डॉ. सुशील कुमार सिंह। जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) को लागू हुए तीन साल से अधिक वक्त हो गया है। वन नेशन, वन टैक्स वाला जीएसटी इन दिनों कोरोना की चपेट में आने से केंद्र और राज्य दोनों पर भारी पड़ रहा है। अब तक जीएसटी को लेकर 41 बैठकें हो चुकी हैं और जीएसटी  कानून में सैकड़ों संशोधन हो चुके हैं, फिर भी पूरी तरह इसको पटरी पर लाना चुनौती बना हुआ है। जीएसटी को लेकर आने वाले दिनों में सरकार और विपक्ष में रार की संभावना साफ दिखती है। गौरतलब है कि पिछले माह 27 अगस्त को जीएसटी काउंसिल की 41वीं बैठक हुई थी, जिसमें राज्यों को जीएसटी क्षतिर्पूित के मुद्दे समेत कई उत्पादों पर जीएसटी की नई दरों में संशोधन को लेकर चर्चा हुई। हालांकि 42वीं बैठक 19 सितंबर को होनी थी, जो अब पांच अक्टूबर को होगी। ऐसा मानसून सत्र के चलते हुआ है। कोविड-19 के कारण मौजूदा वित्त वर्ष में जीएसटी संग्रह को काफी नुकसान हुआ है। जाहिर है कि पहले से ही राज्यों की क्षतिर्पूित के मामले में परेशान केंद्र की मुश्किलें और बढ़ गई हैं। 

एक जुलाई, 2017 को जीएसटी इस वायदे के साथ आया था कि 2022 तक राज्यों के घाटे को पाटने का वह काम करेगा। इन दिनों केंद्र और राज्य वित्तीय मामले में बैकफुट पर हैं और जीएसटी संग्रह तुलनात्मक रूप से न्यून स्तर पर चला गया है। जिसे देखते हुए केंद्र सरकार ने राज्यों के सामने दो विकल्प रखे हैं, जिसमें एक आसान शर्तों पर आरबीआइ से क्षतिर्पूित के बराबर कर्ज लेना, जबकि दूसरे विकल्प में जीएसटी बकाए की पूरी राशि अर्थात 2.35 लाख करोड़ रुपये बाजार से बातौर राज्य कर्ज ले सकते हैं। जो राज्य इन विकल्पों में नहीं जाते हैं, उन्हें भरपाई के लिए जून 2022 तक इंतजार करना पड़ सकता है।

जाहिर है कि ये दोनों शर्तें राज्यों के सामने किसी चुनौती से कम नहीं हैं। केंद्र सरकार कभी नहीं सोची होगी कि गॉड ऑफ एक्ट का भी ऐसा कोई दौर आएगा, जब वह अपने तीन साल पुराने वायदे पर खरी नहीं उतर पाएगी। फिलहाल जीएसटी क्षतिर्पूित के मुद्दे पर 21 राज्यों ने पहले वाले विकल्प को चुना है। सभी राज्य संयुक्त तौर पर करीब 97 हजार करोड़ रुपये आरबीआइ से कर्ज लेंगे। जिसमें भाजपा शासित राज्यों के अलावा गैर भाजपा शासित राज्य आंध्र प्रदेश और ओडिशा भी शामिल हैं, लेकिन झारखंड, केरल, महाराष्ट्र, दिल्ली, पंजाब, बंगाल, तेलंगाना सहित तमिलनाडु और राजस्थान ने अभी तक केंद्र से यह नहीं कहा है कि वे क्या करेंगे।

जाहिर है कि इन राज्यों के सामने एक नए किस्म का वित्तीय संकट न केवल खड़ा होगा, बल्कि लंबे समय तक केंद्र से पैसा न मिलने के कारण इनके विकास कार्य भी प्रभावित होंगे। भारतीय संविधान के भाग-12 में केंद्र-राज्य के वित्तीय संबंधों की चर्चा है और इसे लेकर दोनों के बीच तकरार भी होती रही है। जीएसटी के मापदंडों को यदि और गहराई से समझें तो सरकार ने एक साल में 13 लाख करोड़ रुपये इससे जुटाने का लक्ष्य रखा था, जो अब तक तीन वर्षों में कभी पूरा नहीं हुआ है। वर्ष 2017-18 में केवल एक बार ही ऐसा हुआ जब जीएसटी का संग्रह एक लाख करोड़ रुपये के पार गया था। वित्त वर्ष 2018-19 में ऐसा चार बार हुआ था और 2019-2020 में पांच बार एक लाख करोड़ रुपये से अधिक का कर संग्रह हुआ था। अब 2020-21 का वित्त वर्ष कोरोना की चपेट में है और जीएसटी संग्रह के आंकड़े जमीन पर गिरे हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि अप्रत्यक्ष कर के मामले में स्थिति किस कदर बिगड़ी है।

प्रधानमंत्री मोदी के लिए जीएसटी उनकी महत्वाकांक्षी योजनाओं में एक है, मगर विकास दर इन दिनों सबसे बेहतर कृषि से मिल रही है और देश की विकास दर ऋणात्मक 23 तक गिर चुकी है। दुविधा यह है कि पैसों के अभाव में समस्याओं का निदान कैसे होगा? बहुत संभव है कि आयकर में भी आने वाले दिनों में गिरावट दिखे। टैक्स की वसूली बढ़ाने के लिए सरकार के पास अभी कोई खास एजेंडा नहीं दिख रहा है। ऐसा कोरोना से बढ़ी बेकारी के कारण भी हो सकता है। वर्षों पहले टैक्स की वसूली बढ़ाने के मामले में सरकार आए दिन नए रास्ते खोजती थी, पर अब राज्यों को क्षतिर्पूित न दे पाने की स्थिति में कर्ज का रास्ता सुझा रही है। आरंभ में सरकार ने जीएसटी देने वालों की चार श्रेणियां बनाई  थी, जिन्हें उदासीन, अवरोधी, उद्यमी और समर्थक के रूप में पहचान किया गया था।

मौजूदा स्थिति को देखकर तो लगता है कि टैक्स देने वाले उदासीन तो नहीं, लेकिन कोरोना के अवरोध में जकड़ लिए गए हैं। इंग्लैंड के दार्शनिक जेरेमी बेंथम ने स्ट्रिक एवं केरेट सिद्धांत दिया था, जिसमें एक का अर्थ सख्त तरीका है तो दूसरे का पुचकारना। कोरोना ने जिस प्रकार विकास का नाश किया है, आमदनी को खत्म किया है, कारोबार को नष्ट किया है, बेरोजगारी को बढ़ाया है उसे देखते हुए कर संग्रह बढ़ाने के लिए सरकार न तो बहुत सख्त कदम उठा पा रही है और न ही बहुत पुचकार पा रही है। कह सकते हैं कि वह समस्या से उबरने की कोशिश कर रही है, लेकिन कब उबरेगी कहना मुश्किल है और कोरोना कब जाएगा, इसका भी कोई अंदाजा नहीं। फिलहाल केंद्र और राज्य सरकारें वित्तीय कठिनाइयों से जूझ रही हैं, लेकिन इन दोनों के बीच देश के नागरिक भी पिस रहे हैं।

(लेखक वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के निदेशक हैं)