अभय कुमार अभय। Galwan Valley Dispute चीन कह रहा है कि गलवन घाटी उसकी है। चीन का यह दावा निराधार व गलत है। इसे किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। इसे झुठलाया नहीं जा सकता। इसलिए चीन का यह नया दावा बेबुनियाद और खारिज करने योग्य है। गलवन शुद्ध भारतीय नाम है और इसका कोई फर्जी चीनी नाम भी नहीं है जैसा कि चीन अक्सर अपने झूठे दावों के साथ करता है कि कोई फर्जी चीनी नाम दिया और विवाद खड़ा कर दिया। इससे भी जाहिर हो जाता है कि गलवन घाटी भारत की है, थी और रहेगी। आखिर इस घाटी का नाम गलवन कैसे पड़ा?

आखिर इस घाटी का नाम गलवन कैसे पड़ा?: यह कहानी दिलचस्प और इतिहास पुस्तकों में दर्ज होने के बावजूद फिर से सुनाने लायक है। गुलाम रसूल गलवन का जन्म 1878 में लेह में हुआ था। पहाड़ी बच्चा आंख खोलते ही घाटियों व पहाड़ियों के उन महीन रास्तों को भी जान लेता है जो आम आदमी को दिखाई भी नहीं देते हैं। गुलाम रसूल गलवन भी इस नियम का अपवाद नहीं थे और मात्र 12 वर्ष की आयु में ही वह तिब्बत, केंद्रीय एशिया के पहाड़ों, विशेषकर कराकोरम रेंज में ब्रिटिश के लिए पोर्टर व गाइड का काम करने लगे।

यह वह समय था जब ब्रिटिश, रूस की विस्तार नीति को लेकर चिंतित थे, खासकर तिब्बत को लेकर। रूस की जो योजनाएं भारत में ब्रिटिश हितों को नुकसान पहुंचा सकती थीं, उनके बारे में इंटेलिजेंस एकत्र करने के लिए ब्रिटिश सैनिक दुश्मन के कब्जे वाले क्षेत्रों में गुपचुप तरीके से जाया करते थे। पहाड़ों के इन कठिन रास्तों पर गुलाम रसूल गलवन ही ब्रिटिश सैनिकों को गाइड करते थे।

लार्ड डनमोर ने नदी तलाशने की जिम्मेदारी गुलाम रसूल गलवन को सौंप दी: लार्ड डनमोर के साथ ऐसे ही एक अभियान के दौरान जैसा कि लद्दाख के विख्यात इतिहासकार अब्दुल गनी शेख का कहना है, मौसम बहुत ज्यादा खराब हो गया और कारवां रास्ता भटक गया। कहीं से निकलने का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। हर किसी को बस अपी मौत नजर आ रही थी। तब बालक गुलाम रसूल गलवन ने सुझाव दिया कि अगर कोई नदी तलाश ली जाए तो उसके बहाव को देखते हुए वापसी का रास्ता निकल सकता है। लार्ड डनमोर ने नदी तलाशने की जिम्मेदारी गुलाम रसूल गलवन को सौंप दी। गलवन ने न सिर्फ नदी को तलाश लिया, बल्कि वह रास्ता भी खोज निकाला जिसका प्रयोग करके सुरक्षित वापस पहुंचा जा सकता था। फलस्वरूप कारवां मौत से बच गया और शुक्रिया अदा करते हुए लार्ड डनमोर ने उस घाटी व नदी का नाम गलवन रख दिया।

लद्दाख में अनेक भूवैज्ञानिक व इतिहासकार पुराने रिकार्डों को शेयर करते हैं कि किस तरह गुलाम रसूल गलवन ने अपने दौर के आइकोनिक ग्लोबल यात्रियों को ट्रैकिंग, खोज आदि में सहयोग किया। इन यात्रियों में प्रमुखता से शामिल हैं डनमोर के सातवें अर्ल, चार्ल्स मर्रे, अंग्रेज भूवैज्ञानिक गोडविन ऑस्टिन, सर फ्रांसिस यंगहसबैंड आदि। इन हस्तियों की किताबों में भी गुलाम रसूल गलवन के सहयोग की बातें मिलती हैं।

चीनी सैनिकों से अक्सर हाथापाई हो जाया करती थी: गुलाम रसूल गलवन के पोते अमीन गलवन, जो सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके हैं, उनका कहना है कि उनके दादा ब्रिटिश अधिकारियों व फौज को गलवन घाटी व उसके आसपास के क्षेत्रों में अभियान के लिए ले जाया करते थे, जहां घुसपैठ कर रहे चीनी सैनिकों से अक्सर हाथापाई हो जाया करती थी। एक दिन ऐसे ही हमले की एक खबर आई तो गलवन व कुछ अन्य लोग लट्ठ लेकर चार चीनी घुड़सवार सैनिकों के पीछे दौड़े। जब वे कैंप लौट रहे थे तो कुछ चीनियों ने उन पर जबरदस्त हमला किया। वे लोग भागकर एक घर में छुप गए, लेकिन जब बाहर निकले तो चीनियों ने उन्हें फिर घेर लिया। काफी मशक्कत के बाद वहां से वह निकल सके। गुलाम रसूल गलवान के अभियानों व साहस की कहानियां लद्दाख में अब भी सुनाई जाती हैं। जिससे मिलिए उसके पास एक नई कहानी मिलेगी।

(लेखक सामाजिक अध्येता हैं)