नई दिल्‍ली, [अजय कुमार राय]। पिछले दिनों भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के इंटरनल वर्किंग समूह ने देश में बैंकिंग जगत में सुधार के लिए बैंकों को नया रूप देने के संबंध में कई अहम सुझाव दिए। इनमें प्रमुख हैं- बड़े कॉरपोरेट और उद्योग घरानों को बैंक खोलने की इजाजत यानी लाइसेंस देना, बैंकों में प्रमोटर्स की हिस्सेदारी को दीर्घकाल यानी 15 साल में मौजूदा 15 से बढ़ाकर 26 प्रतिशत करना और बड़ी गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) को बैंक में बदलने की मंजूरी देना। 

समूह ने इसके लिए बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट 1949 में सुधार करने की सिफारिश की है। अब यह आरबीआइ पर निर्भर है कि वह इन सुझावों को अमल में लाता है या नहीं। बहरहाल इसमें उद्योग घरानों को बैंक खोलने या उन्हें बैंक प्रमोटर्स की तरह काम करने (ताकि वे बैंक में बड़ी हिस्सेदारी रख सकें) की इजाजत देने के सुझाव ने लोगों का सबसे ज्यादा ध्यान खींचा है। सवाल है कि क्या देश में अभी और बैंकों की आवश्यकता है। यदि है तो क्या उसकी पूर्ति  बड़े उद्योग घराने ही कर सकते हैं या पेशेवर लोगों को नए बैंकों का लाइसेंस दिया जाना चाहिए। क्या बड़े कॉरपोरेट को बैंक चलाने की अनुमति देना बाद में कोई जोखिम भरा कदम नहीं हो जाएगा? क्या उन पर निगरानी और नियंत्रण रखने में कोई कठिनाई तो नहीं आएगी? लोगों का पैसा सुरक्षित रहेगा?

देखा जाए तो नए बैंकों को लाइसेंस देने के मामले में आरबीआइ की नीति उदारीकरण के बाद से काफी हद तक नरम रही है। 

वर्ष 1969 में 14 और 1980 में छह निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण के एक लंबे समय के बाद 1993 में निजी कंपनियों को बैंक खोलने की इजाजत मिली थी। आरबीआइ ने 1993-94 में दस बैंकिंग लाइसेंस जारी किए थे। उनमें से आज छह ही काम कर रहे हैं, शेष चार का विभिन्न कारणों से दूसरे बैंकों में विलय हो गया। एचडीएफसी, आइसीआइसीआइ और एक्सिस बैंक (पहले यूटीआइ बैंक) तभी अस्तित्व में आए थे। इसके बाद 2003-04 में यस बैंक और कोटक महिंद्रा बैंक को तथा 2014-15 में बंधन बैंक और आइडीएफसी बैंक को बैंकिंग लाइसेंस दिया गया था। आज यस बैंक को छोड़ अन्य तीनों की स्थिति ठीक है।

अब अगले चरण में बड़े निजी कॉरपोरेट घरानों को लाइसेंस देने की बात हो रही है। इसमें दो राय नहीं कि भारत में अभी और बैंकों की आवश्यकता है। बड़े उद्योग घराने इसकी पूर्ति कर सकते हैं, लेकिन पूर्व में बैंकिंग तंत्र में हुईं तमाम धांधलियों में कॉरपोरेट जगत की भूमिका को देखते हुए कई लोग इस सिफारिश का विरोध कर रहे हैं। इनका मानना है कि देश में बैंकों की तुलना में डूबने वाली कंपनियों की संख्या कहीं ज्यादा है। ऐसे में यदि कारोबार प्रभावित हुआ तो कॉरपोरेट घराने से ताल्लुक रखने वाला बड़ा निजी निवेशक अपने बैंक पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। इससे लोगों का पैसा भी डूब सकता है। भले ही गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों, एसेट मैनेजमेंट फर्म, ब्रोकरेज, जीवन एवं साधारण बीमा निगमों में कॉरपोरेट घरानों की मौजूदगी  है, लेकिन बैंकों की प्रकृति दूसरे कारोबार से अलग होती है। इसमें सारा जोखिम जमाकर्ताओं पर होता है। इससे हितों के टकराव का मामला भी बढ़ सकता है, क्योंकि कोई कॉरपोरेट समर्थित निजी बैंक दूसरी कंपनियों, उनके सहायकों आदि को ऋण देने से इन्कार कर सकता है। 

ऐसे ताकतवर पूंजीपतियों के बैंकों की निगरानी भी एक बड़ी समस्या हो सकती है। वे अपने रसूख और पैसे के दम पर लंबे समय तक अपनी कारगुजारियों पर पर्दा डाले रह सकते हैं। हालांकि ये सिर्फ आशंकाएं ही हैं। इनके आधार पर निजी उद्योगों को बैंकिंग जगत में हाथ आजमाने से नहीं रोका जाना चाहिए। आरबीआइ के पूर्व डिप्टी गवर्नर रामा एस गांधी ने कहा है कि ऐसे लोगों को मालूम होना चाहिए कि यह अभी बस सिफारिश की गई है। इसके संबंध में कोई नीति नहीं बनी है। आरबीआइ जब बड़े कॉरपोरेट घरानों को लाइसेंस देगा, तब इसके लिए वह कोई पुख्ता नीति जरूर बनाएगा। वह सुरक्षा के कड़े प्रावधान भी करेगा, ताकि आम लोगों का पैसा सुरक्षित रहे और उद्योग घराने उसका दुरुपयोग न कर पाएं। पूर्व में कई उद्योगपतियों के आवेदन को आरबीआइ ने अपर्याप्त पाते हुए निरस्त किया भी है। 

आज बैंकों पर हमारी निर्भरता निरंतर बढ़ती जा रही है। हर काम में बैंक की भागीदारी जरूरी हो गई है। इनका संचालन व्यवस्थित रूप से हो, इसके लिए बैंक चाहिए, और बैंक के लिए चाहिए पूंजी, जो कॉरपोरेट के पास है। वह बैंक में आएगी तो देश में बैंकिंग जगत का विस्तार होगा। बैंकिंग सेक्टर में उद्योग घरानों को प्रवेश की इजाजत का फैसला सोच-समझकर ही लिया जाना चाहिए। एक समय निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण भी इसी तर्क के आधार पर किया गया था, क्योंकि आम अदमी को जोड़ने में वे सफल नहीं हो पा रही थीं। तब उनका स्वरूप केवल लाभ कमाना था। उनसे कुछ प्रभावकारी लोगों के ही हितों की पूर्ति हो पा रही थी। 

राष्ट्रीयकरण होने के बाद सरकारी बैंक की स्थिति काफी हद तक बदली है और वे जनसरोकारी हुई हैं। वे सरकारी योजनाओं का लाभ जनता तक पहुंचा रही हैं और लोगों को आत्मनिर्भर बनाने में योगदान दे रही हैं। बड़े कॉरपोरेट घरानों को बैंकिंग का लाइसेंस देते समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि 

उनका मकसद सिर्फ लाभ कमाना न रहे, क्योंकि इससे वे महाजनी की भूमिका में आ जाएंगी, जो कि हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ होगा, बल्कि उन्हें भी सरकारी बैंकों की तरह सामाजिक और कल्याणकारी बैंकिंग के सिद्धांत के रास्ते पर ही रखने के प्रयास होने चाहिए। बड़े कॉरपोरेट घरानों को बैंकिंग का लाइसेंस देते समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि उनका मकसद केवल लाभ कमाना न रहे।