शास्त्री कोसलेंद्रदास। विक्रमादित्य के शासन से पहले युधिष्ठिर संवत, श्रीराम संवत और नक्षत्र संवत प्रचलन में थे। कालांतर में विक्रमादित्य के लोकोत्तर प्रभाव से उनके नाम से विक्रम संवत्सर शुरू हुआ। पिछली बार की तरह इस बार भी भारतीय नव संवत्सर का संयोग वैश्विक महामारी कोरोना से हो रहा है। मानव समाज को इस घातक बीमारी ने विवश कर दिया है, जिससे वह सूझ-बूझ के सहारे निपटने का प्रयास कर रहा है। इस बीमारी ने नव संवत्सर के उल्लास और उत्साह में डर और कई प्रकार के संदेह को उत्पन्न कर दिया है। फिर भी ऐसे विरोधी परिवेश में नव संवत्सर का आना कष्ट, दुख और दरिद्रता सहित महाव्याधियों को हरने वाला होता है।

संवत्सर का इतिहास किसी से पूछने की जरूरत नहीं है। यह सनातन है, ठीक उसी तरह जैसे सनातन धर्म है। कौन जानता है कि सनातन धर्म कब से है? इतिहास के किसी भी पृष्ठ पर सनातन धर्म के आरंभ को खोजना संभव नहीं। संवत्सर का उत्सव हर वर्ष के आरंभ में प्रतिपदा तिथि को होने वाला अनुष्ठान है। नौ दिनों तक निरंतर चलने वाला ‘नवरात्र’ पर्व इस अनुष्ठान का हिस्सा है। हर एक वर्ष बाद यह संवत्सर एक नए नाम के साथ आता है। इस बार संवत्सर का क्रम 2078 है, जिसका नाम ‘आनंद’ है। पौराणिक मान्यता है कि संवत्सर के आरंभ वाले दिन से ही भगवान ब्रह्म ने संसार का निर्माण शुरू किया था। कुछ लोग इसे राम राज्य की स्थापना का दिन मानते हैं। अनेक ऐसे दृष्टांत हैं, जो इस दिन की बेजोड़ महिमा को प्रकट करते हैं। इसकी एक व्याख्या इतिहास से जुड़ी है। भगवान महाकाल की नगरी उज्जैन के महाराज विक्रमादित्य ने इसी दिन अपना राजपाट संभाला था। अत: उनका नाम इस संवत्सर के साथ जुड़ गया। विक्रमादित्य उस कालखंड में धाíमक ज्ञान-विज्ञान और सुशासन के सबसे बड़े नायक थे। उनकी तुलना अगर किसी से हो सकती है तो वह धर्मराज युधिष्ठिर हैं। ऐतिहासिक तथ्य हैं कि विक्रमादित्य के शासन से पहले ब्रह्म संवत, नक्षत्र संवत, श्रीराम संवत और युधिष्ठिर संवत प्रचलन में थे। कालांतर में विक्रमादित्य के लोकोत्तर प्रभाव से उनके नाम से विक्रम संवत्सर शुरू हुआ।

भारत सरकार का अधिगृहीत संवत्सर शक संवत है। सरकार ने आजादी के बाद शक संवत को राष्ट्रीय संवत के रूप में स्वीकार किया। हालांकि यह हमारा दुर्भाग्य है कि देश के स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस जैसे कोई भी राष्ट्रीय पर्व राष्ट्रीय संवत की तिथियों से नहीं, बल्कि अंग्रेजी कैलेंडर के हिसाब से मनाए जाते हैं। वह सिर्फ गजट और बजट पर छापने के अलावा आकाशवाणी से बोलने के काम आता है। यह भी एक सवाल है कि ईस्वी सन से 57 वर्ष पुराने विक्रम संवत्सर का प्रचलन सरकारी साल के रूप में नहीं है, जबकि उसी विक्रम संवत्सर के आधार पर होली-दिवाली जैसे सारे त्योहारों पर अवकाश घोषित किया जाता है। इस कारण जब विक्रम संवत्सर का कोई पर्व होता है तो आकाशवाणी से किसी दूसरी ही तिथि का उच्चारण होता है। क्या ऐसे में विक्रम संवत्सर को नकारना हमारी ऐतिहासिक भूल थी?

देखा जाए तो शक बाहर से आए आक्रांता थे। उन्हें विक्रमादित्य ने युद्ध में हराया, इसीलिए विक्रमादित्य का एक नाम है शकारि यानी शकों का शत्रु। शालिवाहन का इतिहास इस संवत से जुड़ा है। जो लोग विक्रम संवत्सर को उलझाऊ मानकर उसमें तिथियों की घटत-बढ़त को भारतीय ज्योतिष का दोष मानते है एवं उसे अविज्ञानी सिद्ध करने का प्रयास करते हैं, वे भूल जाते हैं कि ग्रिगेरियन कैलेंडर में भी तिथियों का मान घटता और बढ़ता है। इसी कारण फरवरी में 28 तो कभी 29 दिन होते हैं। जबकि विक्रम संवत्सर निर्धारित काल और ऋतु में ही शुरू होता है। विक्रम संवत्सर का प्रारंभ वसंत ऋतु में होता है। इसका केवल धाíमक ही नहीं वरन औषधीय महत्व भी है। कई जगह पर नीम की पत्तियां और गुड़ खाकर ‘गुडी पड़वा’ पर्व मनाया जाता है, जो आरोग्य देता है। संवत्सर आचरण की व्यापक पवित्रता पर जोर देता है। तन, मन और धन पवित्र होगा, तो पाप से बचेंगे। बीमारी और चरित्रहीनता से बचेंगे। वेदों में लिखा है कि भगवान उसे मिलते हैं, जो सभी दूषणों से बचकर निर्मल मन वाला होता है। कोरोना जैसी महाव्याधि से बचने के सारे साधन यही बताते हैं कि लोग वेदों के विधान से संयम के साथ जिएं।

इन पर्वो से एक सवाल उठता है कि आखिर क्या नहीं है हमारे पास? जवाब है कि संस्कृति को अपमानित करने वालों के खिलाफ गुस्सा नहीं है। एक वक्त था, जब लोगों को गुस्सा आया करता था। पर हमारी आस्था और विश्वास पर इतने खंजर मारे गए हैं कि हमारा विश्वास ही खत्म नहीं हुआ, बल्कि जो कुछ हमारी परंपरा के लिए अपमानजनक हो रहा है उसके प्रति भी हमारा गुस्सा मर चुका है। संवत्सर प्रतीक है शक्ति को संजोकर नव सर्जना करने का। आधि, व्याधि और भय से लड़ने का। इसीलिए संवत्सर हर वर्ष आता है, जगाने और उठाने। आइए, नव संवत्सर ‘आनंद’ का स्वागत करें और प्रार्थना करें कि संसार के रोग, शोक और सारे कष्ट दूर हों।

शक्ति को संजोकर नव सर्जना करने का प्रतीक है संवत्सर। यह आधि, व्याधि और भय से लड़ने का भी प्रतीक है, इसीलिए संवत्सर हर वर्ष आता है हमें जगाने और उठाने..

[विभागाध्यक्ष, दर्शनशास्त्र, राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय]