीजांटिन साम्राज्य का उत्तराधिकारी समझने वाले ग्रीस ने इसको लेकर कड़ी आपत्ति जताई है। वहीं अमेरिका, यूरोप और रूस भी इस निर्णय के विरोध को लेकर एकमत दिखाई देते हैं। चूंकि हागिया सोफिया यूनेस्को की सूची में भी है, इसलिए इसमें किसी भी तरह के बदलाव से पहले यूनेस्को को सूचित करना आवश्यक होता है, जो तुर्की ने नहीं किया है, जिस कारण यूनेस्को ने भी इसको लेकर अपनी चिंता जाहिर की है। ऐसे में तुर्की के इस कदम से न केवल दुनिया भर में ईसाइयों और मुसलमानों के बीच तनाव बढ़ने की संभावना है, बल्कि तुर्की के भीतर भी इसको लेकर धर्मनिरपेक्ष और मुस्लिम कट्टरपंथियों के बीच विवाद गहराता जा रहा है।

[शोधार्थी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय]