सतीश सिंह। भारत के बैंकिंग इतिहास में यह पहली बार होगा, जब सरकार चार सरकारी बैंकों को बेचेगी या उनका निजीकरण करेगी। मार्च 2017 में देश में 27 सरकारी बैंक थे, जिनकी संख्या अप्रैल 2020 में घटकर 12 रह गई। बैंक ऑफ इंडिया, बैंक ऑफ महाराष्ट्र, सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया और इंडियन ओवरसीज बैंक में सरकार अपनी हिस्सेदारी बेचना चाहती है। वैसे तो सरकारी उपक्रमों का निजीकरण मोदी सरकार की प्राथमिकता में रहा है, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि दो सरकारी बैंकों के निजीकरण का कारण कोरोना काल में सरकारी राजस्व में भारी कमी आना है। कोरोना काल में राजस्व के स्नोत सूख जाने की वजह से सरकार विनिवेश के जरिये इस कमी को पूरा करना चाहती है। हालांकि वर्ष 2021 में सरकार के लिए विनिवेश के लक्ष्य को हासिल करना लगभग नामुमकिन है। इसलिए वित्त वर्ष 2021 में विनिवेश के लक्ष्य को कम करके 32,000 करोड़ रुपये किया गया है। वर्ष 2022 के लिए सरकार ने विनिवेश से राजस्व हासिल करने का लक्ष्य 1.75 लाख करोड़ रुपये रखा है, जिसमें से एक लाख करोड़ रुपये सरकारी बैंकों और वित्तीय संस्थानों में सरकार की हिस्सेदारी बेचकर जुटाए जाने का प्रस्ताव है। विनिवेश की प्रक्रिया 1996 में शुरू की गई थी, उस साल 31 सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में विनिवेश करके सरकार ने 3,038 करोड़ रुपये गैर-राजस्व कर के रूप में हासिल किए थे। दिलचस्प है कि विनिवेश की प्रक्रिया शुरू होने से अब तक तीन बार ही सरकार इस लक्ष्य को हासिल कर सकी है।

बैंकों को बेचने से सरकार को उसकी पूंजी वापस मिल जाएगी। वैसे इस पूंजी का मौजूदा मूल्य बाजार की स्थिति और बैंक की अंतíनहित ताकत पर निर्भर करेगा, जैसे शाखाओं और ग्राहकों की संख्या एवं कारोबार व एनपीए आदि का स्तर। बैंकों को बेचने के बाद सरकार को इन बैंकों में और अधिक पूंजी डालने की जरूरत नहीं होगी, जिससे सरकार को अपनी वित्तीय स्थिति को मजबूत करने में मदद मिलेगी। इसके अलावा, वित्त मंत्रलय, केंद्रीय सतर्कता आयोग आदि जैसे सरकारी विभागों को इन संस्थानों की निगरानी और पर्यवेक्षण की आवश्यकता नहीं होगी, जिससे मानव संसाधन और धन दोनों की बचत होगी।

उपरोक्त चार बैंकों के प्रदर्शन में पहले की तुलना में बेहतरी आ रही है। सरकारी बैंकों के निजीकरण से वहां कार्यरत कर्मचारियों की नौकरी जाने की आशंका बढ़ जाएगी। इसलिए इन बैंकों के निजीकरण का नकारात्मक प्रभाव सरकार की कल्याणकारी छवि पर पड़ सकता है। इन बैंकों का सेवा शुल्क भी बढ़ जाएगा। ग्रामीण इलाकों में सेवा देने से भी ये बैंक परहेज करेंगे। सरकारी योजनाओं को लागू करने से भी इन्हें गुरेज होगा। विभिन्न गैर-पारिश्रमिक सेवाओं जैसे पेंशन वितरण, अटल पेंशन योजना, सुकन्या समृद्धि आदि से जुड़े कार्य भी ये बैंक नहीं करेंगे। निजीकरण के बाद इन बैंकों के प्रति ग्राहकों के मन-मस्तिष्क में विश्वसनीयता का स्तर अनुपस्थित रह सकता है, क्योंकि हाल ही में यस बैंक और पंजाब एवं महाराष्ट्र कोऑपरेटिव बैंक डूब चुके हैं। चूंकि मौजूदा समय में सरकारी योजनाओं को मूर्त रूप देने में सरकारी बैंकों का अहम योगदान है, लिहाजा चार बैंकों के निजीकरण से अन्य बचे सरकारी बैंकों पर सरकारी योजनाओं को लागू करने का दबाव बढ़ जाएगा।

अभी भी देश का एक तबका निजीकरण को हर मर्ज की दवा समझता है, लेकिन यह पूरा सच नहीं है। कई निजी बैंक डूब चुके हैं। ताजा मामला यस बैंक और पीएमसी का है। कोरोना काल में निजी और सरकारी बैंकों ने कैसा प्रदर्शन किया है, यह किसी से छुपा नहीं है? सरकारी बैंकों के विनिवेश से कुछ हजार करोड़ जरूर मिल सकते हैं, लेकिन उससे सरकार को कितना फायदा होगा का भी आकलन करने की जरूरत है।

(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं)