डॉ. विशेष गुप्ता। महामारी के संक्रमण के कारण देशभर में शिक्षण कार्य ठप है। स्कूल बंद होने से बच्चे अपने परिवार के साथ ही पूरा समय व्यतीत कर रहे हैं। अभी तक हम बच्चों से संवाद न होने को लेकर उन पर दोषारोपण करते रहे हैं। अब बारी माता-पिता की है कि उन्हें अपने पाल्यों को समझकर परिवार और स्कूल दोनों की भूमिकाएं एक साथ निभानी हैं। मनोवैज्ञानिक शोध बताते हैं कि शुरुआती दौर में बच्चे मनोभावों से परिपूर्ण होते हैं। मगर स्कूली शिक्षा शुरू होने और भारी भरकम पाठ्यक्रम के सामने बच्चों के मनोभाव गायब होने लगते हैं। यह समय चिंतन-मनन का है। इस शिक्षा व्यवस्था को छात्र की व्यक्तिगत चिंता भले ही हो, मगर पाठ्यक्रम से जुड़े एक बच्चे और उनके मनोभाव तो इस शिक्षा व्यवस्था से गायब ही हो गए हैं।

आज कक्षा है, पाठ्यक्रम है, होमवर्क है, परीक्षा और उसका तनाव है, मगर यह संपूर्ण शिक्षा का ढांचा जिसके लिए बना है, उसकी मनोभावनाओं की इस शिक्षा व्यवस्था में कोई जगह नहीं दिख रही है। यही वजह है कि इस शिक्षा में बच्चे के स्वभाव या उसकी आंतरिक मनोभावनाओं को जाने बिना इस तोता रटंत शिक्षा के स्वरूप से बालकों का व्यक्तित्व अनेक विसंगतियों से भर रहा है। इसलिए वैश्विक प्रतिस्पर्धा के माहौल में बच्चों के वर्तमान शैक्षिक पाठ्यक्रम में उनके कौशल विकास के साथ उनसे जुड़ी चिंता, निराशा, तनाव, विरोध और शैक्षिक उदासीनता जैसे ज्वलंत तत्वों को भी जोड़े जाने की जरूरत महसूस की जा रही है।

हाल ही में आस्ट्रेलिया के सिडनी विश्वविद्यालय में 1998 से लेकर 2019 तक के शिक्षा और बाल मनोविज्ञान से जुड़े 160 शोध अध्ययनों के विश्लेषण के साथ-साथ 27 देशों के 42 हजार छात्रों पर एक शोध हुआ है। इस शोध के निष्कर्ष से साफ हुआ है कि जिन छात्रों ने अपने मनोभावों यानी मन में उपजती चिंता, तनाव व निराशा आदि को समझकर और उनका प्रबंधन करते हुए अपनी तनावमुक्त पढ़ाई लिखाई की, वे बेहतर शैक्षिक परिणाम देने में कामयाब रहे। देखा जाए तो अनौपचारिक शिक्षा का यह प्रतिमान पश्चिम से चलकर भारत आया है। सच यह है कि प्री-नर्सरी से यूकेजी तक की शिक्षा का यह प्रतिमान एक तरह से बच्चे को परिवार के द्वारा दी जाने वाली शिक्षा का स्थानापन्न ही है।

दरअसल इस शिक्षा का प्रादुर्भाव 18वीं सदी में औद्योगिक व्यवस्था से जन्मे फैक्ट्री व्यवस्था के आने से शुरू हुआ तथा इसके मुख्य केंद्र ब्रिटेन, जर्मनी, कनाडा आदि रहे। ऐसे माता-पिता जो फैक्टियों में कार्यरत थे, उनके परिवार बिल्कुल एकल थे। ऐसे परिवारों में बच्चों के लिए न तो उनके पालन पोषण और न ही उनकी प्राथमिक शिक्षा का कोई प्रबंध था। इस प्रकार के एकल परिवारों के बच्चों के शारीरिक विकास, खेलकूद, दिमागी विकास के साथ उनके शरीर को गतिमान बनाने तथा उन्हें अनौपचारिक पारिवारिक माहौल देने के लिए इस प्रकार की शिक्षा का प्रबंध वहां के उद्योगपतियों द्वारा किया गया। वह इसलिए ताकि ऐसे कार्यशील परिवारों के बच्चों को इन स्कूलों में परिवार जैसा माहौल मिल सके और ये कामगार बच्चों की तरफ से निश्चिंत होकर अपना कार्य कर सकें।

