उमर गाजी। वाराणसी की ज्ञानवापी (Gyanvapi) मस्जिद का मामला न केवल चर्चा के केंद्र में है, बल्कि अदालतों की चौखट पर भी है। इसी मामले के चलते वह विवाद उभरा जिसके केंद्र में भाजपा की निलंबित प्रवक्ता नुपुर शर्मा (Nupur Sharma) हैं। यह तय है कि नुपुर शर्मा की अवांछित टिप्पणी से उपजा विवाद जब थमेगा तो ज्ञानवापी प्रकरण एक बार फिर बहस के केंद्र में होगा।

ज्ञानवापी प्रकरण में बहुत सारे कानूनी दांवपेच हैं, जो 1936 से चले आ रहे हैं, जब मुस्लिम समाज के तीन लोगों ने पूरे ज्ञानवापी परिसर को मस्जिद बनाने की याचिका दाखिल की थी। इस बारे में किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि ज्ञानवापी परिसर औरंगजेब के वहां मस्जिद बनाने से पहले एक विशाल मंदिर हुआ करता था। उस प्राचीन मंदिर के स्तंभ और अन्य साक्ष्य आज भी वहां देखे जा सकते हैं। ज्ञानवापी कोई आम मंदिर नहीं, बल्कि प्राचीन काल से ही ज्ञान और आस्था का एक विश्व प्रसिद्ध केंद्र था।

हमें इसका पता औरंगजेब के शासन पर लिखी गई किताब मआसिर-ए-आलमगीरी से भी चलता है। यह किताब साकी मुस्ताईद खान ने लिखी थी। इसे औरंगजेब के शासनकाल की सबसे भरोसेमंद किताब माना जाता है। फारसी में लिखी गई इस किताब के अनुसार, औरंगजेब ने 8 अप्रैल 1669 को बनारस में सभी पाठशालाओं और मंदिरों को तोडऩे का आदेश जारी किया। इस आदेश के तहत 2 सितंबर 1669 को काशी विश्वनाथ मंदिर गिरा दिया गया।

मुस्ताईद खान लिखते हैं, 'जब बादशाह सलामत को यह पता चला कि मुल्तान और बनारस में ब्राहमण अपनी पाठशालाओं में 'गलत' शिक्षा दे रहे हैं और दूर-दूर से हिंदुओं के साथ मुस्लिम और अन्य समुदायों के विद्यार्थी भी वहां ज्ञान लेने आते हैं, तो उसने फौरन उन मंदिरों और पाठशालाओं को ध्वस्त करने का आदेश दिया।' काशी विश्वनाथ मंदिर (Kashi Vishwanath Dham) केवल आस्था का केंद्र ही नहीं, भारतीय शिक्षा, ज्ञान और प्रशिक्षण का स्रोत भी था। 1991 में पंडित सोमनाथ व्यास और उनके साथियों ने इस स्थान पर मंदिर बनाने की अपील की।

उनका कहना था कि ज्ञानवापी पर धर्मस्थल (विशेष प्राविधान) अधिनियम इसलिए लागू नहीं होता, क्योंकि यहां मस्जिद एक प्राचीन मंदिर के ऊपर बनाई गई है, जिसके प्रमाण स्पष्ट देखे जा सकते हैं। अब जब ज्ञानवापी परिसर में एक शिवलिंग मिलने की बात की जा रही है और यह भी बताया जा रहा है कि वहां मंदिरों और हिंदू संस्कृति के अनेक प्रतीक भी अंकित हैं, तो मआसिर-ए-आलमगीरी में दिए गए तथ्य सही साबित होते दिख रहे हैं।

यह साफ है कि वाराणसी की जिला अदालत जो भी फैसला दे, ज्ञानवापी मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचेगा। उसका फैसला जो भी हो, उसे शांति के साथ सबको स्वीकार करना चाहिए। सभ्य समाज में विवादों को सुलझाने का यही तरीका है। इस तरह के विवाद सड़कों पर उतरकर नहीं सुलझाए जा सकते। इसी के साथ यह भी समझा जाना चाहिए कि संविधान का अर्थ एक दस्तावेज मात्र नहीं होता। भारतीय संविधान भारत की प्राचीन सभ्यता, ज्ञान और मूल्यों का दर्पण है।

