हिमाचल प्रदेश, नवनीत शर्मा। बेशक भूमिका पहले से बन रही थी, लेकिन वे 2011 के कुछ निर्णायक पल थे जब जगत प्रकाश नड्डा ने हिमाचल प्रदेश मंत्रिमंडल को छोड़ते हुए संगठन को चुना था, संगठन के राष्ट्रीय फलक को चुना था। उसके बाद परिस्थितियों को अपने श्रम से अनुकूल बनाते हुए संगठन की आंच में और निखरे। बेशक भारतीय जनता पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष से नियमित अध्यक्ष बनना तय ही था, निस्संदेह हिमाचल प्रदेश जैसे छोटे राज्य के लिए यह बड़ी बात है। इस एक सर्वसम्मत नियुक्ति के कई संदेश हैं। राज्य छोटा हो, उससे अंतर नहीं पड़ता, काम बड़ा होना चाहिए। इस नाते यह प्रतिभा का सम्मान है, प्रदेश का सम्मान है। भाजपा के जगत में नड्डा का प्रकाश होने के पीछे मूलत: उनका श्रम है।

बेशक वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के भी विश्वस्त हैं। और विश्वास कमाना सबसे कठिन काम होता है। उसे प्रमाणित करना पड़ता है, उसे होना ही नहीं, दिखना भी पड़ता है। उसके बाद से नड्डा ने पीछे लौट कर इसलिए नहीं देखा, क्योंकि एक चुनौती के बाद दूसरी, एक राज्य के बाद दूसरा और एक कठिन कार्य के बाद दूसरा कठिन कार्य संभालते गए और इस मुकाम पर पहुंचे।

पटना से लेकर शिमला और उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में संगठन क्षमता प्रमाणित कर चुके नड्डा के दिल्ली तक पहुंचने के बीच कई उपलब्धियां दर्ज हैं। जेपी आंदोलन ने उनकी राजनीतिक और नेतृत्व चेतना को सींचा जिसके बाद वह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय जनता युवा मोर्चा में पदाधिकारी रहे। उसके बाद जब शांता कुमार 1993 में हार गए थे, जेपी नड्डा विधानसभा में पार्टी के नेता थे। तब भारतीय जनता पार्टी के आठ ही विधायक थे। पिता नारायण लाल नड्डा यूं ही नहीं कहते कि नड्डा में नेतृत्व के गुण बचपन से ही थे।

बिलासपुर का कंदरौर आंदोलन भी उन्हें सामने लाया था। उनके दादा शिव राम नड्डा उन्हें नेताजी कह कर ही बुलाते थे। वजह यह थी कि जब-जब नड्डा घर आते, हमउम्र बच्चों को इकट्ठा कर लेते। बाकी सब भी उनकी बात मानते थे। उनके संगठक की झलक के लिए यह पर्याप्त है। इससे पूर्व भी हिमाचल प्रदेश से राष्ट्रीय फलक पर लोग ढाए रहे हैं, लेकिन पहाड़ का इतना बड़ा सम्मान पहली बार हुआ है। भारतीय जनता पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष के चयन में भी जगत प्रकाश नड्डा की छाप दिखी है। दो ऐसे नाम चल रहे थे जिनका ताल्लुक बिलासपुर से था, लेकिन वे नाम वापस हुए और प्रश्न पूछा गया कि ऐसे नेता का नाम बताएं जो अपने दम पर भाजपा को चुनाव तक ले जा सके। इसलिए, क्योंकि आखिर लक्ष्य, क्षेत्रवाद, व्यक्तिवाद, निष्ठावाद नहीं, संगठन होना चाहिए। फिर डॉ. राजीव बिंदल का नाम उभरा और तय हो गया।

डॉ. राजीव बिंदल के बारे में उनके विरोधी भी मानते हैं कि वह काम करने वाले राजनेता हैं। पहले सोलन और सिरमौर में भाजपा को मजबूत करने में उनका योगदान सर्वविदित है। कभी राजनीतिक मौसम ऐसा हो जाता है कि वात, पित्त और कफ हर पार्टी में असंतुलित हो जाते हैं। आयुर्वेदज्ञ डॉ. बिंदल त्रिदोष का नाश करेंगे, ऐसी ही अपेक्षा से उनका चयन किया गया है। अब संतुलन सधेगा और सरकार और संगठन के बीच तारतम्य और बढ़ेगा, संगठन का चेहरा और दमक के साथ दिखाई देगा, ऐसी उम्मीद करना स्वाभाविक है।

मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर तो पहले ही कह चुके हैं कि यह प्रदेश के लिए गर्व की बात है। अनुराग ठाकुर ने भी ‘बड़े भाई’ जगत प्रकाश नड्डा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने पर खुशी जताई है, उसी प्रकार डॉ. बिंदल का प्रदेशाध्यक्ष बनना भी शिमला से हमीरपुर और मंडी से पालमपुर तक सबको स्वीकार हो गया है। डॉ. बिंदल के यहां अनुभव सिर्फ सुनाने के लिए नहीं होते, उन पर काम हो, इसीलिए होते हैं। विधानसभा अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने नए विधायकों की मजबूरी को समझा और संदर्भ अनुभाग की स्थापना की। विधायक को जिस विषय पर बोलना है, उस से संबद्ध सामग्री उन्हें मिल जाएगी। यह विधानसभा के अकादमिक स्तर को उठाने की दिशा में एक बेहतर कदम था। ‘ई कमेटी’ और ‘ई कांस्टीचुएंसी’ तो एक बेहतर सोच थी ही। यह ज्ञात नहीं कि कितने लोगों ने इसका लाभ उठाया।

राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा हों या प्रदेशाध्यक्ष डॉ. राजीव बिंदल, इन दोनों की नियुक्ति के साथ हिंदी भाषा भी सम्मानित हुई है, क्योंकि दोनों शब्द के मर्म को समझते हैं। भाजपा को प्रदेश में आगे की चुनौतियों के लिए तैयार करने का बड़ा दायित्व डॉ. बिंदल के सामने है, क्योंकि राष्ट्रीय अध्यक्ष का प्रदेश आदर्श होना ही चाहिए। उम्मीद है कि डॉ. बिंदल हर कोने की बात सुनेंगे। हालांकि हिमाचल प्रदेश देश की 71 लाख की आबादी वाला वह राज्य है जहां बजट के लिए सुझाव मांगने पर केवल 2,393 सुझाव ही आए हैं। इनमें से भी 80 फीसद शिकायतें और मांगें हैं। जहां सुझाव से अधिक शिकायतें हों, वहां संगठन को भी जनता और सरकार के बीच पुल बनना होगा।

[राज्य संपादक, हिमाचल प्रदेश]