आंकड़े बताते हैं कि पश्चिम के अनेक देशों में जनसंख्या वृद्धि लगभग शून्य हो गई है। नतीजन वहां वृद्धों की संख्या बढ़ने लगी और उन्हें वृद्धाश्रम में जाने को मजबूर होना पड़ा। लिहाजा बच्चों के समाजीकरण करने और उन्हें दुनियावी जिंदगी से रूबरू कराने वाला और उनके मनोभावों को समझने वाला कोई बचा ही नहीं। इस सामाजिक टूटन का फायदा इस अंग्रेजी शिक्षा ने खूब उठाया। इससे जुड़ा कड़वा सच यह भी है कि परिवारों के एकल होने व उच्च मध्यम वर्ग की आमदनी में तीव्र बढ़ोतरी होने से ये तमाम स्कूल बाजार की तर्ज पर ऐसे परिवारों से अनौपचारिक शिक्षा देने के बदले भारी कीमत वसूलने लगे हैं। परंतु भावनात्मक स्तर पर ये स्कूल असफल रहे हैं।

भारत जैसे देश में भी अब परिवार की संयुक्त व्यवस्था तेजी से एकल परिवार में बदल रही है। ऐसे में इन परिवारों के पास अपने पाल्यों को इन प्री-स्कूलों में पढ़ाने के अलावा कोई चारा नहीं है। आज ये प्री-स्कूल बच्चों को किताबी दुनिया से अलग रखकर उन्हें मित्र बनाने, बड़ों से दूर रहने, आपसी मनमुटाव को पारस्परिक आधार पर दूर करने, अपनी भावनाओं को संप्रेषित करने के साथ साथ अपने बारे में निर्णय करना सिखाने का दंभ भरते हैं, लेकिन असल में ऐसा दिखाई नहीं देता।

बाल मनोविज्ञान बताता है कि पांच साल की उम्र बच्चों के विकास की सबसे संवेदनशील अवधि होती है। यह वह अवस्था है जब बच्चा परिवार और समाज के बीच तालमेल बैठाता है। यही वह समय है जब तमाम परिवेश मिलकर उसके भविष्य की दिशा तय करते हैं। ये संस्थाएं कामकाजी परिवारों के लिए पैसे के बलबूते स्थानापन्न बनी तो हैं, परंतु ऐसे माहौल में पलने वाले बच्चों की सामाजिक, सांस्कृतिक व भावनात्मक नींव कमजोर हो रही है।

ये सभी कार्य पूर्व में भारतीय शिक्षा पद्धति में घर के बुजुर्ग किया करते थे। परंतु अब भारतीय घरों में बुजुर्गो के मामले में एक सामाजिक शून्यता पनप रही है। आज यह सोशल आइसोलेशन हमें मौका दे रहा है कि माता-पिता इस समय बच्चे के साथ खूब हंस-बोल कर उसे जानने की कोशिश करें। साथ ही उससे संवाद बनाकर उसे अपने भावनात्मक आंचल व वात्सल्य का आवरण प्रदान करें। वर्तमान के अंग्रेजी शैक्षिक ढांचे के ग्लैमर में अभिभावक और बालक ऐसे उलझ गए हैं कि वे भूल गए कि बालक की किताबी दुनिया के अलावा भावनाओं की भी एक सतरंगी दुनिया है।

[अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश बाल अधिकार संरक्षण आयोग]