ज्ञानवापी विवाद के संदर्भ में धर्मस्थल कानून या किसी और कानूनी व्यवस्था की दुहाई देने से पहले यह सोचना आवश्यक है कि क्या हम अपने भारतीय मूल्यों का आदर करते हैं? क्या हम ज्ञान के अपने प्राचीन केंद्रों की महत्ता को समझते हैं? क्या हम परस्पर आदर के सिद्धांत का पालन करते हैं, जो कि भारतीय संविधान का आधार है? इन सवालों का जवाब हासिल करने के साथ इस पर भी ध्यान देना आवश्यक है कि ज्ञानवापी का विवाद हिंदू-मुस्लिम विवाद नहीं, बल्कि भारतीयों और उस पर आक्रमण करने वालों के बीच का विवाद है। इस मामले में हर व्यक्ति को बिना किसी धार्मिक भेदभाव के अपने भारतीय होने का प्रमाण देना है।

यह एक सच्चाई है कि मुस्लिम आक्रांताओं ने भारतीय संस्कृति के बहुत से महत्वपूर्ण स्मारकों को नष्ट किया, परंतु ऐसी घटनाओं के बीच भारत में इस्लाम का एक ऐसा स्वरूप भी उभरा, जो भारतीय संस्कृति से ओतप्रोत था। यह एक त्रासदी है कि आज की पीढ़ी उन महान शख्सीयतों को करीब-करीब भुला चुकी है, जिन्होंने भारतीयता में रचे-बसे इस्लाम को उभारा। कुनानगुड़ी मस्तान साहिब और मौलाना अब्दुल कसीर भारतीय इतिहास के दो ऐेसे मुस्लिम दार्शनिक कवि थे, जिन्होंने वेद और उपनिषद का न केवल गहन अध्ययन किया, बल्कि उनके दर्शन पर कविताएं भी लिखीं। इस कड़ी में सबसे महत्वपूर्ण नाम दारा शिकोह का है।

वही दारा शिकोह, जो औरंगजेब के बड़े भाई थे। औरंगजेब ने उन्हें बहुत निर्ममता से मारा था। दारा शिकोह ने न सिर्फ वेद और उपनिषद का अध्ययन किया, बल्कि इस्लाम और हिंदू धर्म के बीच समन्वय बढ़ाने के लिए उपनिषदों का संस्कृत से फारसी में अनुवाद भी किया। फारसी से वे यूरोपीय भाषाओं में अनूदित हुए और इस तरह भारतीय दर्शन और ज्ञान परंपरा से पूरा विश्व परिचित हुआ। दारा शिकोह हिंदू धर्म को समझने के लिए बनारस गए और वहां विद्वानों के बीच लंबे समय तक रहे। उनसे उन्होंने संस्कृत भी सीखी। दारा शिकोह जैसे सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने वाले विद्वान के होते हुए हमें न तो औरंगजेब में अपना नायक खोजने की आवश्यकता है और न ही उसके अत्याचारों पर पर्दा डालने की जरूरत है।

जो भारत की आत्मा को न समझकर ताकत के बल पर उसकी संस्कृति, उसके स्मारकों, उसकी ज्ञान पंरपरा को ध्वस्त करने का काम करे, वह भारतीय कहलाने का हकदार नहीं हो सकता। इस पर गौर किया जाना चाहिए कि समस्या को स्वीकार करना ही समाधान की ओर पहला कदम होता है। यही सही समय है कि हम समस्या के मूल कारणों को पहचानें और फिर उसका निवारण करें। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो इस तरह के विवाद कभी थमने वाले नहीं।

( लेखक भू-राजनीतिक विश्लेषक एवं ब्लागर हैं)