[कमलेश सिंह]। मौजूदा दौर में सोशल मीडिया हमारे लिए वरदान के साथ ही अभिशाप की तरह भी सामने आ रहा है। ठीक उसी तरह, जैसे पिछली सदी के नौवें दशक में अल्ट्रासोनोग्राफी मशीन का देश में तेजी से प्रचलन बढ़ा। हालांकि इसका मकसद बहुत ही नेक था, पलक झपकते ही गर्भावस्था के दौरान भू्रण व जच्चा में किसी भी समस्या का पता लगाया जाने लगा। लेकिन कुछ लोगों की कारगुजारियों ने इसे ‘किलिंग मशीन’ में तब्दील कर दिया। कहां तो इससे जान बचाई जा सकती थी, लेकिन होने लगा इसके उलट। देश के लिंग अनुपात में तेजी से गिरावट आने लगी। ठीक वैसे ही देश में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म फेसबुक, ट्विटर, वाट्सएप, इंस्टाग्राम, यूट्यूब आदि मौत की वजह बनते जा रहे हैं।

दरअसल सोशल मीडिया की भूमिका सामाजिक समरसता को बिगाड़ने और सकारात्मक सोच की जगह समाज को बांटने वाली सोच को बढ़ावा देने वाली हो गई है। हालिया दिल्ली दंगे को ही देखें। कारण व जरिया कई होंगे। लेकिन विस्फोटक सांप्रदायिक सौहार्द पर सोशल मीडिया की तीली ने भी कम माचिस नहीं लगाई। सूत्रों के मुताबिक, दंगों से संबंधित गिरफ्तार आरोपियों से जब्त मोबाइल फोन इसकी तस्दीक करते हैं। जब्त फोन से कई वाट्सएप समूहों का पता चला है, जिसमें दंगा भड़काने के मकसद वाले वीडियो और अफवाह, झूठी खबरें, धार्मिक आस्था को ठेस पहुंचाने वाले मैसेज बड़े पैमाने पर आदान-प्रदान किए जा रहे थे। कुछ स्थानीय नेताओं ने अपने ट्विटर और फेसबुक पेजों से आपत्तिजनक बयानबाजी की जिसकी वजह से भी हिंसा को दाना- पानी मिला। वहीं दूसरी जगहों की अलगअलग घटनाओं के वीडियो भी दिल्ली का बताकर फैलाए गए, जिससे लोगों की भावनाएं भड़कीं। ऐसे तमाम उदाहरण सामने आ रहे हैं। अधिकतर लोगों ने बगैर सोचे-समझे ही ऐसे पोस्ट को साझा किया।

विचारधारा से प्रेरित समूह : दरअसल वाट्सएप और फेसबुक पर कई सोशल ग्रुप बने होते हैं। अक्सर ये ग्रुप किसी विचारधारा से प्रेरित होते हैं या किसी खास मकसद से बनाए जाते हैं। यहां बिना किसी रोक-टोक के धड़ल्ले से फेक न्यूज बनाए और साझा भी किए जाते हैं। फिर यह कहना गलत नहीं होगा कि सामाजिक सौहार्द के सामने सोशल मीडिया एक चुनौती बन कर खड़ा है। एक ऐसे समय में जब देश के कई हिस्सों से धार्मिक सद्भावना बिगड़ने की खबरें आ रही हैं, तब सोशल मीडिया एक सकारात्मक और रचनात्मक भूमिका निभा सकता है। लेकिन क्या ऐसा हो पा रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि मौजूदा दौर में सोशल मीडिया एक चिंता का विषय बन गया है। ऐसा इसलिए भी है, क्योंकि ‘स्टेटिस्टा’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, आज देश में लगभग 30 फीसद आबादी सोशल मीडिया पर सक्रिय है। फेसबुक के आज देश भर में 19.4 करोड़, जबकि यूट्यूब के 4.2 करोड़, और ट्विटर के 2.6 करोड़ व वाट्सएप के 20 करोड़ यूजर्स हैं।

हिंसा भड़काने का हथियार : धीरे-धीरे सोशल मीडिया में सही सूचना और अफवाह में अंतर मिटता जा रहा है। दिल्ली में ही नहीं, वरन देश भर में अराजकता सोशल मीडिया की पहचान बनती जा रही है। दंगे भड़काने के पहले और अब के खुराफातों में अंतर भी स्पष्ट देखा जाने लगा है। अब सोशल मीडिया पर भड़काऊ बातें लिखकर दंगा भड़काया जाता है। इतना ही नहीं, दंगा भड़काने के बाद उसकी आग में घी भी सोशल मीडिया द्वारा ही डाला जाता है। दरअसल सोशल मीडिया पानी की तरह है, जिसमें हम जैसा रंग डालेंगे, उसका वैसा ही रंग दिखेगा।

