[नवनीत कुमार शर्मा]। देवभूमि है हिमाचल! जैसा देव चाहें वैसा होता है। बारिश ने 117 साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया। नुकसान के रिकॉर्ड टूटे तो कुछ भयावह लम्हे तस्वीर बन गए। पठानकोट-मंडी राष्ट्रीय राजमार्ग पर कोटरोपी के पहाड़ वैसे ही धंस रहे हैं जैसे हिमाचल में आपदा प्रबंधन। एक वैकल्पिक मार्ग रहा घोघरधार वाला। वहां हिमाचल पथ परिवहन निगम की नई नवेली बस सड़क के धंसने से अटक गई। कालका शिमला राष्ट्रीय राजमार्ग पर जाने से पर्यटक डरते हैं। चंबा-पठानकोट मार्ग पर भी पहाड़ गिरा। प्रदेशभर में लोग मरे। फिर गूंजे आंकड़े. 117 साल का रिकॉर्ड... इतना पैसा राज्य सरकार ने जारी किया...टोल फ्री नंबर...!

सड़क के बंद होने का मतलब वह जानता है जो सड़क से चलता है। हवाई जहाज से धरती का दृश्य बहुत छोटा दिखता है। चलने वाले लोग कीड़े-मकोड़ों जैसे छोटे-छोटे दिखते हैं। यह तो वही जानता है जो दिल्ली से परिवार सहित चला हो और परवाणू से आगे उसे पता ही न हो कि कब कोई पत्थर कार पर आ गिरेगा या किस मोड़ पर रास्ता ही मंजिल हो जाएगा। जो आपदा प्रबंधन मॉक ड्रिल में दिखता है, वह असली आपदा के आने पर नदारद रहता है। सवाल यह है कि क्या पूर्व आपदा प्रबंधन हुआ?

पर्यटकों के लिए एडवाइजरी जारी हो गई कि हिमाचल प्रदेश में सोच समझ कर आएं। बेशक इन हालातों में ऐसी चेतावनी बनती ही थी। इससे पहले शिमला में पीलिया के कारण पर्यटक अटके थे. फिर पानी के संकट के कारण ऐसी स्थिति पैदा हुई कि पर्यटक न आएं। क्या हिमाचल प्रदेश अब उस स्थिति में आ गया है कि हर माह नई चेतावनी जारी किए जाने की जरूरत है? हैरानी यह है कि अफसर ऐसी आपदाओं को आपदा तो मानते हैं, पूर्व आपदा पर बात नहीं सुनते। वास्तव में पूर्व आपदा प्रबंधन एक मानसिकता है, एक विचार है जिसका आचरण में ढलना आवश्यक है मगर ढलता कहां है।

कोटरोपी के छिल कर धंसे हुए खोखले हो चुके पहाड़ से सालभर कच्चा रास्ता मुसाफिरों को राह देता रहा। भला हो आइआइटी मंडी का जिसकी वजह से पहाड़ी पर सेंसर रखे गए। बरसात आई, सेंसर बोल उठे और रास्ता बंद कर दिया गया। अगस्त से लेकर दिसंबर तक कांग्रेस सरकार के लिए कोटरोपी कोई प्राथमिकता नहीं थी। जनवरी से लेकर अब तक इस सरकार की नजर में भी कोटरोपी का संवेदी सूचकांक वही है। मिट्टी का परीक्षण हुआ है। आगे की आगे देखेंगे। ठीक है, बिजली परियोजनाओं की गाद रोकना व्यवस्था का काम नहीं। मुसाफिरों, सेब और टमाटरों के लिए सड़कें आवागमन के योग्य रहें, यह देखना तो व्यवस्था का जिम्मा है ही। आपदा आने पर चेहरों पर छाने वाली मजबूरी हासिल है। क्या ही अच्छा हो अगर पूर्व आपदा प्रबंधन करते हुए जो संतोष और विजेता भाव चेहरे पर आता है, वह हासिल होता।

यह हिमाचल प्रदेश की त्रासदी है कि बोर्ड निगमों में राजनीतिक नियुक्तियां इस कदर भूलभुलैया में खो गईं कि आपदा प्रबंधन बोर्ड में भी कोई नियुक्ति नहीं हुई। यानी राजनीतिक रूप से सुविधाजनक समय और व्यक्ति जब मिलेगा, तब नियुक्तियां होती रहेंगी... आपदा तो आती रहती है। बेशक नियुक्ति होने पर भी वह व्यक्ति यह सब रोक लेता, ऐसा यकीनी तौर पर कहना गलत है लेकिन कोई जिम्मेदारी, कोई शिरकत, कोई जवाबदेही तो तय हो सकती थी। अभी मुख्यमंत्री या फिर मुख्य सचिव ही उत्तर आपदा प्रबंधन कर रहे हैं। ऐसा कोई अंतरविभागीय विंग तो दिखाई नहीं दिया। हां, आपदा प्रबंधन के नाम पर टोल फ्री नंबर देना ही बड़ी उपलब्धि है तो बात अलग है। कैलाश फेडरेशन और भाषा अकादमी से कम महत्वपूर्ण तो नहीं है आपदा प्रबंधन बोर्ड।

मुख्यमंत्री उज्जैन से लौटे और आपदा प्रबंधन में शरीक हो गए। कहा अफसरों से, कि सड़कें बन जानी चाहिए, जल एवं सिंचाई योजनाएं बहाल होनी चाहिए, सेब ढुलाई पर असर न हो। यह सब समय के साथ होगा लेकिन विचार यह किया जाना चाहिए था कि क्या कुछ पहले ही हो सकता था। काम की गुणवत्ता, प्राथमिकता और सूझबूझ के हिसाब से लोक निर्माण विभाग और मनरेगा में अंतर तो होना ही चाहिए।

इतिहास बताता है कि वह कैसे अपने आप को दोहराता है। उस लिहाज से इससे आगे की पटकथा भी पूर्व निर्धारित ही लगती है। बरसात में बहे हिमाचल प्रदेश के साजोसामान की क्षतिपूर्ति का अध्याय अब शुरू होगा। केंद्र को नुकसान का जायजा भेजा जाएगा। उसके बाद बार-बार याद दिलाई जाएगी। उसके बाद जब हिमाचल प्रदेश का मौसम सुधरेगा या यूं कह लें कि दिल्ली की गर्मी परेशान करने लगेगी, तब आला अफसरों का दल हवाई मार्ग से दौरा करेगा। फिर नुकसान के आंकड़ों पर माथापच्ची होगी। हिमाचल प्रदेश किसी लिहाज से केरल नहीं कि उसे केंद्रीय मदद तत्काल और पूरी मिले। ऊंट के नसीब में जीरा आएगा, एक लंबी कसरत के बाद। तब तक हिमाचल प्रदेश के कुछ जख्म भर गए होंगे, कुछ सूख गए होंगे इसलिए हिमाचल यही कह रहा होगाराहों की जहमतों का उन्हें क्या सबूत दूं, मंजिल मिली तो पांवों में छाले नहीं रहे।

[राज्य संपादक, हिमाचल प्रदेश]