राजीव सचान। हरिद्वार की कथित धर्म संसद में सुनाई दिए बिगड़े बोल अभी शांत भी नहीं पड़े थे कि रायपुर की ऐसी ही धर्म संसद में महात्मा गांधी को सार्वजनिक रूप से अपशब्द कहे गए और उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे का गुणगान किया गया। इन दोनों आयोजनों में कई वक्ताओं की ओर से जो आपत्तिजनक बयान दिए गए, वे किसी भी दृष्टि से न तो धर्मसम्मत कहे जा सकते हैं और न ही संसदीय। इन बयानों की केवल निंदा और भर्त्सना ही पर्याप्त नहीं, यह भी सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है कि माहौल बिगाड़ने, देश की छवि खराब करने और वैमनस्य पैदा करने वाले ऐसे आयोजन न होने पाएं और यदि हों तो उनमें विषैले बोल सुनने को न मिलें। यदि मिलें तो फिर उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई हो। अभी तक की जानकारी के अनुसार हरिद्वार की धर्म संसद में नफरती बयान देने वाले तीन लोगों और रायपुर में ऐसा ही बयान देने वाले एक व्यक्ति को नामजद किया गया है। दुर्भाग्य से इनमें खुद को संत-साध्वी कहने वाले लोग भी हैं, जैसे कि संत धर्मदास, साध्वी अन्नपूर्णा और संत कालीचरण।

हरिद्वार की तथाकथित धर्म संसद का मामला सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर भी पहुंच गया है। पता नहीं वहां क्या होगा, लेकिन इसमें दोराय नहीं कि इन आयोजनों में दिए गए उत्तेजक बयानों से उन लोगों को सुनहरा मौका हाथ लग गया, जो देश को नीचा दिखाने की ताक में रहते हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें और खासकर भारत को उग्र-असहिष्णु हिंदू राष्ट्र में तब्दील होता देखने वालों को दोष नहीं दिया जा सकता। वे अपनी प्रकृति और प्रवृत्ति के हिसाब से काम कर रहे हैं। दोषी तो वही हैं, जिन्होंने उन्हें यह मौका उपलब्ध कराया।

सार्वजनिक मंच से भाषण देने वाला कोई व्यक्ति इतना बेवकूफ नहीं हो सकता कि यह न समझ सके कि उसके उत्तेजक बयानों पर क्या और कैसी प्रतिक्रिया होगी, लेकिन शायद ऐसे लोग अपनी आदत से लाचार हैं। इनमें कुछ नेता भी हैं। कुछ लोगों के लिए हरिद्वार और रायपुर की धर्म संसद में दिए गए जहरबुझे बयान उन तत्वों की कारगुजारी हैं, जिन्हें फ्रिंज एलिमेंट कहा जाता है। नि:संदेह ऐसे तत्व समाज के हर तबके और देश में हैं, लेकिन इंटरनेट मीडिया के जमाने में वे अक्सर बहुत बुरा असर डालते हैं। इसके अलावा ऐसे बयान जिन्हें भी लक्ष्य करके दिए गए होते हैं, उनमें तीखी प्रतिक्रिया ही नहीं होती, बल्कि वे भय और अंदेशे से भी ग्रस्त होते हैं। इसके चलते उन्हें भड़काने या फिर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करने वालों का काम आसान होता है। इसे ऐसे समझें कि जब हरिद्वार की धर्म संसद में दिए गए उत्तेजक बयानों का मामला गर्म था, तभी एआइएमआइएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने कानपुर की रैली में पुलिस को धमकाते हुए कहा कि ‘हम मुसलमान वक्त से मजबूर जरूर हैं, लेकिन कोई इसे भूलेगा नहीं। समय बदलेगा, जब योगी मठ में चले जाएंगे और मोदी पहाड़ों में तब तुम्हें (पुलिस को) कौन बचाएगा?

उन्होंने पुलिस को खुले आम धमकाने के लिए कानपुर देहात के रसूलाबाद इलाके के उस मामले का जिक्र किया, जिसमें उनके अनुसार पुलिस इंस्पेक्टर गजेंद्र पाल सिंह ने एक बुजुर्ग रफीक अली की दाढ़ी नोची। ओवैसी के इस उत्तेजक बयान पर तीखी प्रतिक्रिया हुई। यह बात और है कि ओवैसी जिस रफीक को 80 साल का बेचारा बूढ़ा बता रहे थे, वह करीब 60 साल का शातिर अपराधी है। उस पर एक दलित की गाय की हत्या करने, लूट-डकैती, जमीन कब्जाने और हत्या के प्रयास समेत आठ मुकदमे हैं। उसने अपनी बहू को घर से निकाल दिया था। महिला आयोग के हस्तक्षेप से पुलिस जब बहू को लेकर उसके घर गई तो रफीक इस पर अड़ गया कि पहले दहेज उत्पीड़न का मुकदमा वापस हो। इस पर विवाद बढ़ा और फिर रफीक ने अपने बेटों और पड़ोसियों के साथ इंस्पेक्टर गजेंद्र और सिपाहियों पर हमला कर दिया। गजेंद्र की पिस्टल और मोबाइल लूट लिए और साथी सिपाहियों के साथ उन्हें इतना मारा कि मरणासन्न हालत में इलाज के लिए कानपुर लाना पड़ा। वह करीब दो महीने अस्पताल में भर्ती रहे। यह इसी साल मार्च की घटना है। करीब चार महीने बाद रफीक पिस्टल समेत पकड़ा गया। अभी जेल में ही है।

साफ है कि एक निरी झूठी कहानी के साथ ओवैसी ने पुलिस को धमकाया और एक शातिर अपराधी को बेचारा बताया। जब उनके इस उत्तेजक बयान पर विवाद हुआ तो उन्होंने सफाई दी कि यह कहना जुर्म नहीं कि इंसाफ की जीत होगी। उन्हें सेक्युलर मानने-समझने वालों ने उनकी यह सफाई स्वीकार भी कर ली और कुछ ने तो उन्हें क्लीनचिट भी दे दी। इससे बड़ी विडंबना यह रही कि उत्तेजक बयान देने में माहिर ओवैसी ने खुद ट्वीट कर कहा कि सभ्य समाज असहिष्णु भाषा सहन नहीं करते। देसी-विदेशी मीडिया के एक हिस्से को ओवैसी या उनके भाई के ऐसे उत्तेजक बयानों से न पहले कोई मतलब रहता था और न इस बार भी रहा। इसके विपरीत उसने हरिद्वार में दिए गए उत्तेजक बयान सुर्खियां बनाएं। उसकी इस आदत पर उसे कोसने से कोई लाभ नहीं।

पुलिस-प्रशासन, समाज और सरकारों के साथ कथित धर्म संसद के आयोजकों को यह देखना होगा कि वैसे बिगड़े बोल फिर सुनने को न मिलें, जैसे पहले हरिद्वार और फिर रायपुर में बोले गए। ऐसे बयानों से वैमनस्य, विग्रह और विवाद के अलावा और कुछ हासिल नहीं होता। यह भी समझने की सख्त जरूरत है कि जैसे कीचड़ से कीचड़ नहीं साफ किया जा सकता, वैसे ही कट्टरता का जवाब कट्टरता से नहीं दिया जा सकता। समस्या केवल यह नहीं है कि लोग कट्टरता से मुकाबले के नाम पर कट्टरता की राह पर जा रहे हैं, बल्कि यह भी है कि देसी-विदेशी मीडिया को कट्टरता की राह पर जा रहे कुछ लोग नजर आते हैं और कुछ उनकी निगाह से ओझल ही रहते हैं।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)