समझदारी पैदा करेंगे, तो समझदारी दिखेगी और विभाजनकारी तत्व डालेंगे, तो वैसा ही दिखेगा। सही मायनों में अच्छे और बुरे दोनों का ही आईना है सोशल मीडिया। अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में आम जनता के बीच गलत जानकारी और नफरत फैलाने वाले मुद्दे भी फलफूल रहे हैं। वर्ष 2018 में ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन ने एक अध्ययन रिपोर्ट जारी की थी जो भारत में सक्रिय सोशल मीडिया में पोस्ट पर नफरत और उस पर जवाबी हमलों के आंकड़ों पर आधारित है। इस रिपोर्ट से पता चलता है कि न सिर्फ धर्म, बल्कि पहनावा और खान-पान से जुड़ी हुई ‘धार्मिक-सांस्कृतिक’ प्रथाएं भारतीय सोशल मीडिया में मौजूद नफरत फैलाने के लिए सबसे स्पष्ट आधार थीं।

उपयोगकर्ताओं का एक बढ़ता हुआ वर्ग हिंसा को उकसाने के लिए ठीक इसी सोशल मीडिया का बड़े सुनियोजित तरीके से उपयोग करता है। ये आंकड़ा 20 से 30 प्रतिशत की दर से बढ़ता दिख रहा है। छोटी घटनाएं भी इंटरनेट और सोशल मीडिया पर फैली अधकचरी जानकारियों के जरिये बड़ी हिंसात्मक घटनाओं में तब्दील होती जा रही हैं। युवाओं में इंटरनेट के इस्तेमाल से अतिवादी विचार पनप रहे हैं।

पिछली लोकसभा में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री हंसराज अहीर ने एक सवाल का जवाब देते हुए बताया था कि 2017-18 में फेसबुक और ट्विटर समेत कई वेबसाइट पर 2,245 आपत्तिजनक सामग्रियों के मिलने की शिकायत की गई थी, जिनमें से जून 2018 तक 1,662 सामग्रियां हटा दी गई थीं। फेसबुक ने सबसे ज्यादा 956 आपत्तिजनक सामग्रियों को हटाया था। इनमें ज्यादातर वे कंटेंट थे जो धार्मिक भावनाएं और राष्ट्रीय प्रतीकों के अपमान का निषेध करने वाले कानूनों का उल्लंघन करते थे। इतनी कम अवधि में बड़ी संख्या में आपत्तिजनक कंटेंट का पाया जाना यह बताता है कि सोशल मीडिया का कितना दुरुपयोग हो रहा है। एक अनुमान के मुताबिक, हर 40 मिनट में फेसबुक से संबंधित एक पोस्ट को हटाने की सिफारिश की जाती है। इसी कड़ी में 13 दिसंबर 2019 को सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में स्पष्ट तौर पर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के दुरुपयोग होने को स्वीकार किया था।

दुनिया के अन्य हिस्सों में भी खलनायक : सामाजिक रूप से जागरूक समझे जाने वाले दुनिया के अन्य देशों में भी सोशल मीडिया द्वारा फैलाई गई अफवाहों का असर देखने में आया है। बीते वर्षों लंदन में हुए दंगे के पीछे सोशल मीडिया का हाथ बताया गया था। यूनेस्को द्वारा वर्ष 2017 में इसी संदर्भ में एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई थी। इस रिपोर्ट में वर्ष 2012 से 2016 के बीच दुनिया भर में सोशल मीडिया और इंटरनेट के इस्तेमाल से युवाओं में फैलते हिंसात्मक विचार और अतिवादिता का अध्ययन किया गया था। इस अध्ययन में अंग्रेजी, फ्रेंच, अरबी और चीनी भाषा के ग्रे लिटरेचर का अध्ययन किया गया था।

दरअसल ग्रे लिटरेचर उसे कहा जाता है जो किसी संगठन द्वारा आम तौर पर उसकी परंपरा या विचारधारा से इतर जारी किया जाता है। अध्ययन के मुताबिक सोशल मीडिया और इंटरनेट के उभार ने तेजी से सामाजिक हिंसा को बढ़ावा दिया है। लिखित रूप से धार्मिक और सामाजिक विभाजनकारी कंटेंट का विभिन्न सोशल मीडिया चैनलों के माध्यम से प्रचार-प्रसार किया जाता है। वर्ष 2018 में श्रीलंका में फेसबुक को द्वेष और अफवाह के लिए इस्तेमाल किया गया, नतीजन पूरे देश में इमरजेंसी लगानी पड़ी। श्रीलंका की सरकार ने फेसबुक को बैन भी कर दिया था। ये घटनाएं बताती है कि विश्व में सोशल मीडिया किस कदर खतरनाक हो चुका है। जिन विकासशील देशों में संस्थाएं कमजोर या अविकसित हैं, वहां सोशल मीडिया और भी खतरनाक प्रवृत्तियों को जन्म दे सकती है। विश्व आर्थिक मंच ने भी अपनी जोखिम रिपोर्ट में बताया है कि सोशल मीडिया के जरिये झूठी सूचना का प्रसार उभरते जोखिमों में से एक है।

नफरत साझा करने के खिलाफ कड़े कानून

फ्रांस : फ्रेंच ब्रॉडकास्टिंग अथॉरिटी को नेटवर्क को ऑफ एयर करने का अधिकार।

मलेशिया : झूठी खबरें फैलाने पर बड़ी आर्थिक सजा या छह साल तक की जेल की सजा।

रूस : सोशल मीडिया पर झूठी खबरें फैलाने पर किसी प्रकाशन को 16 लाख रुपये तक का जुर्माना देना पड़ सकता है।

जर्मनी : आम लोगों को पचास लाख यूरो (करीब 40 करोड़ रुपये) और कंपनियों को पांच करोड़ यूरो की जुर्माना देने का प्रावधान है।

ऑस्ट्रेलिया : कंपनी पर टर्नओवर का 10 फीसद तक जुर्माना और उसके एग्जिक्यूटिव को तीन साल तक की जेल का प्रावधान। आम लोगों को 1,68,000 ऑस्ट्रेलियाई डॉलर (करीब 80 लाख रुपये) और कंपनियों को चार करोड़ रुपये तक जुर्माना देना पड़ सकता है।

नकेल कसने की तैयारी : वर्ष 2013 में राष्ट्रीय एकता परिषद की एक बैठक बुलाई गई थी। बैठक का मकसद मुजफ्फरनगर दंगों पर विचार करना था, जिसमें कई राज्यों के मुख्यमंत्री पहुंचे ही नहीं और जो अन्य लोग मौजूद रहे उन्होंने सीधे तौर पर सोशल मीडिया को दंगे का खलनायक मान लिया। वहीं इस बात पर सहमति बनी कि सोशल मीडिया पर लगाम लगाई जानी चाहिए। पर लगाम कैसे लगे इस पर सभी मौन रहे। या कहें तो यह उनके समझ से बाहर की बात थी। सोशल मीडिया पर नकेल चीन जैसे देशों में तो प्रभावकारी ढंग से संभव है, लेकिन भारत जैसे अलगअलग विचारों और बहस की परंपरा वाले देश में शायद ही ऐसा कर पाना संभव होगा। हां, सरकार को कुछ करना ही है, तो उन्हें लोगों को और अधिक जानकारी देनी होगी और जागरूक बनाना होगा, ताकि अफवाहों के फेर में पड़कर गलत जानकारियां न फैलाएं। पाबंदियों और पहले से कई कानूनों के बावजूद अपराधों पर कितना नकेल कसा जा सकता है, इसके असंख्य उदाहरण हमारे सामने हैं।

देश में पहले से ही साइबर सुरक्षा नीति और सूचना तकनीक कानून लागू है। लेकिन इस कानून के क्रियान्वयन में दिक्कत आने की वजह से सोशल मीडिया पर अफवाहों को रोकने में कामयाबी नहीं मिल पा रही। सरकार ने सूचना तकनीक कानून की धारा 79 में संशोधन का मसौदा तैयार किया है। ऐसे में सेवा प्रदाता कंपनियां अब अपनी जिम्मेदारियों से नहीं भाग सकेंगी। साथ ही सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई को लेकर नए दिशा-निर्देश जारी करने की तैयारी है। इसके तहत कंपनियां फेक न्यूज की शिकायतों पर न केवल अदालत और सरकारी संस्थाओं, बल्कि आम जनता के प्रति भी जवाबदेह होंगी। इसके अलावा, गृह मंत्रालय ने राज्य पुलिस और खुफिया ब्यूरो को इस पर कार्रवाई करने के लिए सोशल मीडिया शाखा बनाने के निर्देश दिए हैं।

[स्वतंत्र पत्रकार]